ये
गिरिराज किराड़ू के साथ-साथ ‘मीर के अब्बू’
की भी कविताएं हैं,
यानी आदमी हो रहे दरख़्त की। इन्होंने
गिरिराज किराड़ू की कविता होने में और भी बहुत कुछ जोड़ दिया है। कई नए प्रसंग
हैं। कुछ नाटकीयता है। इन कविताओं में आए पद अर्थ से अधिक अभिप्राय को व्यक्त करते
हैं,
जिन पर कवि का पूरा अधिकार है – जैसे कि मीर के ‘अब्बू’
कहना….कुछ
और नहीं…’अब्बू‘। गिरि
पहली कविता में एक आरण्यक छंद के आकार नहीं लेने का उल्लेख करता है पर उसकी अगली
ही कविता में हत्यारी ताक़तों की चपेट में आए नागरजीवन का एक लोकछंद आकार लेता है और अपने समय के भीषणतम अंधेरे से उठ कर ‘रामदास’
के
समय के अंधेरे में गड्डमड्ड होने लगता – यानी एक आसन्न आपातकाल, विगत के आपातकाल की
स्मृतियों में घुलने लगता है। जब कुछ दूसरे युवा कवि ख़ुद के किसी विरासत में न होने को
भरपूर सेलिब्रेट कर चुके होते हैं, गिरिराज अचानक
एक वारिस की तरह सामने आता है – यह समाज और
उसके पक्ष में एक विरल राजनैतिक समझ की विरासत है, जिसे
कृतघ्न कवि मौलिकता के मूर्ख गर्व में छोड़ते जाते हैं – वे मनुष्यता के पक्ष में
डेढ़ सदी से भी ज़्यादा समय से धड़क रहे एक जीवित विचार का तिरस्कार कर स्वयं दार्शनिक
होना चाहते रहे हैं और जैसा कि दिख ही रहा है अंतत: कविता के मूर्ख विचारद्रोही शिल्पी भर बनकर रह
गए हैं।
गिरिराज
की इन कविताओं में जीवन, समाज और
राजनीति के विकट आख्यान हैं, जिन्हें उसने
ख़ूब नरेट किया है। पाठक महसूस करेंगे कि कविता के उपकरण के रूप में यह नरेशन गद्य
के नरेशन से अलग है। मैं विस्तार में जाने लगा हूं इसलिए यहीं थमकर इतना भर और कहता
हूं कि पाठको सितम्बर 2013 में लिखी और छप रही इन कविताओं का महत्व कई तरह से है
,
इसे
2014 की पूर्वबेला के बयान की तरह भी देखें और सोचें कि ‘दुखी
और अद्वितीय होने का अभिनय चेहरे से गिरा कर फिर से कहो अपना प्रस्ताव’
जैसी पंक्ति का अभिप्राय क्या है।
ऐसा
संयोग रोज़-रोज़ नहीं होता गिरि के अद्भुत गद्य के तुरत बाद उसकी कविताएं भी यहां छाप
पाएं। तो इस संयोग के लिए और इन कविताओं के लिए गिरि को गले लगाकर एक बार भरपूर शुक्रिया
भी कहना चाहता हूं।
***
मीर
के अब्बू
हमने
इसे बच्चों के लिए छोड़ दिया कि ये उनका इलाका है वे जो चाहे करें अब घर का यह
छोटा-सा बगीचा एक छोटे-से आदिम जंगल में बदल चुका है अब यह एक अनोखा बगीचा है किसी
और का बगीचा है हमारे जैसा यह नियम की नहीं कल्पना की जीत है कहता है एक पिता जिसे
मालूम है यह झूठ है बगीचे और बच्चों के जंगली हो जाने का कसूर जिसका अपना है –
यह मैं सुबह क्लास में पढ़ा के आया था
इस
बात की बहुत खबर नहीं थी घर में क्या क्या जंगल हो चुका है खुद मेरे भीतर कितना
बड़ा एक जंगल फैल आया है रोज जैसी एक कठिन शाम भूखी नशे में अपने को बिता देने के
