ये ऐसे समय की कविता है जब मारे दिए जाने के लिए जन्म लेना भर काफ़ी होता है। समकाल की कड़ी पड़ताल अमित की इस कविता में है। यह अनुभव के सभी सरकारी-गैरसरकारी, सामाजिक, राजनैतिक और निजी स्त्रोतों के मिलने से बना एक शानदार काव्यात्मक बयान बन गयी है। हालांकि कविता में बयान बहुत नहीं होता। यह कविता भी बयान के परे एक शिल्प संभव करती है जो अब अनगढ़ कतई नहीं कहा जाएगा, उसे हम खुरदुरा कह सकते हैं। इस कविता में कथ्य और शिल्प के बीच हमारी पढ़त कई तरह के घर्षण सहती है, कहने ज़रूरत नहीं कि घर्षण से चिंगारियां निकलती हैं- यह इस कविता का अपना एक आक्रोश भरा डिक्शन है। इस आक्रोश को मैं धूमिल, कुमार विकल, चंद्रकांत देवताले आदि की परम्परा में देखता हूं, जो एक कठिन परम्परा है। अमित ने इस कविता में उसका वरण करने की कोशिश की है – इसके लिए मैं उनका स्वागत करते हुए इसे अनुनाद के पाठकों के समक्ष रख रहा हूं।
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क्या आप जानते हैं
क्या आप जानते हैं
कि सरकार में सर और कार
अलग अलग हिज्जे भी हो सकते हैं
भले किसी विदेशी भाषा के मायने
दो हिज्जों को कुछ नमकीन शक्ल दे सकने में समर्थ हों
पुर्जों की मिली जुली- साझी कारीगरी
बेहियाई की सीमा तक असमर्थ है
इनके पहले और आख़िरी उद्देश्य की पूर्ती में
कि देश के उत्तर में हिमालय नहीं
किसी शर्म का लोथड़ा पडा है
जो मुंह छिपाने की भरपूर कोशिशों में
शरीर को ही नंगा करता जा रहा है
कि यहाँ क़ानून अंधा नहीं होता
बस दिखता है
उसे सब दिखता है
पर सबूत नहीं दे सकता
कोइ गवाही नहीं उसके देखने की
कि जंगल में चली एक गोली
दो निशानों पर लगती है बहुधा
एक तरफ एक पीढी ख़ाक होती है
दूसरी ओर दो पेड़ गिरते हैं
कि आई पी एल में ओवर सात गेंदों का था
सातवीं गेंद हर ओवर के शुरुआत में फेंकी जाती थी
जो गोद में आ गिरती थी बिना बल्ला घुमाए
और कहीं शेयर सूचकांग ऊपर चढ़ जाता था
कि आदमी एक्सीडेंट में नहीं मरा कभी
किसी बीमारी से भी नहीं
वो मरा था क्योंकि जन्मा था
यहाँ
कि गरीबी, ह्त्या और बलात्कार
कविता नहीं हैं
विचार नहीं
शब्द नहीं हैं सिर्फ
शब्दकोश से निकल कर
बाहर आ गए हैं इस्तेमाल को
कि रस्ते भर धूल है
उम्र भर उबकाई
शक्ल भर लिजलिजाहट
और उगला हुआ सा प्रश्न
कि ये वही मंजिल है क्या
जिसकी तरफ़ चल पड़े थे हम
कि जिसकी बातों में चिकनाई है
सफे़दी झक्क चेहरे पर
उस की जेब में चाभी है
हाथ में छुरा
कि ये कविता नहीं
एकालाप नहीं
बकवास नहीं सरफिरे का
ना कलमबद्ध बयान
आई पी सी के छठवें अध्याय से घोषित
किसी राजद्रोही का
जो संविधान की प्रस्तावना पढ़ना जानता था
किसी ईको सेंसिटिव जोन बिल का संलग्नक नहीं
जिसमे हैसियत है हर हर्फ़ पर
किसी की एक सौ तिरालिस रुकती है
और कोई टुकडा डीनोटीफाई हो जाता है ज़मीन का
ना गेरुई दाढी का एलान है
गर्जना भरपूर कि अब चौराहों पर जलेंगे क़त्ल के अलाव
एक चिपचिपी मर्दानगी नहीं ये
जिसे फाड़कर फेंक देना लाजिमी हो
ये तो महज डायरी के पिछले पन्नों पर
छितरी हुई लाश है….आस की !!
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दर्द पर मरहम भी तो नमक सा हो गया है अब..
कविता अपने दौर की हकीक़त को नुमायां करने में कामयाब है.
Amit's new poem has new body but soul is continuous experiences of all empathic-sensitive persons in our society or day today life.
From amit srivastava
bahut khoob sir aapke es blog me to gyaan ka bhandar chupa hai ………
स्पष्ट कर दूं कि ये टिप्पणीकार, कवि अमित श्रीवास्तव से नामगत साम्यवाद रखते हैं, इन्हें एक ही व्यक्ति न मान लिया जाए।
मन में व्यग्रता भरी हो और परिवेश से आशा न हो तो शब्द ऐसे ही छिटकते हैं।
इस दौर में शायद कविता ऐसे ही लिखी जा सके. जिसे रा एंगर कहते हैं. जब कहीं रह न दिख रही हो तो कविता का एक तेज़ बडबड़ाहट में तब्दील हो जाना अस्वाभाविक तो नहीं? मैं तो इसे उसी व्यग्रता के साथ पढ़ और ग्रहण कर पा रहा हूँ.
sir,nai kavita, akavita, samkaalin kavita ki nirantarata mein ek naya adhyay jodti hai ye kavita…jan sarokaron se judkar hi sahitya kaaljeevi hone ke saath-saath kaaljayi hone ki saamarthya arjit karta hai….ek kism ki bebsi, chhatpatahat, bechaini se ubhare aakrosh ko abhivyakti mili hai is kavita mein jo shayad hum sabka bhukt kintu damit satya hai…congrats sir…
नाम के अतिरिक्त भी बहुत सी साम्य्ताएं हैं …जो मिलने पर ही पता चलती हैं सर…जल्द ही मिलवाउंगा आपसे!
आप सभी का धन्यवाद कि मेरी छटपटाहट, दर्द, व्यग्रता और दौर की हकीकत को समझ, स्वीकार किया|
अशोक जी इसे रा एंगर कहें या रिफाइंड …एंगर तो है और भरपूर है.. इस बात का कि जो सामने है उसके बहुत उलट उसके पीछे है और इस बात का भी कि इस सामने पीछे की राजनीति में हमारे हाथ एक छटपटाहट भरी मसल और एक तेज बड़बड़ाहट के सिवा कुछ नहीं आ रहा है| देखते हैं शायद रानेस से रिफाइनमेंट के सफ़र में कुछ और हासिल हो सके…
अशोक जी इसे रा एंगर कहें या रिफाइंड, एंगर तो है …और भरपूर है ..इस बात का कि ऐसी परिस्थितियाँ उपस्थित हैं कि जो सामने है उससे बहुत उलट उसके पीछे है और इस बात का भी कि इस सामने- पीछे की राजनीति में हमारे हाथ एक छटपटाहट भरी मसल या एक तेज बडबडाहट से जियादा कुछ नहीं लग रहा…देखते हैं शायद रा नेस से रिफाइननेस के सफर में कुछ और हासिल हो…
बेचैन कर देती है यह कविता