कपिलेश भोज |
अनिल कुमार कार्की के अनुनाद पर छपे आलेख से हमने लोकभाषाओं की ओर एक नई राह खोली है। लोकधर्मी रचनाशक्ति की शिनाख़्त हमारे नए कोलाहल-समय में अब ज़रूरी हो चली है। डैशबोर्ड पर अनिल के लेख पर 980 रीडिंग/विजिट्स का आंकड़ा देखकर मैं चकित रह गया- पर टिप्पणी इस पोस्ट को दो ही मिलीं। मुद्दा बहस का था पर हुई नहीं। शायद लोग बोलना नहीं चाहते या फिर वे व्यस्त हैं। तब भी यह आंकड़ा संदेश है कि अपने लोक को जानने-समझने और उसके सवालों का सामना करने की आकांक्षा अभी तक लोगों में बनी हुई है…आगे की ख़ुदा ख़ैर करे। इस लेख पर उनकी इस आमद के लिए अनुनाद उनका आभारी है। इसी क्रम में हमारे अनुरोध पर कविमित्र महेश पुनेठा ने ब्रजेन्द्रलाल साह पर कपिलेश भोज की पुस्तक के बहाने कुछ ज़रूरी प्रश्नों की पड़ताल की है…इस समीक्षा-लेख के लिए हम उनके शुक्रगुज़ार हैं।
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ब्रजेंद्र लाल साह सांस्कृतिक दुनिया का एक ऐसा नाम है जिसने उत्तराखंड की
लोक विरासत को सहेजने-संवारने, विवेचन-विश्लेषण
करने और दूर-दूर तक पहॅुचाने का अविस्मरणीय कार्य किया। लोक संस्कृति को एक नयी
पहचान के साथ सांस्कृतिक आंदोलन को एक नयी गति व मति दी। लोक संस्कृति के विकास
में न केवल अपना अवदान दिया बल्कि एक पूरी पीढ़ी तैयार की। वे लोक जीवन और लोक
साहित्य के गहरे मर्मज्ञ थे।उनके लिए लोक साहित्य मनोरंजन का साधन मात्र नहीं
बल्कि जन चेतना का वाहक था।इसीलिए उनके सांस्कृतिक कर्म में सामान्य जन की पीड़ा
के प्रति गहरी सहानुभूति ,शोषक व उत्पीड़नकारी शक्तियों के
प्रति आक्रोश तथा आम आदमी की दुःखदायी जीवन स्थितियों को बदलने की तड़प दिखाई देती
है। उन्होंने कुमाऊं की पहचान बन चुके ऐतिहासिक लोकगीत बेड़ू पाको बारामासा सहित अन्य अनेक लोकगीतों
की पुनर्रचना की। दूर-दराज़ के गावों में जा-जाकर लगभग दो हज़ार लोकगीतों को संकलित किया, जिनमें अधिकांश
अभावग्रस्त श्रमजीवियों के कंठो से फूटे हैं। साथ ही दो सौ धुनों को आत्मसात किया। फिर इन लोकधुनों
पर आधारित कुमाऊंनी तथा गढ़वाली रामलीला के अलग-अलग चार सौ अस्सी गीत लिखे, जिन्हें विभिन्न मंचों से प्रस्तुत भी किया गया। इन लोकगीतों और लोकधुनों
का उपयोग दो अन्य नृत्य नाटिकाओं भस्मासुर तथा तारकासुर में भी किया ।
इनमें से भस्मासुर का तो अब तक दस
हज़ार से अधिक बार प्रदर्शन हो चुका है।
पहाड़ पोथी |
इसी तरह उन्होंने लोकगाथाओं को सुना-समझा और
गीत-नाटक में बदलकर माटी से मंच तक पहुंचाया। उनके द्वारा आलेखबद्ध नाटक – राजुला
मालूशाही, अजुवा बफौल, रसिक रमौल, जीतू बगड्वाल, वन्या, गंगानाथ, हरूहीत, रामी बौराणी, भोलानाथ, गोरीधना
