प्रेम
पिता का दिखाई नहीं देता चन्द्रकान्त
देवताले की प्रसिद्ध कविता है। इस नाम से एक शानदार संग्रह का चयन एवं सम्पादन कवि
कुमार अनुपम ने किया है। इस संग्रह की कविताओं को पढ़ते हुए फेसबुक पर पढ़ी सपना
भट्ट की इन कविताओं की स्मृति साथ रही। मुझे इन
कविताओं में इस संग्रह का मार्मिक विस्तार मिला। मैंने कवि से इन कविताओं के लिए
अनुरोध किया, उन्होंने इस अनुरोध का मान रखा । अनुनाद पर यह
सपना भट्ट का प्रथम प्रकाशन है, उनका यहां स्वागत है।
– मेधा नैलवाल
पिता
पिता से मुझे मिली
वह थोड़ी सी उदात्तता और साहस
जिससे पहाड़ की बेटियों को
जीने की आसानियाँ मिला करती हैं
मैंने माँ से नहीं पिता से पूछे
अवांछित स्पर्शों और ख़राब दृष्टियों के मानी
पिता ने ही मुझमें अंगार बोये
कि मैं हर अनचाही छुअन का प्रतिकार कर सकूँ
मैंने पिता को ही दी
पहले प्रेम की सूचना।
पहली बार हृदय टूटने पर
पिता की ही छाती से लग कर रोई
मेरा रोष, क्षोभ और करुणा
पिता ने ही चीन्हा पहली बार
मेरी कॉपियों के पिछले पन्नों की आड़ी टेढ़ी लिखतों से
ब्याह के वक़्त
पिता ने ही मेरे कान में कहा धीरे से
कि याद रख ;
“यह गाड़ी जो तुझे ससुराल ले जा रही है
यही गाड़ी तुझे तेरे मायके भी ला सकती है
जब तू चाहे ।
कि तेरे अब दो दो घर हैं बच्ची”
फिर यह हुआ कि
मैंने दुःख नहीं कहे पिता से ब्याह के बाद
पिता ने ही निरख कर
एक दिन मुझसे कहा
कि बेटियों के अकेले रोने
और गुमसुम रहने से पिताओं की उम्र कम होती है
और सच में
पिता उम्र से बहुत पहले चले गए
मैं क्या करती !
रोने और गुमसुम रहने पर कब किसका ज़ोर चलता है ….
***
माँ के बाद मायका
मायके जाने पर
देखती हूँ तुम्हारा बिस्तर
जिस पर पहले आयोडेक्स और गाढ़े तेल की
महक वाला तकिया हुआ
करता था
अब उस पर करीने से चादर बिछी रहती है
मेरी आँखें धुंधला गयी हैं या
तुम ही दीवार पर लगी तस्वीर में नहीं हो अपनी
तुम्हारा मोटे कांच
और सुनहरी कमानी वाला चश्मा भी तो कहीं नहीं मिलता
कितना चिल्लाती थी हम पर
आओ फिर से बरज दो
चौके में चली आई हूँ चप्पलें पहन कर
देवघर में
हफ्तों दीपक नही जलता
तुमने रिश्वत दी है क्या ऊपर वाले को?
गोबर पाथती,उपले बनाती
तुम्हारी फटी हथेलियां चेहरे पर महसूस करती हूं
कोई खरोंच नहीं लगती पहले जैसी
तुम्हारा हथियाया पापा का रेडियो
कौन कबाड़ी ले गया पता नहीं
वहां अब सा रे गा मा कारवाँ वाला ट्रांजिस्टर सजा रहता है
तुम्हारे फोन को
सेव किया है माँSSS के पीछे
आ की लंबी ध्वनि के साथ
कोई उठाता नहीं
लेकिन जितनी देर बजता है उतनी लम्बी साँस आती है
तुम सुख से तो हो
गठिया कैसा है तुम्हारा इस जाड़े?
एक मज़े की बात बताऊं
तुम्हारी घसियारिन सहेली
गीता आंटी के नकली दाँतो का सेट
हंसते ही जब तब बाहर आ गिरता है
तुम देखती तो कितना हँसती
वहां कौन है तुम्हारी सहेली
किससे चिढ़ती हो !
किसे देती हो पहाड़ी गालियां
किसे अपने उबाऊं भजन सुनाती हो!
तुम दो बरस बाद जाती
तो देख पाती
कितनी सुंदर कविताएँ लिखने लगी मेरी बेटी मुझ पर
माँ !
