स्वानुभूति वह है जो दलित लेखकों तथा साहित्यकारों की स्वयं की अनुभूति है।
अर्थात जिस यथार्थ को दलित साहित्यकारों ने भोगा है,
अतः उन का जो भोगा हुआ यथार्थ
है। इस यथार्थ को उन्होंने अपनी रचनाओं में अभिव्यक्ति दी है। उसी को स्वानुभूति
कहा जाता है। अर्थात खुद की अनुभूति, अनुभूत सत्य। दलित साहित्यकारों
ने अपने जीवन में जिस अपमान, घृणा,
तिरस्कार तथा अमानवीय व्यवहार को
सहा है। उस की अभिव्यक्ति उन के द्वारा अपनी रचनाओं में हुई है। इस अनुभूत सत्य की
अभिव्यक्ति ही स्वानुभूति है। दलित साहित्यकारों का यथार्थ सम्पूर्ण दलित जीवन का
यथार्थ है। सभी दलितों ने आजीवन तिरस्कार,
अपमान, घृणा तथा प्रताड़ना को सहा है। और इसी यथार्थ की
अनुभूति दलित रचनाकारों की रचनाओं में हुई है। इसलिए दलित रचनाकार मानते हैं कि
गैर दलित रचनाकर अपनी रचनाओं में केवल दलितों के लिए सहानुभूति प्रकट करते हैं, वह भी कई बार छलपूर्वक होती है। उस में अनुभूति की
प्रामाणिकता नहीं होती है। जब कि अनुभूति की प्रामाणिकता दलित साहित्य का एक
आकर्षक और प्रवल वैशिष्ट्य है।
इस को शम्भू गुप्त ने इस प्रकार व्यक्त किया है- दलित रचनाकार का
व्यक्तिगत में व्यक्तिवादी इकाई नहीं वल्कि सामूहिक हम है। इन रचनाओं में बोलता
हुआ मैं जैसे इनका पूरा समाज है। यहां मैं की वेदना भावना विक्षोभ और दग्धता
प्रकारान्त से उस के पूरे समाज की वेदना,
यातना, विक्षोभ और दग्धता है। प्रगतिशील साहित्य की तरह यह
प्रतिनिधिक वर्ग चरित्र का मामला नहीं है। बल्कि यहां व्यक्ति ही समाज है।
दलित रचनाकारों ने अपनी पीड़ा यातना तथा विक्षोभ को सजीव तथा वास्तविक रूप
में प्रस्तुत किया है। दलित साहित्यकार एवं गैर दलित साहित्यकार में वही अंतर है।
जो हरिजन एवं दलित शब्दों में मिलता है। इस संबंध में डा. पुरुषोत्तम अग्रवाल
कहते हैं कि- हरिजन‘ जाति व्यवस्था में निहित
ऐतिहासिक अन्याय की चेतना को सवर्ण दृष्टिकोण से व्यक्त करने वाला शब्द है, इस में एक प्रकार का पश्चाताप का भाव है। ’दलित‘ पश्चाताप या करुणा का नहीं
वल्कि बेवजह दमन और अपमान के स्वाभाविक रोष को व्यक्त करता है। दलित अपने को हरिजन कहना पसन्द नहीं करता वह
अपने को दलित कहना ही पसन्द करता है। इस प्रकार गैर दलित साहित्यकार दलितों के
संबंध में जो साहित्य लिखता है। वह हरिजन की तरह सहानुभूति का साहित्य कहा जाता
है। दलित साहित्य नहीं। इसके विपरीत अपने संबंध में भुक्तभोगी बातों को जब दलित
लिखता है तो उसे दलित साहित्य कहा जाता है।
इस संबंध में गैर दलित लेखक देवेन्द्र दीपक एक टिप्पणी में कहते हैं- अस्पृश्यता
एकअंधा कुआं है, कुएं में गिरे आदमी को लेकर
चिन्ता के दो स्तर हैं। एक चिन्ता उस व्यक्ति की चिंता है जो कुंए के भीतर गिरा है
और कुंए से बाहर निकलने की कोशिश में हलकान एवं लहुलूहान हो रहा है। हमारी चिंता