आदि न केवल कुमाऊंनी जानने वाले दर्शकों बल्कि अन्य के द्वारा भी खूब सराहे गये।
इन लोक गाथाओें को पहली बार मंच में
प्रस्तुत करने का श्रेय इन्हें ही जाता है। इन नाटकों के द्वारा कुमाऊं का ग्रामीण
जन-जीवन, अभावग्रस्त जीवन की विवशता , समाज
में व्याप्त संवेदनहीनता,सामंती समाज व्यवस्था की निर्ममता
तथा समाज की अन्य विसंगतियों को तो अनावृत किया ही गया साथ ही जनपक्षीय शासन
व्यवस्था की आवश्यकता तथा उसके दायित्व की ओर लोगों का ध्यान भी आकर्षित किया
गया। मानव के अमानवीय एवं कुटिल ढोंगयुक्त कृत्यों पर चोट करते हुए उनके प्रति
जनाक्रोश पैदा करने में इन नाटकों ने सफलता पायी।
ब्रजेंद्र लाल साह ने लोक कलाकार संघ और पर्वतीय कला केंद्र जैसे प्रसिद्ध
सांस्कृतिक संगठनों के साथ मिलकर सांस्कृतिक आंदोलन को आगे बढ़ाने में अपना
अप्रतिम योगदान दिया। नई पीढ़ी को पर्वतीय लोक संगीत का प्रशिक्षण प्रदान कर उनका
सांस्कृतिक मानस तैयार किया । लोक को गहराई से जानने की ललक तथा उसमें पैठने की
चाहत उनमें पैदा की।एक ऐसा रास्ता उन्हें दिखाया जो अतीत से वर्तमान तक तो आता ही
है भविष्य की ओर भी ले जाता है। वे अपने आप में एक संस्था थे ।इस संबंध में शेखर
पाठक के ये शब्द बिल्कुल सटीक हैं- रचनात्मकता, प्रयोगशीलता, सीखने-सीखाने की ललक, निश्चलता, बात-बहस को महत्ता देना और इस सबसे आगे
लिखना, गाना-नाचना, हुड़का बजाना इतना सब संस्थाओं में ही होता है, व्यक्तियों
में नहीं – पर उनमें था।
ऐसे बहुमुखी प्रतिभासंपन्न
व्यक्तित्व के जीवन और कर्म को समग्र रूप में देखने का पहला स्पृहणीय प्रयास
जनपक्षधर साहित्यकार कपिलेश भोज ने उन पर अपना शोध ग्रंथ लिखकर किया । दूसरा किया इसको
संपादित रूप में नई पीढ़ी के सामने लाकर पहाड़ की टीम ने । लोक का चितेरा ब्रजेंद्र लाल साह नाम से सद्य प्रकाशित इस पहाड़ पोथी में लेखक ने ब्रजेंद्र लाल साह के व्यक्तित्व और कृतित्व को तो विस्तार से
उजागर किया ही है, साथ ही उनके पूरे समय और समाज को भी गहराई
से खंगाला है। एक तरह से कुमाऊं के पूरे सांस्कृतिक आंदोलन की विकास यात्रा को
देखा है जो अल्मोड़ा में विख्यात नर्तक कलाकार उदय शंकर द्वारा इंडिया कल्चर सेंटर की स्थापना किए जाने के बाद
मोहन उप्रेती एवं उनके कलाकार साथियों द्वारा यूनाइटेड
आर्टिस्ट अल्मोड़ा के गठन से प्रारम्भ होती है। उस आंदोलन
की विशिष्टताओं और सीमाओं को इस पुस्तक में सामने लाया गया है। इसी क्रम में
राष्ट्रीय स्तर पर चल रहे सांस्कृतिक आंदोलन की झलक भी प्रस्तुत की है। सांस्कृतिक
आंदोलन को लेकर इस पुस्तक में कपिलेश भोज
एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठाते हैं कि पचास के दशक में लोक कलाकार संघ से जुड़े