हमे कोई नहीं बुलाता बार त्योहार पर मैत
कोई हमको देखने नहीं आता हारी बीमारी में
कोई नहीं कहता
कि मेरी भड्डू पहाड़ पर सम्भल कर रहना
इतना तरस गयी हूँ तुम्हारी आवाज़ को
कि दाएं मकान वाली सुमन फूफू से कहती हूँ कि मुझे लाटी कह कर
पुकारा करे
अब जब तुम कहीं नहीं हो तो
पड़ोस की सब स्त्रियां
आंटी से मौसियाँ काकियाँ हो गयी हैं
फिर भी
तुम्हारी कमी नहीं पूरती
लाख जतन कर लूँ
किसी त्योहार में तुम्हारी याद नहीं छूटती
****
इमोजी
तुम कहते हो “खुश रहा करो”
जबकि जानते हो कि ख़ुशी यहाँ
एक झूठ और छलावा भर है बस ।
तुम्हे मुस्कुराने की इमोजी भेजकर
निश्चिन्त हो जाती हूँ कि मेरे झूठ मूठ हँस देने से
तुम्हारे आंगन का हर फूल खिला रहेगा ।
पीछे पलट कर देखती हूँ तो पाती हूँ
एक लंबा समय ख़ुद से
झूठ बोलने में गंवा दिया ।
जाने किस से नाराज़ थी, ख़ुद से या दुनिया से।
ब्याह के बाद पिता ने पूछा
कि तू सुखी तो है न रे मेरी पोथली ?
माँ ने आंखे पोंछ कर मुझसे पहले उत्तर दे दिया
और क्या ! जमीन जायदाद, उस पर एकलौता लड़का
क्या दुख होगा ससुराल में !
मैंने पिता का हाथ, हाथों में लेकर कहा
तुम अब मेरे बोझ से मुक्त हो गए हो बाबा
मेरी चिंता मत किया करो।
मैं बहुत ख़ुश हूँ, देखो ये
मेरे गहने
पता नहीं पिता आश्वस्त हुए या नहीं,
उन्होंने आंख में तिनका गिरने की बात
कहकर मुंह फेर लिया था ।
मैंने फिर कभी अपना दुःख उनसे नहीं कहा।
अब जब बेटी पूछती है माँ !
आप अकेले इतनी दूर ।
कोई दुख तो नहीं है न आपको
मैं उसकी चिन्तातुर आंखें देखकर कहती हूँ
हां कोई दुःख नहीं।
मैं अब पत्थरों पेड़ो और नदियों से
अपने दुःख कहती हूँ।
तुमसे कहना चाहा था, कभी कह नहीं पाई ।
क्योंकि तुम्हे सोचते हुए
मेरी इन आँखों मे तुम्हारा नहीं;
अपने अशक्त और बेबस पिता का
प्रतिबिंब चमक उठता है।
मैं घबराकर मुस्कुराने की इमोजी तलाशने लगती हूँ।
***
बेटी की माँ होना
धुंधलाई सी एक स्मृति में
खेत से लौटी क्लान्त माँ का बेडौल पेट उभरता है ।
किसी उदास कातिक में
मैं अपने जन्म का उत्सव
रुदन में बदलते देखती हूँ।
बुढ दादी की कांपती हुई आवाज़ आती है
ये रां ! फीर बिटुल ह्वे ग्याई ।
निष्प्राण माँ की आंखों में ममत्व नहीं
शोक पसर जाता है।
पोते की प्रतीक्षा में पगलाई दादी बड़बड़ाती है
तेरा नसीब फिर से फूट गया रे परकास !
और यह भी कि
“सुख वाली डाक
ईश्वर हर पते पर नहीं भेजते”।
तीन बहनों में बिचली होना भी
क्या मुसीबत है!
मुझे कभी नहीं मिले
नए जूते, यूनिफार्म और किताबें
दीदी से मुझ तक आते आते
उनकी नवेली सुगंध, सीलन में
तब्दील हुआ चाहती थी
दोहराव की निरन्तरता का यह शोक
अल्हड़पन में मन को ही नहीं
अस्थियों तक को गलाता था।
रुंधे कंठ में अबोध कामनाएं सिसकती थीं।
करुणा उपज कर स्वयं पर ही खर्च हो जाती थी।
अभावों का यह दोहराव मुझ पर उम्र भर बीता।
अक्तूबर फिर चढ़ आया है
इन दिनों स्वप्न में
फिर अपनी
सद्य प्रसवा मां का कुम्हलाया मुख देखती हूँ।
घबरा कर अपनी साँस टटोलती हूँ ।
आश्वत होती हूँ कि मैली सी एक गुदड़ी में
एक निर्दोष हलचल अभी ज़िंदा है।
बरसों पहले बीते उस कातिक से भागती हुई
मैं अपने वर्तमान से टकरा कर कराहती हूँ
कि तभी बेटी माथा सहला कर “माँ” पुकार लेती है।
आज अनुभव से कह सकती हूं कि
एक बेटी की माँ होना भी
कोई कम बड़ी आश्वस्ति नहीं।
अपनी बेटी को चूमते हुए चाहती हूँ कि कहूँ
“तुम नाहक कमज़ोर पड़ी मेरे होने से माँ”
मैंने बेटी जन कर वह जाना
जो तुमने कभी समझा ही नहीं….