उस व्यक्ति की चिंता है जो कुएं की जगत पर खड़ा होकर कुएं में गिरे व्यक्ति को
बचाने की गुहार मचा रहा है। कुएं में गिरा व्यक्ति दलित है तथा कुएं की जगत पर
खड़ा व्यक्ति सवर्ण है। दलित की चिंता आहत की चिंता है। और सवर्ण की चिंता सदाशयी
की चिंता है यकीनन दोनों की चिंता के आयाम भिन्न-भिन्न हैं। दलित साहित्य में
स्वानुभूति पक्ष को रखते हुए मैनेजर पाण्डेय लिखते हैं- सारी सहानुभूति, करुणा,
सहृदयता और परकाया प्रवेश की कला
के बावजूद गैर दलितों के द्वारा दलितों के बारे में लिखे गये साहित्य में कला चाहे
जितनी भी हो, परन्तु अनुभव की वह प्रामाणिकता
नहीं होती, जो किसी दलित द्वारा अपने समुदाय
के बारे में स्वानुभूति की पुनर्रचना से उपजे साहित्य में होती है।1
अतः कहा जा सकता है कि स्वानुभूति दलित साहित्यकारों के द्वारा भोगा गया
यथार्थ है, जिस को उन्होंने अपने साहित्य के माध्यम से व्यक्त
किया है। यहाँ पर कुछ दलित कविताएं दी जा रही हैं। जिनमें दलित साहित्यकारों की
स्वानुभूति प्रकट हुई है जो इस प्रकार हैं-
दलित साहित्यकार अपनी अनुभूति को प्रकट करते हुए कहते हैं जिस में उन्होंने
इस बात को अनुभूत किया है कि किस प्रकार दलितों को उस जाल में फंसाया गया जिस में
यह कहा गया कि दलितों की उत्पत्ति ब्रह्मा के पैरों से हुई है। इस को ओमप्रकाश
वाल्मीकि ने अपनी कविता में इस प्रकार कहा है-
तुम्हारे रचे शब्द
तुम्हें ही डसेंगे सांप बनकर
गंगा किनारे
कोई वट वृक्ष ढूंढ़कर
भागवत का पाठ कर लो
आत्मतुष्टि के लिए
कहीं अकाल मृत्यु के बाद
भयभीत आत्मा
भटकते-भटकते
कसी कुत्ते या सूअर की मृत देह में
प्रवेश
कर न जाए
या
फिर पुनर्जन्म की लालसा में
किसी डोम या चूहड़े के घर
पैदा न हो जाये !
चूहड़े की, डोम की आत्मा
ब्रह्मा का अंश क्यों नहीं
मैं नहीं जानता
शायद
आप जानते हों। 2
इसी प्रकार दलितों के बच्चों के माथे पर जन्म लेते ही उन की जाति लिख दी
जाती है। इस प्रकार के अनुभूत सत्य को ओमप्रकाश वाल्मीकि ने इस कविता के माध्यम से
व्यक्त किया है-
मेरी
माँ ने जने सब अछूत ही अछूत
तुम्हारी माँ ने सब बामन ही बामन।
कितने ताज्जुब की बात है
जबकि प्रजनन क्रिया एक ही जैसी है।
वह
दिन कब आयेगा
बामनी नहीं जनेगी बामन
चमारी नहीं जनेगी चमार
भंगिन भी नहीं जनेगी भंगी।
तब
नहीं चुभेंगे
जातीयहीनता के दंश।
नहीं मारा जायेगा तपस्वी शंबूक
नहीं कटेगा एकलव्य का अंगूठा
कर्ण होगा नायक
राम सत्ता लोलुप हत्यारा।
क्या ऐसे दिन कभी आयेंगे ? 3
एक दलित की उस समय क्या हालत होती है,
जब उस के हाथ में मैले की बाल्टी
होती है या उस के हाथ में झाड़ू होता है। इस स्वयं अनुभूति को ओमप्रकाश वाल्मीकि
इस प्रकार व्यक्त करते हैं कि कोई सवर्ण कभी भी इस को इस प्रकार व्यक्त नहीं कर
सकता-
जब
भी देखता हूं मैं
झाड़ू या गंदगी से भरी बाल्टी-कनस्तर
किसी हाथ में
मेरी रगों में
दहकने लगते हैं
यातनाओं के कई हजार वर्ष एक साथ
जे
