साथी कवि अशोक कुमार पांडेय ने अपने पहले संग्रह ‘लगभग अनामंत्रित’ के बाद कहन का रूप कुछ बदला है। उसकी कविता में वैचारिक बहस की दिशा और स्पष्ट हुई है साथ ही उसके अनुभव संसार में मनुष्य-जीवन और उसकी बेहतरी के संघर्षों के कठिन-कठोर दृश्य अधिक ठोस उपस्थिति के साथ सम्भव हो रहे हैं। उसकी भाषा में कड़वाहट बढ़ी है जो दरअसल वैचारिक अनुभवों के गझिन और प्रतिरोध के स्वर के सान्द्र होते जाने का परिचायक है। वह बेहद जुझारू कवि साबित हुआ है इधर की हिन्दी कविता में। इस बीच वह लगातार अपने आप से जूझा है और आजू-बाजू सड़ रहे अपने अवसरवादी मध्य-उच्चमध्यवर्गीय लालची संसार से भी … पूंजीवादी-सामन्ती अनाचारी शक्तियों से हो रही अधिक बड़ी लड़ाई में उसने निजी और सामाजिक आत्मालोचन की ये दो अनिवार्य दिशाएं अब अपने लिए बख़ूबी तय कर ली हैं। यहां प्रस्तुत अशोक की नई कविता इन्हीं कुछ ज़रूरी मोर्चों पर सम्भव हुई है और मैं इसे बहुत यक़ीन से देख रहा हूं।
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वहां अमराइयों की छाया में बैठी एक चिड़चिड़ी कुतिया थी
अमिया चूसती एक लड़की फ्राक के फटे हुए झालर से नाक पोछती
उधड़ी बधिया वाली खटिया पर ऊँघता बूढ़ा न मालिक लगता था न रखवाला
कुंएं में झाँकती औरत पता नहीं पानी के बारे में सोच रही थी या आत्महत्या के
अधेड़ डाकिया था खिचड़ी बालों और घिसी वर्दी से भी अधिक घिसी साइकल पर सवार
स्कूल के चबूतरे पर बैठी चिट्ठियाँ बांचती मास्टरनी लौटती बस के इंतज़ार में
चिट्ठियों में बम्बई-कलकत्ता-ग्वालियर-भोपाल की बजबजाती गलियों की दुर्गन्ध भरी थी
मनीआर्डर के नोटों पर पसीने से अधिक टीबी के उगले खून की बास
बादलों से खाली आसमान और चूल्हों से जूझती आग़
दोपहर का कोई वक़्त था जून का महीना प्यास से बेचैन गले और पानी मांगने की हिम्मत जुटाने में सूखते ओठ
न नौकर था उस वक़्त मैं न मालिक न बाहरी न गाँव का
सवाल पूछते शर्म से थरथराती जबान दर्ज करती कलम की तरह
कितनी ज़मीन थी क्या-क्या बोया उसमें काटा क्या-क्या क्या कीमत घर की कितने जेवर जानवर कितने?
सवाल थे सरकार के और जवाब बिखरे हुए पूरे गाँव में सन्नाटे की तरह
उम्मीद मेरे आश्वासनों से निकल थककर बैठ जाती प्यास से बेहाल उनके बिवाइयों भरे पैरों के पास
शब्द वहां बौने हो जाते हैं जहाँ छायाएं पसरने लगती हैं मृत्यु की.
दीवारों पर चमत्कारी महात्माओं के पोस्टर थे जो वही सबसे चमकदार उस इंसानी बस्ती में
चमकते दांतों वाला एक विज्ञापन अश्लील उस मरती हुई सभ्यता के बीच
फीके पड चुके चुनावी पोस्टर उनमें लिखे सपनीले शब्दों जैसे ही
मुझे अचानक लगा कि कितने पोस्टर होने चाहिए थे यहाँ गुमशुदा लोगों के
जहाँ इबारतें लिखीं सरकारी योजनाओं की वहां लिखे होने चाहिए थे उन लड़कों के नाम
जो बारह साल बाद अब बूढ़े हो चुके होंगे दिल्ली की किसी गली में
उम्मीद का एक गीत, सपनों का एक पता तो होना ही था वहाँ
जहाँ कुछ नहीं बचा सूखी धरती, खाली चूल्हों, मुन्तजिर औरतों, उदास बच्चों और मृत्यु से हारे बूढों के अलावा
एक पोस्टर तुम्हारा भी तो होना था यहाँ कामरेड!