***
स्वप्न में माता पिता
पिता स्वप्न में दिखते हैं।
मायके के तलघर में रखी
उनकी प्रिय आराम कुर्सी पर
बैठकर सिगरेट पीते हुए,
कभी कोई फ़िल्म या क्रिकेट देखते हुए
या कोई अंग्रेज़ी किताब हाथ में थामे
चाय के घूँट भरते हुए।
उन्हें स्वप्न में देख आश्वस्त रहता है मन
कि वे वहां भी सुख से ही होंगे।
माँ जैसे कभी जीते जी
एक जगह टिककर नहीं बैठी;
स्वप्न में भी कभी एक दृश्य में नहीं बंध पाती।
दिखती है कभी गौशाला में गोबर पाथती हुई।
कभी पशुओं की सानी पानी करती हुई।
जंगल से धोती के छोर में काफ़ल बांध कर लाती हुई।
जलती दुपहरी चूल्हे पर दाल सिंझाती,
भात पसाती हुई
निष्कपट पिता को दुनियादारी समझाती हुई।
बेटियों को जिम्मेदार और
सुघड़ होने की तरकीबें सिखाती हुई
पराए घर मे बाप की इज़्ज़त
रखने की हिदायतें करती हुई।
मैं स्वप्न से जागकर सोचती हूँ
कि दुनियादारी में असफल अपनी
बेटियों के दुःख जानकर
क्या माँ अब भी चैन से बैठ पाती होगी
और उदास हो जाती हूँ …
****
परिचय
उत्तराखंड की
मूलनिवासी सपना भट्ट का जन्म 25 अक्टूबर को कश्मीर में हुआ।
शिक्षा-दीक्षा उत्तराखंड में सम्पन्न हुई।
सपना अंग्रेजी और हिंदी विषय से परास्नातक हैं और वर्तमान में उत्तराखंड में ही
शिक्षा विभाग में शिक्षिका पद पर कार्यरत हैं।
साहित्य, संगीत और सिनेमा में गम्भीर रुचि ।
लंबे समय से विभिन्न ब्लॉग्स और पत्र
पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित।
पहला कविता संग्रह ‘ चुप्पियों में आलाप’ 2022 में बोधि प्रकाशन से प्रकाशित।
सम्पर्क cbhatt7@gmail.com
सपना भट्ट की लेखनी अभिमंत्रित है और उनके भाव दिव्य तथा अभिव्यक्ति तरल ।
इनकी कविता में डूबने का आनंद अव्यक्त है । साधुवाद देवी
बहुत उम्दा!
कविताओं की सादगी और सच्चाई ने बाँध लिया , बहुत सुन्दर …मैं अपने गूगल अकाउंट से कमेंट नहीं कर पा रही ।
https://shardaarora.blogspot.com/?m=0
कविताओं की सादगी और सच्चाई ने बाँध लिया , बहुत सुन्दर …मैं अपने गूगल अकाउंट से कमेंट नहीं कर पा रही ।
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Bahut hi samvedansheel kavitayen .
आपकी कविताएं भाव विभोऱ कर देती हैं।
बहुत उम्दा
बेहद उच्च कोटि का लेखन शुभकामनाएं लेखिका के लिए,
सपना जी को पढ़ना हमेशा एक सुखद अनुभव होता है। ये सभी कविताएं भाव बोध पर अत्यन्त समृद्ध हैं। इन कविताओं मे सपना जी की भाषा अपेक्षाकृत अधिक सहज है। मुझे लगता है कि इसकी वजह से इनकी सम्प्रेषणीयता काफी हद तक बढ़ गई है।
इन कविताओं को पढ़वाने के लिए अनुनाद का शुक्रिया ।
साधुवाद आपको…
अपनापन लिए हैं तमाम कविताएँ