स्थायी
होती है नदियों की याददाश्त
कितनी
बारिश होगी हर कोई पूछ रहा है
कुछ पता
नहीं हर कोई बता रहा है
बारिश तो
बारिश की ही तरह होती है
पर लोग
लोगों की तरह नहीं रहते
रहना रहने
की तरह नहीं रहता
भीगना
भीगने की तरह नहीं होता
नदियां
मटमैले पानी से भरी बहने की तरह बहती हैं
बहने के
वर्षों पुराने छूटे रास्ते उन्हें याद आने की तरह याद आते है
वे लौटने
की तरह लौटती हैं
पर उनकी
आंखें कमज़ोर होती हैं
वे दूर से
लहरों की सूंड़ उठा कर सूंघती हैं पुराने रास्ते
और हाथियों
की तरह दौड़ पड़ती हैं
बारिश
नदियों को हाथियों का बिछुड़ा झ़ंड बना देती है
जो हर ओर
से चिंघाड़ती बेलगाम आ मिलना चाहती हैं
किसी
पुरानी जगह पर
जहां उनके
पूर्वजों की अस्थियां धूप में सूखती रहीं बरसों-बरस
नदियों के
पूर्वज पूर्वर्जों की तरह होते हैं
पुरखों की
ज़मीन जिस पर आ बसे नई धज के लोग
नई इमारतें
वहां से
उधेड़ी गई मिट्टी, काटे गए पेड़ और तोड़ी गई चट्टानें
पहाड़ पानी
के थैले में बांध देते हैं दुबारा
वहीं तक
पहुंचाने को
वापिस
लौटाने होते हैं रास्ते
बारिश की
इसी बंदोबस्ती में
लोगों की
तरह नहीं रहने वाले लोगों को
छोड़नी
पड़ती है ज़मीन
जो पीछे
नहीं हटता ग़लती या ख़ुशफ़हमी में
मारा जाता
है
नदियां हत्यारी
नहीं होतीं
हत्यारी
होती हैं लोगों की इच्छाएं सब कुछ हथिया लेने की
बारिश तो
बारिश की ही तरह होती है
पहाड़ों पर
मैं भी इसी
बारिश के बीच रहता हूं
भीगता हूं
भीगने की ही तरह
मेरी त्वचा
गल नहीं जाती ढह नहीं जातीं मेरी हड्डियां
मैं ज़्यादा
साफ़ किसी भूरी मज़बूत चट्टान की तरह दिखता हूं
उस पर लगे
साल भर के धब्बे धुल जाते हैं धुलने की तरह
कुछ अधिक
तो नहीं मांगती
मेरे
पहाड़ों से निकल सुदूर समन्दर तक जीवन का विस्तार करती नदियां
बस लोग
लोगों की तरह
रहना रहने
की तरह
छोड़ देना
कुछ राह जो नदियों की याद में है याद की तरह
नदियों की
पूर्वज धाराओं की अस्थियों पर बसी बस्तियां
स्थायी
नहीं हो सकतीं
पर स्थायी
होती है नदियों की याददाश्त
***
मुश्किल
दिन की बात
आज बड़ा
मुश्किल दिन है
कल भी बड़ा
मुश्किल दिन था
पत्नी ने
कहा –
चिंता मत करो कल उतना
मुश्किल दिन नहीं होगा
उसके ढाढ़स
में भी उतना भर संदेह था
मुश्किल
दिन मेरे कंठ में फंसा है
अटका है
मेरी सांस में
मैं कुछ
बोलूं तो मुश्किल की एक तेज़ ध्वनि आती है
मुश्किल
दिन से छुटकारा पाना
मुश्किल हो
रहा है
मां उच्च
रक्तचाप और पिता शक्कर की
लगातार
शिकायत करते हैं
पत्नी
ढाढ़स बंधाने के अपने फ़र्ज़ के बाद
पीठ के
दर्द से कराहती सोती है
अपनी
कुर्सी पर बैठा मैं
घर का
दरवाज़ा खोलकर बाहर निकल जाता हूं
बच्चे की
नींद और भविष्य ख़राब न हो