बहाने खोजती और कल्पना की जीत कि एक अरण्य है मेरे भीतर एक आरण्यक छंद जो कभी आकार
नहीं लेता
अब
यह अभिनय क्यों
कल्पना
की बेरहम जीत के फरेब में मुश्किल है मानना कि जीवन का आज्ञाकारी होना कोई अपराध
नहीं हमसे नहीं होगी नई शुरुआत की शुरुआत यह लिखा हुआ भी अभी लिखते लिखते मिटता जा
रहा है
बस
सुबह का कोई अंदाज़ा नहीं वह कैसे होगी, कभी कभी वह सचमुच भी होती है
यह
मैं परसों कहूँगा कि
–
कल सुबह देखा अपने घर का दरख़्त इस बारिश में वह कैसे जंगल हुआ मुझे पता नहीं चला
उसके
सफ़ेद फूल जितने सुन्दर शाखाओं पर हैं उतने ही नीचे ज़मीन पर गिरे हुए भी –
याद
आया एक कैमरा भी है घर में उधार का
जो
इतने दिन आँखों से नहीं दिखा शायद इससे दिख जाए
कैमरे
को फ़र्क नहीं पड़ता वह किसकी तस्वीर खींच रहा है
एक
दरख़्त हो रहे आदमी की या आदमी हो रहे एक दरख़्त की
ठीक
से मुस्कुराना मेरे दरख़्त
मेरे
मरने के बाद घर छोड़ मत देना
मेरे
बेटे को मेरे जैसा मत होने देना – मुझे तुम्हारा नाम तक नहीं मालूम
अब
से मैं तुम्हें मीर के अब्बू कहा करूँगा
***
तय
था मैं मारा जाऊँगा
मेरा
नाम बिलकिस याकूब रसूल
मेरा
नाम श्रीमान सत्येन्द्र दुबे
मुझे
कहते हैं अन्ना मंजूनाथ
माझा
नाव आहे नवलीन कुमार
और
रामदास है मेरा नाम उनको भी था ये पता
नहीं
पूछा उनने मेरा नाम बोले बार बार वो रामदास रामदास रामदास
सीने
पे हुए तीन वार मारा मुझको बीच बजार
जिन्हें
नाज़ है हिंद पर वे कहाँ थे
जिन्हें
नाज़ है हिंद पर वे कहाँ हैं
मेरा
नाम बिलकिस याकूब रसूल
मेरा
नाम श्रीमान सत्येन्द्र दुबे
मुझे
कहते हैं अन्ना मंजूनाथ
माझा
नाव आहे नवलीन कुमार
लोग
कहते रामदास मुझे
और
मेरा नाम मकबूल फ़िदा उनको भी था ये पता
नहीं
पूछा उनने मेरा नाम
मकबूल
फ़िदा मकबूल फ़िदा मकबूल फ़िदा
मकबूल
फ़िदा मकबूल फ़िदा मकबूल फ़िदा
मकबूल
फ़िदा मकबूल फ़िदा मकबूल फ़िदा
तय
था मैं मारा जाऊँगा तय था मैं मारा जाऊंगा
तय
था मैं मारा जाऊंगा तय था मैं मारा जाऊंगा
तय
था मैं मारा जाऊंगा तय था मैं मारा जाऊंगा
जिन्हें
नाज़ है हिंद पर वे कहाँ थे
जिन्हें
नाज़ है हिंद पर वे कहाँ हैं
(साहिर
और रब्बी के लिए जिसके साहिर के समकालीन वर्जन में दो पद जोड़ती है यह कविता. रब्बी के गाने का लिंक यह है – http://www.youtube.com/watch? v=h0EdbEsE0pw और सभी जानते हैं कि ‘रामदास’
रघुवीर सहाय की कविता है )
***
अंत
का आविष्कार: सन २०३० ईस्वी
1
ज़िस्म
अब रेल से जुदा हो रहा है छत्तीस घंटे जो रेल ज़िस्म से एक रही जिसमें जन्मा यह
जानलेवा बिछोह
खुद
अब बिछड़ गयी है
अब
एक नया शहर है ये
नया
बिछोह
रेल
से भी उन सब घूमते वाहनों और होटलों से भी जिनमें बसी गृहस्थी कुछ घंटों के लिए
कल
वहाँ पहाड़ के आश्वासन में आज दरिया के पार हाइवे की बेचैनी में
प्रेम