फैले हैं इस धरती पर
ठण्डे रेतकणों की तरह।
मेरी हथेलियाँ भीग-भीग जाती हैं
पसीने से
आँखों में उतर आता है।
इतिहास का स्याहपन
अपनी आत्मघाती कुटिलताओें के साथ
झाडू़ थामे हाथों की सरसराहट
साफ सुनाई पड़ती है भीड़ के बीच
बियाबान जंगल में सनसनाती हवा की तरह।4
इस प्रकार कहा जा सकता है कि दलित साहित्यकारों ने अपनी पीड़ा की अनुभूति
के माध्यम से भी व्यक्त किया है। इस के अलावा दलित आत्मकथाकारों ने अपनी अनुभूति
को कहानी, नाटक, उपन्यास तथा आत्मकथाओं के माध्यम
से भी अभिव्यक्त किया है। दलित साहित्यकारों ने अपनी स्वानुभूति को आत्मकथाओं के
माध्यम से सर्वाधिक अभिव्यक्त किया है। दलित आत्मकथाओं में स्वानुभूति का पक्ष
काफी मजबूत है। इस को निम्न प्रकार कहा जा सकता है।
हिन्दी की दलित आत्मकथाओं में स्वानुभूति- अनुभूति की प्रमाणिकता दलित
आात्मकथाओं का एक महत्वपूर्ण पक्ष है। हिन्दी की दलित आत्मकथाओं में दलित
आत्मकथाकारों ने अपनी पीड़ा को अभिव्यक्त किया है जो उन्होंने भोगा है। इस को दलित
आत्मकथाओं में स्वानुभूति कहा गया। अर्थात वह अनुभूत सत्य जिस को दलित
आत्मकथाकारों ने अपने जीवन में भोगा है। तथा जिस को अनुभूत किया है। दलितों ने हमेशा
अपमान, तिरस्कार,
निरादर, और घृणा को भोगा है। इस की अभिव्यक्ति दलित आत्मकथाओं
में स्वानुभूति के तौर पर हुई है, क्यों कि दलित आत्मकथाकारों ने
वह कहा है। जो उन्होंने भोगा है। तथा जिस की उन को स्वानुभूति हुई है। उसी को दलित
आत्मकथाकारों ने अभिव्यक्त किया है। जो इस प्रकार है- एक दलित स्वयं को कितना
अपमानित महसूस करता है। जब उस के साथ भेदभाव किया जाता है। वह अपनी उस यातनापूर्ण
जिंदगी से चिड़चिड़ा भी हो जाता है। वह उस समय कितना अपमानित महसूस करता होगा जब
उस को उस की जाति का नाम ले कर चिढ़ाया जाता होगा। तथा जब उसे पानी के हैण्डपंप को
छूने नहीं दिया जाता होगा। इस को तो एक दलित ही बता सकता है। जिस ने इस प्रकार के
अपमान को सहा होगा ।
ओमप्रकाश वाल्मीकि अपनी आत्मकथा जूठन में अपने द्वारा भोगे गये यथार्थ को
इस प्रकार व्यक्त करते हैं- त्यागियों के बच्चे ’चूहड़े का‘
कहकर चिढ़ाते थे। कभी-कभी बिना
कारण पिटाई भी कर देते थे। एक अजीब-सी यातनापूर्ण जिंदगी थी, जिसने मुझे अंतर्मुखी और चिड़चिड़ा, तुनकमिजाजी बना दिया था। स्कूल में प्यास लगे तो
हैंडपंप के पास खड़े रहकर किसी के आने का इंतजार करना पड़ता था। हैंडपंप को छूने
पर बवेला हो जाता था। लड़के तो पीटते ही थे। मास्टर लोग भी हैंडपंप छूने पर सजा
देते थे। तरह-तरह के हथकंडे अपनाये जाते थे ताकि मैं स्कूल छोड़कर भग जाऊँ, और मैं भी उन्हीं कामों में लग जाऊँ, जिनके लिए मेरा जन्म हुआ था। उनके अनुसार, स्कूल आना मेरी अनाधिकार चेष्टा थी।5
इस के अलावा भी जूठन में स्वानुभूति उजागर हुई है। इस का उदाहरण देखिए- भयभीत
होकर मैंने तीन दिन पुरानी वही शीशम की झाड़ू उठा ली मेरी तरह ही उस के पत्ते