इसलिए मैं
बहुत चुपचाप बाहर निकलता हूं
बाहर मेरे
लोग हैं वे मेरी तरह कुर्सी पर बैठे हुए नहीं हैं
उनमें से
एक शराब के नशे में धुत्त
बहुत देर
से सड़क पर पड़ा है
मैं उसे
धीरे से किनारे खिसकाता हूं
वह
लड़खड़ाते अस्पष्ट स्वर में एक स्पष्ट गाली देता है मुझे
कल बड़ा
मुश्किल दिन होगा
एक हज़ार
रुपए में रात का सौदा निबटा कर
बहुत तेज़
क़दम घर वापस लौट रही है एक परिचित औरत
एक हज़ार
रुपए इसलिए कि दिन में यह आंकड़ा बता देते हैं
उसकी रातों
के ज़लील सौदागर
मैं मुंह
फेर कर उसे रास्ता देता हूं
कल सुबह
मिलने पर वह मुझे नमस्ते करेगी
कल बड़ा
मुश्किल दिन होगा
एक अल्पवयस्क
मजदूर
एक दूकान
के आगे बोरा लपेट कर सोया पड़ा है
कल जब मैं
अपने काम पर जाऊंगा
वह चौराहे
पर मिलेगा अपने हिस्से का काम खोजता हुआ
कल बड़ा
मुश्किल दिन होगा
घबरा कर
कुर्सी पर बैठे हुए मैं घर का दरवाज़ा खोल वापस आ जाता हूं
कमरे के
18-2020अट्ठारह- बीस तापमान पर भी पसीना छूटता है मुझे
कम्प्यूटर
खोलकर मैं अपने जाहिलों वाले पढ़ने-लिखने के काम पर लग जाता हूं
अपने लोगों
को बाहर छोड़ता हुआ
कल मुझे
उन्हीं के बीच जाना है
कल बड़ा
मुश्किल दिन होगा
मेरे स्वर
में मुश्किल भर्राती है
मेरी सांस
में वह घरघराती है पुराने बलगम की तरह
मैं उसे
खखार तो सकता हूं पर थूक नहीं सकता
मुश्किलों
को निगलते एक उम्र हुई
कल भी मैं
किसी मुश्किल को निगल लूंगा
कल बड़ा
मुश्किल दिन होगा
जानता हूं
एक दिन
मुश्किलें समूचा उगल कर फेंक देगी मुझे
मेरी
तकलीफ़ों और क्रोध समेत
जैसे मेरे
पहाड़ उगल कर फेंक देते हैं अपनी सबसे भारी चट्टानें
बारिश के
मुश्किल दिनों में
और उनकी
चपेट में आ जाते हैं गांवों और जंगलों को खा जाने वाले
चौड़े-चौड़े
राजमार्ग
दूर तक
उनका पता नहीं चलता
कल कोई
ज़रूर मेरी चपेट में आ जाएगा
कल बड़ा
मुश्किल दिन होगा
लेकिन मेरे लिए नहीं
***
सुबह हो
रही है
सुबह हो
रही है मैं कुत्ता घुमाने के अपने ज़रूरी काम से लौट आया
घर वापस
घर में
बनती हुई चाय की ख़ुश्बू
और पत्नी
की इधर से उधर व्यस्त आवाजाही
आश्वस्त
करती है मुझे
कि यह सुबह
ठीक-ठाक हो रही है
यह इसी तरह
होती रही तो घर की सीमित दुनिया में ही सही
एक अरसे
बाद मैं कह पाऊंगा अपने सो रहे बेटे से
कि उठो
बेटा सुबह हो गई
वरना अब तक
तो कहता रहा हूं उठो बेटा बहुत देर हो गई
रात होती
है तो सुबह भी होनी चाहिए
पर वह होती
नहीं अचानक लगता है दिन निकल आया है बिना सुबह हुए ही
रात के बाद
दिन निकलना खगोल विज्ञान है
जबकि सुबह
होना उससे भिन्न धरती पर एक अलग तरह का ज्ञान है
इन दिनों
मेरे हिस्से में यह ज्ञान नहीं है
सुदूर बचपन
में कभी देखी थी होती हुई सुबहें
अब उनकी