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शानी के कालाजल को मैं मुस्लिम जीवन का उपन्यास नहीं बल्कि हिंदुस्तान के उस पिछड़े, सरकार द्वारा ठोकर मार दिये गए समाज का उपन्यास मानता हूँ जिसमें जीवन ठहर सा गया है , उसी ठहरे हुए जीवन को अशोक जी के कविता में देखा जा सकता है,जिस तरह रोती हुई माँ अपने आंखो को पोछ लेती है आँचल से, पर न जाने क्यों मुझे आँसू उसके आंखो के कोनो में ठहरे हुए ही दिखते हैं ,इस कविता की यह विशेषता है की यह हिदुस्तान के उस पिछड़े समाज के पूरे ठहराव को पकड़ती है,पूरी वैचारिक प्रतिवद्धता के साथ अशोक जी राही मासूम रज़ा के आधा गाँव तक भी जाते हैं, आधागांव में राही ने लिखा था की यहाँ के युवा जवान होते ही कोल्हू की तरह कलकत्ता के मीलों जोत दिये जाते हैं फिर गाँव में छूट जाती हैं सूनी आंखे। यह कविता उन सूखी आंखो की भी दास्तान है। गांवो से युवाओं के विस्थापन की समस्या की चीड़फाड़ करती यह कविता सरकार के नीतियों,तथा चमत्कारी महामानवों के मिथक का भी क्रिटिक रचती है
इस बस्ती का नाम मुआनजोदड़ो नहीं था… बहुत शानदार कविता है। सच्चाईयों के क्रूर धरातल को परत दर परत उघाड़ती हुई। अशोकजी से ऐसी धारदार और कविताओं की उम्मीद है। एक अच्छी कविता के लिए बधाई।
कृष्णकांत
कवि या उसके पोस्टर के पासंग न बैठो तो जानो कैसे? दृष्य को विकल करती सी कविता है यह।
मितव्ययी भी जितना कि अशोक दिखते नहीं
Cheejon ko dilectical tarike se dekhna bher nahi. Khud ko bhi shamil ker k dekhna. Ak nirdayak nazariya. Ak bahut achchi kavita ban padi ha. Kavita apne ant me bada sawal kshod jati ha.
बेलकुल सही फरमाए हो शिरीष ! यह ज्वान (अकुपा) सचमुच विस्तृत होता जा रहा है । चेतना और भाषा दोनों इसकी नवोन्मेषाती चली जा रही है और मुझे उम्मीद है यह कविता का रंग कुछ बदलेगा !
Ashok Kumar Pandey की 'लगभग अनामंत्रित के बाद की कविताओं में एक नए तरह की बिम्बात्मकता आई है, इन कविताओँ की भाषा भी नए कलेवर में एक नई ऊर्जा के साथ हमें भावोँ तथा अर्थ-विस्तार की नई अनुभूतियाँ कराती है. इनमें एक अलग किस्म की धमक है और आशय की व्यापकता है.
उमेश चौहान
बेहतरीन कविता! बेहद सधी हुई और क्या हृदयविदारक माहौल निर्मित करती हुई!
ब्रेख्त की याद दिलाती बेहद मार्मिक कविता । अंतिम पंक्ति तो झकझोर देती है । हार्दिक साधुवाद !
कवि या लेखक कुछ भी चाहे पढ़ने वाले तो बगली देकर निकल लेते हैं या वे बातें भी कर सकते है जो रचना से सीधे रूप में जुडी नहीं होतीं. यह कविता जीवन के पुरातन / आधुनिक सन्दर्भों पर चर्चा करते हुए उन्हें सत्ता के सामने खड़ा करती है. प्रश्न ही प्रश्न हैं, उत्तर नहीं हैं. सत्ता खामोश ही रहना पसंद करती है जब जवाब नहीं होते. हम जिंदा हैं या मुर्दा ? कहीं कुछ होता नहीं. बस्ती का नाम मुआनजोदड़ो नहीं है लेकिन हम रह वहीं रहे है. कविता प्रतीक, बिम्ब, भाषा, संरचना के स्तर पर आसान नहीं है. कुछ समझने के लिए ध्यान से पढ़ना पड़ता है. क्या मै इस कविता को पूरी तरह समझ पाया हूँ ? शायद " हाँ ", शायद " नहीं ".
"मनी-ऑर्डर अर्थ-व्यवस्था" के सहारे चूल्हा जलाने की विवशता पीढ़ियों से पूर्वी उत्तर प्रदेश के गाँव झेलते रहे हैं. मित्र अशोक कुमार पाण्डेय की यह कविता उसी व्यथा को पूरी शिद्दत से स्वरित कर रही है. इस सच को बदलना ही होगा. काम मुश्किल तो है, नामुमकिन नहीं.
अशोक की कविताओं को अब तक जितना पढा है, कहने की शैली में एक नयापन यहां नजर आता है, खासतौर से जिस तरह के दृश्यात्मक ब्यौरे यह कविता प्रस्तुत करती है, लेकिन इन ब्यौरों के पीछे कवि की पक्षधरता बहुत मुखर है जो इसे अशोक की ही कविता बनाती है। बेहतरीन, बधाई।
महत्वपूर्ण कविता।
एक महत्वपूर्ण कविता है जिसमें इन जगहों को समेटे समय बयान हो रहा है। और इस तरह की धारधार कविता के लिये इस तल्ख़ भाषा की ज़रूरत भी है।
ये बस्तियाँ/ ये गाँव हिन्दुस्तान में जगह जगह देखने को मिलते हैं
एक शानदार कविता, बिम्बों में सत्य का वज्रपात, पंक्तियों में मैला आँचल या आधा गाँव के अध्याय और फिर वही सवाल इन हालातों को बदलने का?
ऐसी धारदार कविता के जरिये अशोकजी अपनी लड़ाई के मोर्चे पर पाठको को झंझोड़ कर जगाए रखेंगे।
अच्छी कविता। अशोक भाई को बधाई…।।