ब्रजेंद्र तथा उनकी पीढ़ी के प्रगतिशील संस्कृतिकर्मियों ने कुमाऊं के अल्मोड़ा शहर
में जिस सांस्कृतिक आंदोलन का सूत्रपात किया था ,उसका
विस्तार गांवों की ओर न होकर, अंततः दिल्ली महानगर में जाकर
क्यों सिमट गया? उनका
यह प्रश्न जितना लोकसंस्कृति या संस्कृतिकर्मियों के संदर्भ में प्रासंगिक है
उतना ही साहित्य या साहित्यकारों के लिए
भी। यह विडंबना ही कही जाएगी कि लोकसंस्कृति हो या फिर साहित्य उसका विस्तार गांवों
की ओर न होकर नगरों या महानगरों की ओर ही अधिक देखा गया है। यह बात भी अपने आप में
विचारणीय है कि यहां के संस्कृतिकर्मियों ने जनता से लोक अभिव्यक्ति की जिस धरोहर
को आत्मसात किया आखिर वह क्यों नहीं शोषण-दमन-उत्पीड़न -अभाव व नैराश्य से यहां
की जनता की मुक्ति का साधन बनी? जैसा कि आंध्र में जन नाट्य
मंडली का काम बना। कपिलेश मानते हैं कि ब्रजेंद्र के बाद की पीढ़ी में गिरीश
तिवाड़ी ’ गिर्दा‘ , बल्ली सिंह चीमा
आदि ने जनांदोलनों से एकरूप होते हुए जन-जागृति की दिशा में कुछ कदम आगे तो जरूर
बढ़ाये ,लेकिन सांस्कृतिक आंदेालन के लिए आवश्यक व्यापक व
व्यवस्थिति सांगठनिक ढांचे तथा सुनिश्चित कार्ययोजना के अभाव में असीम संभावनाओं
के बावजूद ये भी गतिरोध को तोड़ने में आगे नहीं बढ़ सके । लेखक की यह चिंता जायज़
है कि वर्तमान में कुमाऊंनी एवं गढ़वाली लोकसंस्कृति के संरक्षण व उसके उत्थान के
नाम पर विभिन्न संस्थाओं द्वारा जो सांस्कृतिक गतिविधियां संचालित की जा रही हैं, उनके पीछे न तो कोई व्यापक प्रगतिशील दृष्टि है और न ही वे बहुसंख्यक
जनता को प्रभावित करने की स्थिति में हैं । आज तो उत्तराखंड का शहरी व ग्रामीण
जन-जीवन पतनशील सामंती व साम्राज्यवादी अपसंस्कृति से आच्छादित हो चुका है।
हुड़का बजाते ब्रजेन्द्र लाल साह – नैनीताल समाचार |
आज उत्तराखंड के छोटे-छोटे क़स्बों तक में भी लोकसंस्कृति के संरक्षण एवं
संवर्धन के नाम पर महोत्सव आयोजित किए जाने लगे हैं, जिनमें लोक संगीत के नाम पर फूहड़ कार्यक्रम प्रस्तुत कर लोक संस्कृति को
बेचा जा रहा है। न इन महोत्सवों के आयोजकों को और न कलाकारों को लोक साहित्य व लोक
जीवन की कोई समझ है। उनके लिए महोत्सवों का मतलब मात्र मनोरंजन है। भीड़ जुटाना इन
महोत्सवों की सफलता का मानक माना जाता है। लोक संस्कृति उनके लिए धन कमाने का साधन
हो गई है। इसके लिए सरकारी कोश से धन लुटाया जा रहा है। क्या इस तरह लोक संस्कृति
को संरक्षित तथा सवंर्धित किया जा सकता है? कुछ इसी तरह के
हालात लोकगीतों के नाम पर लिखे जा रहे गीतों के हैं, जिनमें
लोकगीतों के नाम पर फिल्मों गीतों की पैरोडी की जा रही है। लोक का दुःख-दर्द, हर्ष-उल्लास, आशा-आकांक्षा ,जीवन-संघर्ष
और प्रकृति इन लोकगीतों में सिरे से गायब