याद धुंधली है
पगली है
मेरी पत्नी भी
मुझ तक ही
अपनी समूची दुनिया को साधे
कितनी
आसानी से कह देती है
मुझे उठाते
हुए उठो सुबह हो गई
मैं उसे
सुबह के बारे में बताना चाहता हूं
रेशा-रेशा
अपने लोगों की जिन्दगी दिखाना चाहता हूं
जिनकी
रातें जाने कब से ख़त्म नहीं हुईं
बस दिन
निकल आया
और वे रात
में जानबूझ कर छोड़ी रोटी खाकर काम पर निकल गए
जबकि रात
ही उन्हें
उसे खा
सकने से कहीं अधिक भूख थी
मेरी सुबह
एक भूख है
कब से मिटी
नहीं
जाने कब से
मै भी रोज़ रात एक रोटी छोड़ देता हूं
सुबह की इस
भूख के लिए
पर यह एक
घर है जिसमें रोटी ताज़ी बन जाती है
मैं रात की
छोड़ी रोटी खा ही नहीं पाता
और फिर दिन
भर भूख से बिलबिलाता हूं
मेरी सुबह
कभी हो ही नहीं पाती
वह होती तो
होती थोड़ी अस्त–व्यस्त
बिखरी-बिखरी
किसी मनुष्य
के निकलने की तरह मनुष्यों की धरती पर
जबकि मैं
नहा-धोकर
लकदक
कपड़ों में
अचानक दिन
की तरह निकल जाता हूं काम पर
***
किसी ने कल
से खाना नहीं खाया है
रात मेरे
कंठ में अटक रहे हैं कौर
मुझे खाने
का मन नहीं है
थाली सरका
देता हूं तो पत्नी सोचती है नाराज़ हूं या खाना मन का नहीं है
यूं मन का
कुछ भी नहीं है इन दिनों
अभी खाने
की थाली में जो कुछ भी है मन का है पर मेरा मन ही नहीं है
मन नहीं
होना मन का नहीं होने से अलग स्थिति है
मैंने दिन
में खाना खाया था अपनी ख़ुराक भर
भरे पेट
मैं काम पर गया
शाम लौटते
हुए
सड़क
किनारे एक बुढिया से लेकर बांज के कोयलों पर बढिया सिंका हुआ
एक भुट्टा
खाया था
वह भी खा
रही थी एक कहती हुई –
बेटा कल से
बस ये भुट्टे ही खाए हैं और कुछ नहीं खाया
तेज़ बारिश
में कम गाड़ियां निकली यहां से
इतने पैसे
भी नहीं हुए एक दिन का राशन ला पाऊं
पर सिंका
हुआ भुट्टा भी अच्छा खाना है भूख नहीं लगने देता
मैंने भी
वह भुट्टा खाया था और अब मेरा खाने का मन नहीं
अपने लोगों
के बीच इतने वर्षों से इसी तरह रहते हुए
अब मैं यह
कहने लायक भी नहीं रहा
कि किसी ने
कल से खाना नहीं खाया है
इसलिए मेरा
भी मन नहीं
कविता के
बाहर पत्नी से
और कविता
के भीतर पाठकों से भी बस इतना ही कह सकता हूं
कि मैंने
शाम एक भुट्टा खाया था
अब मेरा मन
नहीं
और जैसा कि
मैंने पहले कहा मन नहीं होना मन का नहीं होने से अलग
एक स्थिति
है
***
सांड़
सांड़ की
आंखों को लाल होना चाहिए पर गहरी गेरूआ लगती हैं मुझे
विशाल शरीर
उसका
अब भी
बढ़ता हुआ ख़ुराक के हिसाब से
उसके सींग
जब उसे लगता है कि हथियार के तौर पर उतने पैने नहीं रहे
उन्हें वह
मिट्टी-पत्थर पर रगड़ता है पैना करता है
राह पर
निकले
तो लोग
भक्तिभाव से देखते हैं
क़स्बे के
व्यापारियों ने पूरे कर्मकांड के साथ छोड़ा था उसे शिव के नाम पर