सूखकर झरने लगे थे। सिर्फ बची थीं पतली-पतली टहनियाँ मेरी आँखों में आँसू बहने लगे
थे। रोते-रोते मैदान में झाड़ू लगाने लगा। स्कूल के कमरों की खिड़की, दरवाजों से मास्टरों और लड़कों की आँखें छिपकर तमाशा
देख रही थीं। मेरा रोम-रोम यातना की गहरी खाई में लगातार गिर रहा था।6 ओमप्रकाश वाल्मीकि जब स्कूल में पढ़ा करते थे तो
उन्हें, स्कूल के कार्यक्रमों से बाहर रखा जाता था। अपनी इस
पीड़ा को व्यक्त करते हुए ओमप्रकाश वाल्मीकि कहते है। कि –
मुझे सांस्कृतिक कार्यक्रमों,
क्रियाकलापों से दूर रखा जाता
था। ऐसे वक्त, मैं सिर्फ किनारे खड़ा होकर दर्शक
बना रहता था। स्कूल के वार्षिक उत्सव में जब नाटक आदि का पूर्वाभ्यास होता था, मेरी भी इच्छा होती थी कोई भूमिका मुझे भी मिले।
लेकिन हमेशा दरवाजे के बाहर खड़ा रहना पडता था। दरवाजे के बाहर खड़े रहने की इस
पीड़ा को तथाकथित देवताओं के वंशज नहीं समझ सकते।7
दलितों को हमेशा उन के जातीय हीनता से दवा दिया जाता है। तथा उनको जाति का
ओछापन याद दिला दिया जाता है। हिन्दू दलितों से घृणा करते हैं तथा उन के प्रति
निर्ममता तथा क्रूरता का व्यवहार करते हैं। अपनी इसी पीड़ा को व्यक्त करते हुए ओमप्रकाश
वाल्मीकि कहते हैं- लेकिन मन में एक उबाल-सा उठता था जो कहना चाहता था, मैं हिन्दू भी तो नहीं हूँ। यदि हिंदू होता तो
हिंदू मुझ से इतनी घृणा, इतना भेद-भाव क्यों करते ? बात-बात पर जातीय-बोध की हीनता से मुझे क्यों भरते ? मन में यह भी आता था कि अच्छा इंसान बनने के लिए जरूरी
क्यों है कि वह हिन्दू ही हो…हिंदू की क्रूरता बचपन से देखी है, सहन की है। जातीय श्रेष्ठता-भाव अभिमान बनकर कमजोर
को ही क्यों मारता है ? क्यों दलितों के प्रति हिन्दू
इतना निर्मम व क्रूर है ? 8
दलितों से बेगारी करवाई जाती थी तथा उन को खाना भी दूर से दिया जाता था।
जिस से वे अपमानित महसूस करते थे। इस के साथ ही उन को गालियाँ भी दी जाती थी। इस
तरह का अपमान कैसा होता है उस को वही व्यक्ति बता सकता है जिस ने उसे भोगा हो। ओमप्रकाश
वाल्मीकि ने इस पीड़ा को इस प्रकार व्यक्त किया है- सभी को खाना खाने के लिए
बुलाया गया। बेगार करने वाले धूप में ही बैठ गये थे। पेड़ की छाँव उनके लिए बची ही
नहीं थी। उनहें दो-दो रोटी और अचार का एक-एक टुकड़ा ऐसे दिया जा रहा था जैसे कोई
भिखारी को भी नहीं देता। मैं दूर खड़ा यह सब देख रहा था। मैंने रोटी लेने से इनकार
कर दिया। फौजा चिल्ला रहा था। गालियाँ दे रहा था। लेकिन में अपनी जगह खड़ा रहा।
मेरे भीतर विरोध जन्म ले चुका था, ’’अबे चूहडे के…. आजा….दो
अच्छर क्या पढ लिए, सोहरे का दिमाग चढ़ गिया
है….अबे औकात मत भूल….‘‘फौजा का एक-एक शब्द मेरे जिस्म
में एक साथ हजार-हजार दंश भर रहा था।9
दलितों के लिए मंदिरों के दरवाजे बंद है। उन को इंसान नहीं समझा जाता है।