होता है। कुल मिलाकर संस्कृति निर्माण की ताक़त जनता के हाथों से निकलकर
संस्कृति-उद्योग के हाथों चली गई है और जनता सम्मोहित होकर उसे देख रही है। ऐसे
में यह पुस्तक एक महत्वपूर्ण हस्तक्षेप है।
लोक साहित्य एवं संस्कृति को लेकर सामान्यतः दो तरह के अतिवादी दृष्टिकोण
दिखाई देते हैं – पहला,लोक साहित्य एवं
संस्कृति को भाववादी तरीके से देखना । लोक में व्याप्त लोक संस्कृति के हर रूप व
प्रवृत्ति को महिमामंडित करना । उसको अतिशय मोह से ग्रहण करना । लोक की हर
बुरी-भली चीज़ को बचाने और बढ़ाने की वकालत करना। दूसरा, लोकसाहित्य
को पिछड़ी मानसिकता से निकला हुआ बताकर उसे आधुनिकता के नाम पर पूरा का पूरा
नकारना। उसे भेड़ों के झुंड से निसृत मानना । कपिलेश इन दोनों अतिवादी दृष्टिकोणों
से बाहर निकलकर लोक साहित्य व संस्कृति का
विवेचन एवं विश्लेषण द्वंद्वात्मक एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण से करते हैं। उसके
प्रगतिशील तत्वों को उभारते हैं। वे साह जी की
इस बात से सहमत हैं कि लोकसंस्कृति सामाजिक चेतना का सबसे संवेदनशील बिंदु
है और इसलिए सामाजिक क्रांति का सशक्त माध्यम है। इस पुस्तक में भी हमें उनका यही
दृष्टिकोण दिखाई देता है। कपिलेश भोज ने यहां साह जी द्वार संकलित, रचित-पुनर्रचित साहित्य में लोक के प्रतिरोध के स्वर तथा उस आकांक्षा व
स्वप्न को रेखांकित किया है, जो समतामूलक समाज की स्थापना
करना चाहता है। उन उद्धरणों या अंशों को रेखांकित किया है,
जो सामंती व्यवस्था की क्रूरता को बताती हैं, समाज की
विसंगतियों पर प्रहार करती हैं तथा उसको बदलने के संकल्प को व्यक्त करती हैं। एक
उदाहरण यहां देखा जा सकता है- जिन्हें प्रेत आत्माएं कहकर
पूजा जाता / ग्राम्य -देवताओं में स्थान दिया जाता है/ वे भी तो हम ही जैसे मानव
थे / यह विडंबना भी कैसी है…..कैसे हैं हम लोग / इंसानों को जीवित जलवा ….सूली
देकर / और गोलियां दाग ….दाग कर / अपनी सभ्य करनियों का परिचय देते हैं/ फिर
रखते हैं उन्हें देवताओं की श्रेणी में /मूर्ति बनाते, पूजा
करते, मालाएं अर्पित करते हैं/ हां, हम धरती के मानव कितने महान हैं .. इसी तरह के और बहुत सारे उद्धरण हैं जिनमें उस समय में व्याप्त दमन, शोषण-उत्पीड़न, अन्याय-अत्याचार की झलक मिलती है। साथ
ही संगठित होकर संघर्ष करने की अपील भी। इससे लेखक की जनपक्षधरता एवं वैज्ञानिक
एप्रोच का पता चलता है। वे साह जी पर लिखते हुए किसी भावुकता या श्रद्धा में नहीं
बहते। ब्रजेंद्र लाल साह के कृतित्व का विश्लेषण
करते हुए इस पुस्तक में अन्याय के प्रति लोक का आक्रोश और न्याय के प्रति आशा और
संघर्ष का भाव जगह-जगह परिलक्षित होता है।
