अनुनाद

अशोक कुमार पांडेय की नई कविता – न्‍याय

अशोक इस बार न्‍याय की दस कविताओं के साथ उपस्थित है। गो उसकी हर कविता मनुष्‍यता के पक्ष में न्‍याय की अछोर-अटूट पुकार है लेकिन यह कविता न्‍याय की विडम्‍बनाओं का प्रतिलेख है। यह एक सरल समीकरण है कि न्‍याय होता तो उस पर कविता लिखने की नौबत ही नहीं आती। यानी कुछ नहीं है, इसलिए कुछ है। जिसे न्‍याय करना है उसे भी कहीं से पगार लेनी होती है कहकर अशोक एक क़दम में कचहरियों का त्रिलोक नाप आता है। इस कविता का खौलता-सा आक्रोश बेहद सधा हुआ है। युवा कवियों की अवांगर्दी को राजनैतिक और काव्‍यगत विशिष्‍टता मान लिए जाने के ज़माने में अशोक की वैचारिक प्रतिबद्धता उसे एक जटिल अनुशासन में बांधती है। वह कवियों के महान माने गए प्रोफ़ेटिक विज़न के आगे चुपके से यह एक मुश्किल रख देता है तो निकलने की राह नहीं मिलती – दिक्कत सिर्फ इतनी है कि भविष्य के रास्ते में एक वर्तमान पड़ता है कमबख्त। 

यही अशोक के कविकर्म का भी सच है कि भविष्‍य की कविता के रास्‍ते में वह अपनी कविता का वर्तमान रख देता है कमबख्‍़त।

***
न्याय
तुम
जिनके दरवाजों पर खड़े हो न्याय की प्रतीक्षा में
उनकी
दराजों में पियरा रहे हैं फ़ैसलों के पन्ने तुम्हारी प्रतीक्षा में 
(एक)
इंसाफ़
की एक रेखा खींची गयी थी जिसके बीचोबीच एक बूढ़ा भूखे रहने की ज़िद के साथ पड़ा हुआ
था . वह चाहता था उसकी गर्दन से गुज़रे वह रेखा लेकिन इंसाफ़ का तकाजा था कि ठीक
उसके दिल से गुज़री वह आरपार और लहू की एक बूँद नहीं बही.
लहू
की एक बूँद नहीं बही !
और
चिनाब से गँगा तक लाल हो गया पानी
इंसाफ़
बचा रहा और इंसान मरते रहे
हम
एक फ़ैसले की पैदाइश हैं
और
हमें उस पर सवाल उठाने की कोई इजाज़त भी नहीं.
(दो)
जो
कुछ कहना है कटघरे में खड़े होकर कहना है
जो
कटघरे के बाहर हैं सिर्फ सुनने का हक है उन्हें
यहाँ
से बोलना गुनाह और कान पर हाथ रख लेना बेअदबी है.
(तीन)
जिसके हाथों में न्याय का क़लम है 
उसे भी कहीं से लेनी होती है पगार 
वह सबसे अधिक आज़ाद लगता हुआ 
सबसे अधिक ग़ुलाम हो सकता है साथी 

उस किताब से एक कदम आगे बढ़ने की इजाज़त नहीं उसे
जिसे गुस्से में जला आये हो तुम अपने घर के
पिछवाड़े
 

उस
पर सिर्फ नाराज़ न हो तरस खाओ…
(चार)
पुरखों
ने कहा
तुम
लोग साठ साल पहले जन्मी किताब पर इतना इतरा रहे हो?
मेरे
पास छ हज़ार साल पुरानी किताब है जो छ करोड़ साल पुरानी भी हो सकती है.
फिर
कोई पन्ना नहीं उलटा
और
उस तलवारनुमा किताब ने उस जोड़े की गर्दन उड़ा दी.
उस
किताब में इज्जत का पर्यायवाची ह्त्या था
और
न्याय का भी!
(पाँच)
पुरखों
के हाथ तक महदूद नहीं थी वह किताब
न्यायधीश
ने कहा
ऊंची
जाति के लोग बलात्कार नहीं करते
वंश
सुधार के लिए तो न्याय सम्मत है नियोग
यह
जो अफसर बन के घूम रहे हैं लौंडे तुम्हारे
बडजतियों
 की ही तो देन हैं
होठों
की कोरों से मुस्कराया वह
और
न्याय की देवी की देह से उतरकर वस्त्र
भंवरी
देवी के पैरों की बेडी बन गए.
(छः)
क़ानून
सिर्फ इंसानों के लिए है
इंसानों
की हैवानी भीड़ का केस लिए यह क्यों आ गए तुम न्यायालय में?