जहाँ जानवरों का प्रवेश वर्जित नहीं है वहाँ दलितों का प्रवेश वर्जित है। एक दलित
जब इस प्रकार के भेदभाव को सहन करता हैं उस की उस समय कैसी हालत होती होगी इस को
एक दलित ही जान सकता है। इस प्रकार की घटनायें एक दलित को हमेशा से झेलनी पड़ती
है। अपने-अपने पिंजरे में भी मोहनदास नैमिशराय ने इस प्रकार की घटनाओं का वर्णन
किया है। जिस यथार्थ को उन के द्वारा भोगा गया है। ऐसी ही एक व्यथा के बारे में नैमिशराय
जी कहते हैं। यहां पर उस कड़वी अनुभूति का वर्णन हुआ है जो दलित को उस समय होती
है। जब उस को किसी मंदिर में प्रवेश नहीं करने दिया जाता है – अकसर लोग
उचक-उचककर मंदिर की भीतरी बनावट को देखते। मंदिर में रखी देवताओं की मूर्तियों को
देखते। मदिर के चारों ओर चारदीवारी थी। कभी-कभी जब मंदिर सुनसान होता तो वे दीवार
पर भी चढ़ जाते थे। फिर मन मसोजकर नीचे उतर आते। मंदिर और सवर्णों के लिए हम शूद्र
थे। अछूत थे। दलित थे, पर इंसान न थे। हमारी छाया भी उन
के लिए अपवित्र थी। हम मंदिर में घुस न जायें शायद यही सोचकर मंदिर की चारदीवारी
बनवाई गई थी। उसी चारदीवारी के बीच में दो दरवाजे भी थे जो षाम होने के बाद बंद कर
दिये जाते थे। सवर्ण जाति के लोग मंदिर की सुरक्षा के हर संभव प्रयास किया करते
थे। मंदिर के साथ मंदिर की संस्कृति भी उन्हें विरासत में मिली थी।10
देवताओं के निवास स्थान मंदिरों में प्रसाद देते वक्त भी दलितों के साथ
भेदभाव किया जाता है। इस की वेदना काफी बुरी होती है। इसी प्रकार की पीड़ा को नैमिशराय
जी इस प्रकार व्यक्त करते हैं-पुजारी थाली में भरकर प्रसाद लाता था। पर वह हमेशा
ऊपर हाथ कर प्रसाद दिया करता था जिससे उस का हाथ हमसे छू न जाए। परिणाम स्वरूप
प्रसाद जमीन पर गिर जाता था जिसे हमें उठाना ही पड़ता था। न उठायें तो अगले दिन से
प्रसाद मिलना बंद। एक दिन प्रसाद देते हुए पुजारी की अंगुलियां मेरे हाथ से छू गई।
बस पुजारी का पारा चढ़ गया। नाराज होते हुए वह झल्लया- तू चमार का है न। सब कुछ
भरस्ट कर दिया। कितनी बार कहा तुम ढोरों से,
प्रसाद दूर से लिया करो।11
कितनी वेदना होगी वह और उस का कैसा असर पड़ा होगा बाल मन पर जो नैमिशराय जी
को आत्मकथा लिखते समय भी याद रहा। दलित हमेशा दर्द में घिरे रहते थे। उन में से
कोई भी सुख से नहीं जी रहा होता है। अपने इसी दर्द को बयां करते हुए नैमिशराय जी
कहते हैं – मेरठ शहर में छोटी-सी हमारी बस्ती और ढेर सारे हमारे दु:ख। वे दुःख
दर्द व्यक्तिगत भी होते और सामूहिक भी किसी के कच्चे घर की छत टपकती तो किसी के घर
में दीवारों में पानी रिसता। किसी परिवार में कोई विधवा होती तो किसी में बिन
ब्याही जवान बेटी। हमारी बस्ती में ऐसे रंडवे भी होते जिनका कराव तक नहीं होता।
उनकी गिनती न शादीशुदा मर्दों में होती और न विधुरों में। किसी को गठिया का दर्द
तो किसी को गुर्दे का। किसी के भीतर दर्द तो किसी के बाहर दर्द। पीड़ा का समंदर