लोक साहित्य की विभिन्न विधाओं एवं लोक जीवन को समझने की दृष्टि से भी यह पुस्तक उपयोगी है।
एक तरह से लोक संस्कृति पर प्रगतिशील दृष्टि से एक विमर्श की शुरूआत है। ब्रजेंद्र
लाल साह द्वारा लिखित कुमाऊं के लोक साहित्य एवं वहां के प्रमुख लोक-गायकों से
संबंधित लेखों के विश्लेषण के बहाने पाठकों को इसके द्वारा कुमाऊं के लोकसाहित्य
और लोकजीवन को जानने -समझने का अवसर मिलता है। जीवनी लेखक ने इतनी कुशलता से यह विश्लेषण
किया है कि साह जी की रचनाओं का पता भी चल जाता है और कुमाऊं के लोक साहित्य की
व्यापकता एवं गहराई का भी । यह विश्लेषण बड़ा रोचक है। इसमें साह जी के जीवन-दर्शन
एवं दृष्टि का भी भान होता है। समीक्ष्य पुस्तक में ब्रजेंद्र लाल साह की रचनाओं
के विवेचन से कुछ निष्कर्ष निकाले गए हैं,
जो विचारणीय हैं –
क. लोक संगीत व लोक साहित्य के
विभिन्न प्रकारों एवं पक्षों तथा उनमें समाहित लोक-जीवन के बिंबों का समग्रता में
अध्ययन –विश्लेषण किए जाने की विशेष आवश्यकता है ।
ख. लोकगाथाओं एवं लोकगायकों के
धीरे-धीरे लोप होते चले जाने की वर्तमान स्थिति में लोक विरासत को संरक्षित करते
हुए उसका सृजनात्मक विकास एवं प्रचार-प्रसार किया जाना चाहिए।
ग. एकाकीपन, अभाव व आर्थिक विषमता से उत्पन्न लोक-अभिव्यक्तियों में परिलक्षित होने
वाली बेहतरजीवन की जनाकांक्षाओं को मूर्त रूप देने के लिए सामूहिक प्रयास किए
जाने की अत्यधिक आवश्यकता है।
घ. लोक -विरासत के संरक्षक
लोक-कलाकारों के परिचय एवं उनके महत्व को अधिकाधिक उजागर किए जाने तथा उनके विकास
के लिए उन्हें आवश्यक सुविधाएं उपलब्ध कराए जाने की भी आवश्यकता है।
कपिलेश भोज ने यहां ब्रजेंद्र लाल साह
के बहाने उनके समकालीनों और सांस्कृतिक संस्थाओं के योगदान का गहन विवेचन किया है। इस पुस्तक में हमें ब्रजेंद्र
लाल साह के अतिरिक्त मोहन उप्रेती, मोहन
सिंह रीठागाड़ी, गोपीदास, बृज मोहन साह,
गिरीश तिवाड़ी ’गिर्दा‘ आदि
संस्कृतिकर्मियों के योगदान की झलक मिलती है। साथ ही सांस्कृतिक आंदोलन में लोक कलाकार संघ और पर्वतीय
कला केंद्र की भूमिका का उल्लेख भी यहां मिलता है। उस प्रक्रिया का भी पता चलता है
कि एक बड़ा कलाकार बनने के लिए कितनी तैयारी एवं साधना की आवश्यकता पड़ती है? कैसे स्वयं को वर्गांतरित कर लोक में घुलना पड़ता है? इस पुस्तक से पता चलता है कि साह जी जो कुछ पा पाए या कर पाए उसके पीछे
उनका सरल-सहज हंसमुख स्वभाव, विनम्रता,
गहरी संवेदनशीलता, सहयोगी भावना, आशावादी
प्रगतिशील दृष्टिकोण ,अन्याय-अत्याचार-शोषण के प्रति आक्रोश, दृढ़ इच्छाशक्ति, धैर्य, सहनशीलता
आदि गुण रहे। कपिलेश भोज मानते हैं कि अपने इसी आडंबररहित, सरल-सहज
स्वभाव तथा जनसामान्य के प्रति गहरी संवेदनशीलता व लगाव के कारण ही वे शहर के