जैसे मामूली कामों के लिए वक्त का तोड़ा तो हमेशा रहना ही था
2
रेल
अब धुल रही होगी
बारिश
भी है पर बारिश में उसे नहीं देख पाऊंगा मैं जैसे नहीं देख पाउँगा वह चेहरा
जो
प्रेम में सब कुछ को नहीं खुद प्रेम को गँवा चुके एक मनुष्य के चेहरे जैसा लग रहा
होगा
अभी
उम्मीद के एक गुरिल्ला हमले में ढलती शाम लगता है
जिससे
मेरी पुरानी सब पहचान मिट गयी उस एक यात्रा के बाद
इस
नये शहर में कुछ भी कर सकता हूँ
बेहूदे
कवियों का एक विराट विश्व कविता समारोह
बस
दो मिनट के नोटिस पर चुटकियों में करा सकता हूँ
अपने
को देख लूं एक लम्हा ठीक से तो माँ पर कविता लिख सकता हूँ
चन्द्रमा
को चंद्रकांत की तरह गिटार के माफ़िक बजा सकता हूँ
पृथ्वी
पर हवा की तरह व्याप्त अन्याय को अपने दिल में दफ्न कर सकता हूँ उस पर एक फूल रोप
सकता हूँ
कुछ
भी कर सकता हूँ
यानी
अभी इसी समय मर सकता हूँ
जिस
रेल से बिछड़ गया उसके आगे सो सकता हूँ
3
तुमसे
कैसे कहूँ कोई अंतिम वाक्य
कैसे
दूं तुम्हें कोई सीख
एक
जैसा जोर नहीं लग सका इस प्रेम में
कैसे
कहूँ प्रेम सहवास और साहचर्य सब में
कुछ
ऐसी कालिख रह जाती है
कुछ
ऐसी दुष्टता और हिंसा जिसे हम नहीं सह पाते
कुछ
सही है कोशिश की है सहने की
सब
कुछ की कोमलता अपने हाथों नष्ट की है
हिंसा
बेरहमी और उन्माद में
उसके
बाद अब
लेकिन
केवल
प्रेम है
अपने
से ज़ख़्मी
अपने
से रौशन
4
मत
कहना कि मैं अब कभी न आऊँ
सुबह
सात बजे ट्रेन में
दुखी
और अद्वितीय होने का अभिनय चेहरे से गिरा कर फिर से कहो अपना प्रस्ताव
अगर
यह कहना चाहता हो प्रेम करते हो मुझसे तो यह मत कहो कि जीवन तो मेरा पूरा हो चुका
क्या तुम
मेरे
साथ मर सकोगी कि तुम एक मृत्युसंगिनी की खोज में इस ट्रेन में बैठे हो मेरे पास
मेरे
चेहरे पर मेरे कदमों की छाप है उसे अपने पर छप जाने दो
इस
ट्रेन को गंतव्य पहुँच कर फिर शाम को लौट आने दो
अगर
भूख लगी है तो पोहा खाओ और इस वाक्य में अलंकार के अभाव पर रीझ जाओ
अपने
से पूछो क्या फिर शाम को इसी सीट पर बैठे मिलोगे मेरी बगल में
अपने
सब अपमान याद करो और वे गवाहियाँ जो तुमने नहीं दी
याद
करो उन सब को जो तुम्हारे सामने मारे गए
मुझे
जल्दी नहीं अकेले रहने में मैं पारंगत हूँ अकेले छोड़ने में नहीं
तब
तक तो तुम्हारे जीवन में अब हूँ ही जब तक तुम यह सब नहीं कर लेते
तब
तक मैं वही करूंगी जो तुम
तुम्हें
क्या लगता है दो मिनट के नोटिस पे संसार को छोड़ देने जितने बेज़ार तुम अकेले हो
अगर
तुम ट्रेन से छलांग लगाओगे तो मुझे भी अपने पीछे पाओगे
देखा
श्रीमान मृत्युसंगिनी पाने के लिए
दुखी
और अद्वितीय होने के अभिनय की नहीं
दो
मिनट के नोटिस और
ब्रह्ममुहूर्त
में आधे घंटे की तपस्वी मेहनत से बनाया यह पोहा मेरे साथ खाने भर की दरकार है
***
गिरि भाई के इन उम्दा कविताओं के लिए मेरी तरफ से भी उन्हें गले गलाकर शुक्रिया …..