जब वह उद्दंड
बछेड़ा था
तब से
लोगों ने रोटियां खिलाईं उसे
उसकी भूख
बढ़ती गई
स्वभाव
बिगड़ता गया
अब वो बड़ी
मुसीबत है पर लोग उसे सह लेते हैं
वह स्कूल
जाते बच्चों को दौड़ा लेता है
राह चलते लोगों
की ओर सींग फटकारता है कभी मार भी देता है
अस्पताल
में घायल कहता है डॉक्टर से
नंदी
नाराज़ था आज पता नहीं कौन-सी भूल हुई
उसे क़स्बे
से हटाने की कुछ छुटपुट तार्किक मांगों के उठते ही
खड़े हो
जाते हिंदुत्व के अलम्बरदार
इस क़स्बे
की ही बात नहीं
देश भर में
विचरते हैं सांड़ अकसर उन्हें चराते संगठन ख़ुद बन जाते हैं सांड़
सबको दिख
रहा है साफ़
अश्लीलता
की हद से भी पार बढ़ते जा रहे हैं इन सांड़ों के अंडकोश
उनमें
वीर्य बढ़ता जा रहा है
धरती पर
चूती रहती है घृणित तरल की धार
वे सपना
देखते हैं देश पर एक दिन सांड़ों का राज होगा
लेकिन भूल
जाते हैं कि जैविक रूप से भी मनुष्यों से बहुत कम होती है सांड़ों की उम्र
ख़तरा बस
इतना है
कि आजकल एक
सांड़ दूसरे सांड़ को दे रहा है सांड़ होने का विचार
उनका मनुष्यों
से अधिक बलशाली होना उतनी चिंता की बात नहीं
जितनी कि
एक मोटे विचार की विरासत छोड़ जाना
सबसे चिंता
की बात है
इन सांड़ों
का पैने सींगो, मोटी चमड़ी और विशाल शरीर के साथ-साथ
पहले से
कुछ अधिक विकसित बुद्धि के साथ
मनुष्यों
के इलाक़े में आना
***
सोचने पर विवश करतीं कविताएं। पांचों कविताओं मंे दम है। पढ़ते हुए सुकून नहीं, बेचैनी महसूस होती है। लगता है कवि आईना दिखा रहा है और उसमें जो सच हमें दिखाई देता है वह बेचैन कर देता है। ‘स्थायी होती है नदियों की याददाश्त’ तो कहीं गहरे उतर गई है। मैंने इसे पढ़ने की तरह नहीं पढ़ा, जीने की तरह समझा है। मुश्किल दिन की बात, सुबह हो रही है, किसी ने कल से खाना नहीं खाया है और सांड, हर कविता जैसे हालात को समझने का नया नजरिया देती है। अच्छी कविताओं के लिए बधाई और शुभकामनाएं।
महाराज जय हो आपकी . आज आपकी पाँच कवितायें पढ़ी …………. नदियों की याददाश्त वाली बात अंदर तक उतर गई ………इतनी छोटी सी बात है लेकिन हमको समझ नहीं आती …. वाकई हत्यारिन नहीं होती कभी भी कोई नदी ……….. आपको जब भी पढ़ता हूँ समझ नहीं पाता हूँ की ये सब कहाँ भरा होता है एक सीधे-सादे आदमी के भीतर ………..और अंदर से किस स्नायु तो तोड़ कर निकलता है ये सब …………… लिखते रहिये साहब हम पढते रहेंगे और अपने दिमाग के मुताबिक़ समझने की कोशिश भी करेंगे
सभी रचनाएँ बहुत उत्कृष्ट और अंतस को छू जाती हैं…
शिरीष, सभी कविताऍं अच्छी हैं, खासतौर पर पहली और आखिरी। कीप गोर्इंग।
Aisi kavitain padkar Hindi kavita par garv hota hai . Shirish jee abhaar .
Really so good peom