एक आदमी की हत्या का फ़ैसला अभी अभी छः सौ पन्नों में टाइप हुआ है

एक
हज़ार लोगों की हत्या का मामला पांच साल बाद तय कर लेना चुनाव में.
(सात)
यह
न्याय है कि यहाँ के फ़ैसले अहले हवस करेंगे
मुद्दई
लाख सर पटके तो क्या होता है?
अपराध
का नाम इरोम शर्मिला है यहाँ
न्याय
का नाम आफ्सपा!
(आठ)
उनका
होना न होना क्या मानी रखता था ?
वैसे
इनमें से किसी ने नहीं की उनकी हत्या
शक़
तो यह कि वे थे भी कभी या नहीं
थे
तो अपराधी थे और सिर्फ पुलिस के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता अपराधियों को
लक्ष्मणपुर
बाथे न पहला है न आख़िरी
न्याय
के तराजू की कील

जाने कितनी सलीबों पर ठुकी है.
(नौ)
इस
दरवाज़े से कोई नहीं लौटा ख़ाली हाथ
वे
भी नहीं जिनके कन्धों पर फिर सर नहीं रहा
(दस)
इतिहास
ने तुम पर अत्याचार किया
भविष्य
न्याय करेगा एक दिन
दिक्कत
सिर्फ इतनी है कि भविष्य के रास्ते में एक वर्तमान पड़ता है कमबख्त
***

0 thoughts on “अशोक कुमार पांडेय की नई कविता – न्‍याय”

  1. हमारे तथाकथित लोकतंत्र द्वारा पोषित न्याय प्रणाली का विभत्स चेहरा दिखाती जानदार कविताएं.. आभार शिरीष भाई का.. और राजधानी के सड़ांध भरे गलियारो में आपको चुनौती- स्मरण कराने का अभिप्राय लग रहा है कामरेड

  2. कवितायेँ सभी बेहतरीन हाँ। नवीं खास अच्छी लगी। कवितायेँ एक खास टोन में हैं ।जो कथ्य को सीधे संप्रेषित करता है।

  3. आज की न्याय व्यवस्था पर इससे बेहतर टिपण्णी नहीं हो सकती। अशोक भाई को पढ़ते हुए लगता है कि अपने सरोकारों के प्रति जितने प्रतिबद्ध वे है बिरले ही होते है।

  4. "इस दरवाजे से कोई नहीं लौटा खाली हाथ
    वे भी नहीं जिनके कन्धों पर फिर सर नहीं रहा"
    —- कन्धों से उतार कर हाथों में सर धर देने वाली, ’कुछ तो मिला’ का अहसास ही दे सकने में काबिल… अपनी न्याय व्यवस्था पर कितनी सटीक बात कहती है ये पंक्तियां.. ’न्याय’ की जिस अवधारणा को सामने रख यह कविता अपनी बात कहती है, उससे अभी हम मीलों दूर हैं. हमारा यही वर्तमान हमारे भविष्य के रास्ते में अटका पड़ा है. प्रतिबद्ध कवि के आक्रोश से पैदा हुई जरूरी कविता.

  5. पूरी श्रृंखला अच्छी है …संवेदनशील और तीखी , जैसा कि उसे होना चाहिए | लोकतंत्र की ये बुनियादें , जिसे हम समता, स्वतंत्रता और न्याय के रूप में जानते हैं , इस दौर में कितनी खोखली हो चुकी हैं , लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार पर आया यह फैसला बताता है |

    कविता हर दृष्टि से अच्छी है ..कथ्य के साथ-साथ कविताई में भी …|

    बधाई स्वीकार करे ..

  6. गवाह और सबूत …बस यही दो दुश्मन हैं जो दिखाई देते हैं सामने ..और इन्ही के कारण अदालतों में इन्साफ नहीं होता बस फैसला होता है| ये ऐसा सच है जिसे अगर स्वीकार न करो तो….कुछ नहीं तो contemt of court तो हो ही जाता है| जो नहीं दिखाई देने वाले दुश्मन हैं वो बखूबी अशोक जी की कविताओं में दिख रहे हैं …

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