विशेषकर अंत का आविष्कार, और मीर के अब्बु की भाषा ने आकर्षित किया.. तय था मैं मारा जाऊंगा आकार में छोटी होकर भी एक बड़ी कविता है. – प्रदीप जिलवाने
ठीक से मुस्कुराना मेरे दरख़्त
मेरे मरने के बाद घर छोड़ मत देना
मेरे बेटे को मेरे जैसा मत होने देना
हमसे नहीं होगी नई शुरुआत की शुरुआत यह लिखा हुआ भी अभी लिखते लिखते मिटता जा रहा है
नहीं देख पाउँगा वह चेहरा
जो प्रेम में सब कुछ को नहीं खुद प्रेम को गँवा चुके एक मनुष्य के चेहरे जैसा लग रहा होगा
मेरे चेहरे पर मेरे कदमों की छाप है उसे अपने पर छप जाने दो
बेहतरीन कवितायेँ हैं सब की सब. कवि और प्रकाशक दोनों को बधाई.मेरे के अब्बू वाली कविता तो सबसे अच्छी लगी.अंत का आविष्कार भी बढ़िया है.
'मीर के अब्बू ' में ताजगी है . यह मीर के अब्बू की कविता है , जो घर के पेड़ से अपने नाम और काम की अदलाबदली कर चुका है . घर उसकी छाया में जरूर है , लेकिन वह घर पर छाया हुआ नहीं है . बाकी कविताओं में कविता के घर पर कवि की छाया ज्यादा घनी है. माने घर कम छाया ज़्यादा दिखती है . बीच बीच में किसी पंक्ति की रौशनी सहसा चमकती है , टार्च की उस जलबुझती रौशनी सरीखी, जिस के सहारे कविता के घर में कवि जैसे खुद को खोजने निकला है .
wowww ! गिरिराज का लिखा हर जुमला…एक तरह के पोयेटिक डिजायर से लबरेज होता है हमेशा, पूरी कविता की बात तो रहने ही दें हम | वो जितना चौंकाते हैं, उतना ही आश्वस्त भी कराते जाते हैं शब्द-दर-शब्द … उसको हर बार पढ़ने के बाद सोचता हूँ , कहाँ बैठ कर लिखा होगा इस व्यक्ति ने…कमरे का एमबीयेंस क्या होगा…टेबल पर कोई चादर नहीं बिछी होगी शर्तिया…मोबाइल बजा होगा कई बार और झुंझलाया होगा वो दो-एक दफ़ा-ज्यादा नहीं, बस दो-एक दफ़ा , उठाकर बात भी की होगी और फिर मशगूल हो गया होगा शब्दों को तराशने में | फिर सोचता हूँ कि इतनी शिद्दत उड़ेलने वाला कवि कितना आलसी भी हैं ना अभी तक अपने लिखे को किताब की शक्ल तक नहीं दे पाया है | गिरिराज इज अ चार्मर…
सच तो ये भी है शिरीष भाई कि आपका ऊपर लिखा में वक्त ज्यादा दिया कि गिरिरराज की कविताओं, ये भी उलझन है अब | आपदोनों का साथ…साथ फूलों का !
अन्तिम कविता उन कविताओं में शुमार हुई जो बकौल गए गिरि ' साथ रहती हैं '। पहली अपनी जैसी लगी कि एक उम्र के एक जैसे अहसास वाले पाठक और कवि के अरण्यो के चेहरे एक जैसे ही होते हैं शायद। दूसरी वाली जैसे बन नहीं पाई, रघुवीर और राजेश जोशी की छायाये और ज़्यादा की मांग करती हैं!