निवासी होते हुए भी ग्रामीण जनता में आसानी से घुल-मिल सके और लोकसंस्कृति की
दुर्लभ विरासत को आत्मसात कर सके। इसलिए यहां यह
कहना भी ग़लत नहीं होगा कि विवेकानंद और कार्ल मार्क्स की विचारधाराओं से
प्रभावित होने को साथ -साथ लोक के प्रति गहरी रागात्मकता के चलते ही सामान्य जन की पीड़ा के प्रति गहरी सहानुभूति, शोषक व उत्पीड़नकारी शक्तियों के प्रति आक्रोश तथा आम आदमी की दुःखदायी
जीवनस्थितियों को बदलने की तड़प उनके समूचे साहित्य में अंतःसलिला की भांति समा
पाई। इस संबंध में साह जी अपने उपन्यास ’शौलसुता‘ के बारे में बताते हुए कहते हैं – ‘जनमानस के गीतों
को आत्मसात करने से पूर्व जन-जीवन को आत्मसात करना परम आवश्यक है। मुझे विभिन्न
स्थितियों में अनेक ग्रामों में जन-साधारण के साथ घुल-मिलकर रहने का सुअवसर
प्राप्त हुआ, तभी मैं लोकमानस और लोक-जीवन का अघ्ययन कर सका
और एक भ्रमणशील बंजारे का जीवन जीकर अनेक सुखद और दुखद अनुभूतियों को अपने में संजो
सका और वर्षों के अंतर्मंथन के बाद यह रचना प्रस्तुत कर सका ।‘
महेश पुनेठा |
आज जब बाज़ार प्रायोजित मास कल्चर(समूह संस्कृति) द्वारा लोकसंस्कृति पर
आक्रमण किया जा रहा है, उसे भी बाज़ार की
वस्तु बनाया जा रहा है, लोक जीवन से काट तमाशा दिखाया जा रहा
है, उसमें फूहड़ता भरी जा रही है तथा उसकी गतिशीलता और
रचनात्मकता को कुंद किया जा रहा है – तब लोकसंस्कृति की ताक़त को समझने के लिए यह
पुस्तक बहुत उपयोगी हो जाती है । हर संस्कृतिकर्मी द्वारा जो संस्कृति कर्म को एक
सामाजिक दायित्व के रूप में करना चाहता है ,यह पुस्तक अवश्य
पढ़ी जानी चाहिए । सांस्कृतिक आंदोलन की दिशा में
आज जो शून्यता-गतिरोध की स्थिति आ गयी है उसमें यह पुस्तक और अधिक
प्रासंगिक हो जाती है। यह पुस्तक सांस्कृतिक आंदोलन की रिक्तता और दिशाभ्रम को
तोड़ती है तथा सांस्कृतिक आंदोलन में लोकसाहित्य की भूमिका को चिह्नित करती है। बताती
है कि लोक साहित्य का उद्देश्य जनता का मनोरंजन करना या अपनी सांस्कृतिक विरासत
के प्रति जानकारी बढ़ाना मात्र न होकर सामाजिक अन्याय व शोषण -उत्पीड़न के प्रति
संघर्ष चेतना विकसित करना तथा समतामूलक समाज की रचना करने के लिए प्रेरित करना
होता है।
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लोक का चितेरा ब्रजेंद्र लाल साह ,शोधालोचन- कपिलेश भोज , पहाड़ पोथी, परिक्रमा, तल्ला डांडा, नैनीताल – 263002 (उत्तराखंड)
यह किताब ज़रूर पढ़ना चाहूंगा. हिन्दी में लोक की जो पूरी अवधारणा है, उसे लेकर मेरी गहरी असहमतियां हैं. लोक = गाँव और बाहर = शहर जैसा सरलीकरण कभी नहीं पचा. आखिर मैं जिस शहर में रहता हूँ वह मेरा लोक क्यूं नहीं? कभी इस पर लंबा लिखने की इच्छा है.
