अनुनाद

गीत चतुर्वेदी की कविता

कवि-साथी गीत की लम्बी कहानियों पर पिछले दिनों चले उतने ही लम्बे आलाप में गिरह की तरह प्रस्तुत है उसकी एक शानदार कविता, जो मुझे बहुत पसंद है और मौजूदा परिदृश्य में काफ़ी प्रभावी भी।

फ़िज़ूल
(राजेश जोशी के लिए)

हम उन शब्दों का दर्द नहीं जान सकते
जिन्हें हमने कविता में आने से रोक दिया

हमने कुछ क़तारें बनाई कोई लम्बी कोई छोटी
हम नहीं चाहते थे कि सब एक जैसी दिखें
हम तीन-चार छोटी क़तारों के बाद एक लम्बी क़तार रख देते
दूर से ही पता चल जाता उन क़तारों में कुछ लोग हैं
जो फ़िज़ूल हैं चुहल कर रहे हैं उचक रहे हैं
डिस्टर्ब कर रहे हैं आसपास के लोगों को
देखो तो उनकी ध्वनियाँ भी कितनी फूहड़ हैं

हमने उनसे विनती की
जो बहुत मज़बूत थे और जगह छोड़ने को राजी नहीं
उनके हाथ जोड़े
जो बेहद कमज़ोर थे
उन्हें धकिया कर बाहर किया

इस तरह बनी एक सुन्दर दुनिया
और एक सुघर कविता

फ़िज़ूल लोगों और फ़िज़ूल शब्दों को
कविता और क़तार से बाहर
रात में एक साथ भटकते देखा जा सकता है।*

– – –
*जैसे कि अभी रात एक बज कर कुछ मिनट पर जब मैं यह पोस्ट लगा रहा हूँ तो जीमेल में मेरे साथ अनुराग वत्स और गीत, दोनों के बत्ती हरी दिख रही है.

0 thoughts on “गीत चतुर्वेदी की कविता”

  1. कविता की कला पर कविता ? अद्भुत.
    अभी कुछ दिन पूर्व हिमालय की सैर करते करते वरिष्ठ कवि ऋतुराज जी केलंग पहुँच गए थे. उन ने मुझे बताया कि अच्छी कविता वह होती है जिस मे कविता का एक छोटा सा ज़िक़्र भी न आए. मैने बहस की – यदि वह आ ही जाए कविता में तो ?( मेरी कविताओं मे तो आ ही जाती है ) उने कहा कि तो उसे हटा दीजिए …. कविता मे कविता शब्द ही फिज़ूल है.
    वैसे अंत मे ऋतुराज जी ने स्वयम को असफल कवि भी स्वीकार किया.

  2. @अजेय जी.. हमारे यहाँ के एक वरिष्ठ कवि भी यही कहते हैं कि जब दूसरे विषय दिखाई देने बंद हो जाते हैं तब कविगण काव्यकला , कविता, कविता की पंक्तियाँ, उनके बीच की जगह.. आदि आदि पर लिखना शुरू कर देते हैं. लेकिन गीत तो युवा हैं , उम्मीद करें कि उनसे अभी हिन्दी को काफ़ी कुछ मिलना है.

    शिरीष जी विशेषण लगाने में काफ़ी उदार हैं.

    अब शब्दकोष के सारे शब्द तो आ नहीं सकते कविता में… न सारे लोग… तो भाई यह तो अनिवार्य परिणिति हुई फ़िजूल शब्दों की और फ़िजूल लोगों की . भटकने दीजिए बेचारों को.

    शायद ऐसा होता हो की एक कवि को जो शब्द और जो लोग फ़िजूल मालूम पड़ते हों उन्हें रात में उन्हीं की तरह भटकता ऐसा कवि मिल जाता हो जिसे कवियों की कतार फ़िजूल मानती हो , फिर वह फ़िजूल सा कवि उन फ़िजूल से लोगों/ शब्दों से कोई फ़िजूल सी कविता लिखता हो जिसे फ़िजूल से लोग पढ़ते हों… महेश वर्मा, अंबिकापुर, छत्तीसगढ़.

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