बाकी दो कविताओं पर भी लिखना चाहता था मगर यहाँ अप्रूवल लेना पड़ता है .ऑफिस की याद आ गयी .यह कडवी याद है .लिखना मुल्तवी .
—फकीर जय (प्रकाश )
गिरि टी एस एलियट की तरह लिखते हैं ,अनेक अनेक संदर्भो में -एक साथ . कई कई अर्थच्छवियाँ एक साथ परिगुम्फित रहती हैं उनकी कविता की एक पंक्ति में ,कभी कभी एक शब्द में . दरख्त जैसे मनुष्य की जो संज्ञा मीर के अब्बू में ढलती है तो जीवन का दबाव अपने पूरेपन में कल्पना की भव्यता को चुनौती देता है .जंगल होता घर दरख़्त होते मनुष्य की सान्तवना है .जीवन का आज्ञाकारी होना कैमरे में कैद नहीं हो सकता . वह प्रकिया को नहीं ,स्थिति को पकड़ता है .मनुष्य का दरख़्त होना प्रक्रिया है . दरख़्त स्वत्रंत होते मनुष्य का ठिकाना है जहाँ वह बस जंगल है .किसी से कुछ नहीं लेता सिवा सूरज के रौशनी और वातावरण के कार्बन डाई ऑक्साइड के .वह थिर है .कही नहीं जाता .कवि की प्रार्थना एक संभव -अतिसंभव प्रार्थना है .दरख़्त कहीं जाता नहीं .वही रहता है जहाँ जन्मता है .मनुष्य का दरख़्त होना ,जमीन से जुड़ना है . मगर रोमांस से उसका नाता है .वह हवाओं के चलने से आसमान में हिलता है .वह एक साथ मैडम बावरी भी है और मिस्टर बावरी भी .उसके जितने फूल जमीन (कवि इसके पहले 'सुन्दर ' नहीं लगाता, सुन्दर सिर्फ आसमान में स्थित शाखाये हैं ) पर हैं उतने सुन्दर शाखाओं पर भी हैं .शमशेर का फोटू यह लिखते हुए दायें हाथ में नजर आता है , तो उनकी कविता याद आती है –आओ —
एक गीत कि जिसे हम -तुम कहें ''
उसी की तर्ज़ पर कहूँगा कि एक कविता कि जिसे ''मीर के अब्बू '' कहें .
–फकीर जय (प्रकाश )
गौतम की बात से इतना हक्का बक्का रह गया था फेसबुक पर कि न वहाँ उसका कोई जवाब दे पाया न इधर पलट के देखा. आपके कहे से अभी भी शर्मसार हूँ कि मैं इस काबिल कहाँ पर आपने जो महसूस किया उससे अच्छा लग रहा है अपने बारे में जिसके मौके न मैं अपने को दे पाता हूँ न दूसरे ही देते हैं. एम्बियेंस ये है कि चद्दर तो है अभी टेबल पर पर दीवारों पर पेंट नहीं है, किराये का मकान है घर में वैसा 'सुरुचिपूर्ण' 'कलात्मक' कुछ नहीं सिवा किताबों के जैसा खासकर लेखकों के घर पाया जाता है. २. अशोक: राजेश जोशी की कोई कविता मेरे दिमाग में न थी, तुम्हें कौनसी याद आयी? मैंने यह गाना रब्बी के लिए एक ट्रिब्यूट बतौर लिखा है. रामदास और मकबूल याद आये बिलकिस सत्येन्द्र मंजूनाथ नवलीन से. ३. फकीर: आपको अब बा-कायदा आलोचना लिखनी चाहिए केवल अल-कायदा नहीं और मेरे जैसों पर एक पंक्ति बर्बाद नहीं करनी चाहिए. फिर भी, अब आपसे क्या छुपाना, पढ़के अक्स अपना प्रसन्नचित्त दिखा , मूर्ख नहीं 🙂