जैसे हमें चारों तरफ से घेरे रहता। हम सभी किसी टापू में सिमटे-से होते।12 उपर्युक्त बातों से स्पष्ट है कि दलितों का जीवन
अथाह दर्द से भरा था जिस ने उनकी अनुभूति और भी प्रामाणिक बना दिया था।
दलित को जब उस की जाति के कारण प्रताणित किया जाता है। तो वह इस से उब जाता
है। और स्वयं को काफी अपमानित महसूस करता है। इस से उस का दर्द और बढ़ता है। इस
दर्द को व्यक्त करते हुए नैमिशराय जी कहते हैं कि –हम कहीं भी जायें, कितनी भी बड़ी कक्षा में पढ़े, जातियाँ हमारा पीछा नहीं छोड़ती। जहां भी हम जाते, वे भी बिना किसी रोक-टोक के जा पहुँचती थीं। बल्कि
हमारे साथ-साथ चलती, उठती-बैठती थीं। कभी-कभी तो साँप
भी केंचुली त्याग देता है, पर आदमी अपनी जाति की केंचुली
नहीं छोड़ पाता। वह जीवन से मृत्यु तक उसी केंचुली के भीतर रहता है।13 इस प्रकार कहा जा सकता है कि दलित का दर्द असहीय
है जिस को दलित आत्मकथाकारों की स्वानुभूति की वाणी मिली है।
कौशल्या बैसंत्री ने भी अपनी आत्मकथा में स्वानुभूति पक्ष को उजागर किया
है। दलितों की बस्ती भी सवर्ण बस्तियों से अलग होती थी। इस दोंनों बस्तियों में काफी
फर्क हो जाता था। इस प्रकार की अनुभूति का वर्णन करती हुई कौशल्या बैसंत्री कहती
हैं कि- आजी और माँ-बाबा जिस बस्ती में रहते थे,
उस बस्ती का नाम खलासी लाइन था।
यह बस्ती नागपुर (महाराष्ट्र) स्टेशन के नजदीक थी। रेलगाड़ी की दिन-रात आवाज सुनाई
देती थी। गाडि़याँ भी नजर आती थीं। बस्ती से सटा एक नाला बहता था। नाले के साथ ही
एक पक्की सड़क बनी थी जो स्टेषन को जाती थी। सड़क के एक ओर बस्ती थी और दूसरी ओर
बड़े-बड़े पक्के मकान थे जहाँ बड़ी जाति के लोग रहते थे, जो अच्छी नौकरी करते थे। बस्ती में अधिकांश अछूत थे, अनपढ़ और मजदूर। सड़क के एक ओर गरीब, अशिक्षित और सड़क के दूसरी ओर अमीर पढे़-लिखे।
सिर्फ एक सड़क उन्हें विभाजित करती थी। परंतु जमीन-आसमान का फरक था दोनों में। इन
बड़े घरों के बीच ही यह डबलरोटी बनाने की बेकरी थी जहाँ बाबा काम करते थे।14
दलितों का जब सवर्णों के साथ सम्पर्क होता है तो इन दोनों के बीच के
रहन-सहन के फर्क से दलितों में हीनता की भावना का विकास होता है। इस को कौशल्या
बैसंती ने इस प्रकार कहा है। जो एक दलित की स्वानुभूति है- अभी तक मैं बस्ती के
वातावरण में ही पली थी। बस्ती के लोग गरीब,
अपनढ़ और गँवार थे परंतु जब यहाँ
भिंडे कन्याशाला में आई तो यहाँ का वातावरण एकदम अलग प्रकार का था। स्कूल
सीताबर्डी में था। यहाँ पर बहुत बड़ी मार्केट थी। यहाँ मैं पहले एकाध बार ही आई
थी। वह भी कुछ खरीदने नहीं, रात में गणपति उत्सव देखने। यह
मार्केट ज्यादातर अमीर लोगों के लिए ही थी। आसपास ब्राह्मण लोग ही ज्यादा थे।
अष्पृष्य लोगों की बस्ती एक ओर थी (अभी भी है) और उन के मकान कच्ची मिट्टी के बने
थे। यहाँ के अस्पृश्य भी ज्यादातर मजदूर ही थे। ब्राह्मणों की लड़कियां बहुत