अशोक मेरा भी यही सोचना और यही असहमतियां हैं…मैंने कल अनहद ब्लाग पर इससे जुड़ी लम्बी टिप्पणी केशव भाई की कविताओं के सन्दर्भ में की है…दरअसल अनिल के लेख ने जो नए सवाल उठाए हैं…उन्हीं की वजह से अनुनाद पर ये नया स्तम्भ शुरू हुआ…जब भी अपने विचार विस्तार लिख पाओ इस स्तम्भ के तहत उन्हें ज़रूर लगा देना…मैं चाहता हूं कि इस पर बहस हो…अब तक तो भाई लोग विमर्श में ही फंसे रहे हैं…
एक चर्चा बनती है. नाम याद नहीं आ रहा , एक अमरीकी (ब्लेक) गायक ने कहा था —
all songs are FOLK songs . HORSES can't sing .
साँस्कृतिक आंदोलन गावों की ओर न जा कर दिल्ली जैसे शहरों में क्यों सिमट गया के प्रश्न का उत्तर महेश जी के आलेख में ही है जब वह लोक संगीत के नाम पर भीड़ जुटाने और पैसा कमाने की बात करते हैं. आलेख में बहुत सी बाते हैं जिनपर जीवन भर बहस की जा सकती है, इसके लिए बहुत धन्यवाद.
यह तो नहीं कह सकता कि मुझे इस क्षेत्र में व्यक्तिगत अनुभव है लेकिन आधुनिक जनसंस्कृति जिसे विद्वान "फ़िल्मी" या "फूहड़" कहते हैं, मुझे कुछ कुछ वही बात लगती है जब सुसंस्कृति वर्ग गाँव के जनगीतों और जनसंस्कृति को "पिछड़ी गवारूँ" कहता था.
मेरे विचार में जनजीवन, उसके पास जो कुछ भी वातावरण हो, उसी से अपने अभिव्यक्ति के माध्यम खोजता है, और आज वह माध्यम फ़िल्मी गीतों या पेरोडियों में हो सकता है. संस्कृति का शौध करनेवाले के लिए, असली बात "पुराने" की चिंता और "आज" के आलोचना की नहीं, दोनो को समझने सँभालने की है.
नई पीढ़ी को यह सवाल सदैब कुरेदता हे कि लोक-साहित्य या कला का काल क्या हे, क्या उसे किसी सीमा में बाँधा जा सकता हे क्या उसका कोई भौगोलिक दायरा और समाज-विशेष के लिए प्रासंगिकता हे ? लगता हे कि यही सब बातें इस किताब में होंगी, जरुर पढूंगा
bahut sundar shandar prayas hai safalata aapke kadamo ke tale aaye..
bilkul sahi vishleshan kiya hai aapne …darasal jab kalaaon me bazaevaad ki ghuspaith ho jaati hai to uski maulikta ko jabardast khatre ka samna karna padta hai ..aur aj ke bhautikvaadi samaz me bina bazarvaad ke kisi kalaa ko sanrakshit to kiya ja sakta hai par use aage badhana kafi mushkil lakshy hai …koi bhi bahut lambe samay tak is upekshit kary ko nahin karna chahta jiska koi pratidaan n mile ..fir bhi aaj aise logon ki aur is samajh ki hame bahut jaroort hai ..ek aur baat ..yadi ham pashchim ki nakal karte hain to hame unse apni sabhyta-sanskriti, kalaa ityaadi ko n sirf bachaye rakhne balki unhen nirantar aage badhate rahne ki koshishon se sabak seekhna chahiye …kyonki apni jadon se katkar ham kabhi bhi aage nahin badh sakte …!!
सुंदर आलेख।