अच्छे-अच्छे साफ-सुथरे कीमती कपड़े पहनकर आती थीं। उनकी तुलना में मेरे कपड़े बहुत
घटिया होते थे। उन लड़कियों के कानों में सोने की बालियां रहती थी।
वे अपनी किताबें अच्छे बस्तों में लाती थीं। मेरा बस्ता दो-तीन कपड़ों की
पट्टियों को जोड़कर बनाया गया होता था। वे अच्छे टिफिन बाक्स में (पीतल का) खाना
लेकर आती थी। उसमें कभी पूरियाँ, कभी पराठे, कभी पोहे,
कभी सूजी का हलवा, कभी कुछ पकवान रहता था। सफेद रोटियाँ जिन में घीं
लगा था। सब्जी या अचार के साथ वे खातीं थीं। मेरे घर तो कभी-कभी ही रोटियाँ बनती
थीं, वह भी घटिया गेहूँ की। न उस में
घी लगा होता, न अच्छी सब्जी या अचार। कभी-कभार
ही मैं चीनी या गुड़ के साथ रोटी लाती थी। मेरे पास अच्छा डिब्बा भी नहीं था। मैं
अल्यूमीनियम के डिब्बे में रोटी लाती थी। मैं लड़कियों के सामने अपना डिब्बा नहीं
खोलती थी। मुझे अपने घटिया डिब्बे और घटिया रोटी को उनके सामने खोलने में शर्म आती
थी। मैं दीवार की ओर मुंह कर के खाना खाती थी ताकि कोई देख न ले उनके खाने की ख़ुश्बू
और खाना देखकर मैं ललचा जाती थी। सोचती थी,
ऐसा खाना मुझे कब नसीब होगा।15
दलितों के लिए उन की आर्थिक गरीबी भी एक अपमान का कारण बनती थी। उन को इस
में भी सवर्णों के अपमान का शिकार होना पड़ता था। दलित महिलाएँ भी काम करती है। इस
कारण वे भी अपमान का शिकार होती है। दलितों की इसी पीड़ा को कौशल्या बैसंती इस
प्रकार अनुभूत करती है- माँ-बाबा बहुत कष्ट उठाते थे हमें पढ़ाने के लिए बाबा
कभी किसी डाक्टर या वकील का बोर्ड दीवार पर ठोकने जाते थे। और भी कुछ काम मिले तो
मिल से आने के बाद करते थे। माँ भी अब चूडि़याँ,
कुंकुम, शिकाकाई वगैरह बेचने लगीं। वह सिर्फ रविवार को ही
गड्डीगोदाम, अपनी बस्ती और पास वाली पाश
कालोनी में यह समान बेचने जाती थीं। यह काम माँ रामदास पेठ में जाने से पहले करती
थीं। गड्डीगोदाम के कसाई मुसलमानों की औरतें माँ से चूडि़यां खरीदती थीं, क्यों कि वे परदे में रहती थीं, किसी पुरूष से चूड़ी पहनना उन्हें अच्छा नहीं लगता
था। उनसे काफी बिक्री हो जाती थी। माँ रविवार को ही फेरी लगाती थीं। कभी-कभी मैं
या मधु माँ की मदद करने उनके साथ जाती थीं। पाश कालोनी की हिंदू उच्च वर्गीय
महिलाएँ भी अब माँ से चूडि़याँ, कुंकुम, शिकाकाई खरीदती थीं। पहले एक कासार चूड़ी बेचने
वाला आता था। अब माँ से ही वे चूडि़यां खरीदती थीं। जब वे चूडि़यां हाथ में डलवाने
माँ के पास आती थीं, तब पुरानी साड़ी पहनती थीं और
चूडि़याँ पहनने के बाद स्नान कर लेती थी।
माँ अछूत है, यह वे जानती थीं। माँ को बुरा
लगता था परंतु पैसे के लिए वह अपमान सह लेती थीं। मजबूर थीं इसलिए। बस्ती की औरतें
घर आकर भी माँ के हाथ से चूडियाँ पहनती थीं। माँ-बाबा कितना कष्ट उठाते हैं, यह देखकर मैं चाहती थी कि इनकी कुछ मदद करूँ। एक
कोर्स था नर्सिंग का, जिसको करके मैं नौकरी से कुछ
पैसा कमा सकूँगी, ऐसा मैंने सोचा। मैं नागपुर के
मेयो अस्पताल में नर्सिंग कोर्स के लिए अर्जी दे आई।16
इस के अलावा दलित सूरजपाल की आत्मकथा-संतप्त में भी दलित स्वानुभूति की
अभिव्यक्ति हुई है जो जो यहां पर उनके पिता जी के माध्यम से उद्धृत हुआ है। जो इस
प्रकार है- पिता को धीरज बँधाते हुए सूरज पाल ने जब इस का कारण जानना चाहा तो पिता
ने कोट पर हाथ फेरते हुए भर्राये गले से बताया-
बेटा गांव में रहते हुए
हमारे परिवार के लोगों को नए कपड़े पहनने को नसीब न थे। यदि किसी ने पैसों का कहीं
से जुगाड़ कर के नए कपड़े सिलवा भी लिए तो गाँव के गैर-दलित पहनने नहीं देते थे।
गलती से नया कपड़ा पहन लिया तो ये गाँव के गैर-दलित जाति का ओछापन याद दिलाकर
भद्दी-भद्दी गालियाँ तो देते ही थे,
पिटाई भी लगाते थे। गाँव के गैर
दलितों में कोई मरता या मरती तो उस के कफन को भंगी परिवार के लोग उठा लाते थे या
वे स्वयं भंगियों को उठाने को कहते। उसी कफन के टुकड़े कर के लंगोटियाँ बनवा लेते
थे। मरे हुए व्यक्ति के पुराने कपड़ों को गाँव के भंगियों को बुलाकर उन में बाँट
दिया जाता था। जब किसी नाते रिस्तेदारी में परिवार के किसी सदस्य को जाना होता तो
वह बारी-बारी से उसी उतरन को पहनकर जाता था। नए कपड़े पहन कर हम गाँव में रह ही
नहीं सकते थे। जानवरों से भी बदतर हालत थी बेटा हमारी।17 वास्तव में दलितों की हालत काफी दयनीय थी आज भी इस
में बहुत ज्यादा सुधार नहीं हुआ है।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि दलित आत्मकथाओं का स्वानुभूति पक्ष इनका एक
महत्वपूर्ण पक्ष है। कहा जा सकता है कि स्वानुभूति दलित आत्मकथाओं की आत्मा है। इस
में दलितों ने अपने द्वारा भोगे गये यथार्थ को चित्रित किया है। दलितों ने जिस अपमान,
तिरस्कार, घृणा, अनादर तथा वेवजह दमन को भोगा हैं
वह सब उन की आत्मकथाओं के माध्यम से अभिव्यक्त हुआ है।
संदर्भ ग्रंथ-
1-
आलोचना, सं. नामवर सिंह, अप्रैल-जून,
2005 पृ.
70
2-
दलित निर्वाचित कविताएं, कँवल भारती,
पृ.
65
3- दलित निर्वाचित कविताएं,
कँवल भारती, पृ. 67
4- दलित निर्वाचित कविताएं,
कँवल भारती पृ. 67
5- जूठन, ओमप्रकाश वाल्मीकि, पृ. 13
6- जूठन, ओमप्रकाश वाल्मीकि, जूठन, पृ.
16
7- जूठन, ओमप्रकाश वाल्मीकि, जूठन, पृ.
26-27
8- जूठन, ओमप्रकाश वाल्मीकि, जूठन, पृ.
54
9- जूठन, ओमप्रकाश वाल्मीकि, जूठन, पृ.
72-73
10- अपने-अपने पिंजरे भाग-1 मोहनदास नैमिशराय, पृ.
27
11- अपने-अपने पिंजरे भाग-1 मोहनदास नैमिशराय, पृ.
31
12- अपने-अपने पिंजरे भाग-2 मोहनदास नैमिशराय, पृ.
11
13- अपने-अपने पिंजरे भाग-2 मोहनदास नैमिशराय, पृ.
121
14- दोहरा अभिशाप,
कौशल्या बैसंत्री पृ. 27-28
15- दोहरा अभिशाप,
कौशल्या बैसंत्री, पृ. 40-41
16- दोहरा अभिशाप,
कौशल्या बैसंत्री, पृ. 63-64
17- संतप्त, सूरजपाल चैहान, पृ. 41