आज दोपहर
मेरे जीवन के भीतर एक औरत चली जा रही थी
गुस्से में
अपने चार साल के बच्चे के साथ
बच्चे के कंधे पर बस्ता था
बस्ता चार किलो से ज़्यादा था
किताबें भारी थीं
भारी था उत्तरआधुनिक ज्ञान
औरत का मन भी हल्का नहीं था
पर उन किताबों में औरत के मन का ब्यौरा नहीं था
तब भी बच्चे ने कहा –
मम्मा अब मैं अच्छा बच्चा बनूँगा
औरत अब सुबक पड़ी थी
और बच्चे से बस्ता मांग रही थी
बच्चा फिर कह रहा था अब मैं अच्छा बच्चा बनूँगा
औरत फिर सुबक रही थी
आंसू दिखाई देने लगे थे
वह उन्हें पोंछ रही थी
घर थोड़ा आगे था
घर के रास्ते में सीढ़ियां थी बहुत सारी
बच्चा हांफते हुए उन्हें गिन रहा था
औरत हालांकि बस्ता नहीं उठा रही थी
फिर भी थकी हुई थी
पसीने से भीगी
मेरे जीवन के भीतर वह औरत थी
अपने बच्चे के साथ
घर के भीतर जाती हुई वह मानो जीवन से
बाहर जाती थी
जहां वह बच्चा था कहता हुआ अब मैं
अच्छा बच्चा बनूँगा
जहां वह औरत थी आंसू पोंछती बच्चे से
बस्ता मांगती
ग़लत थी या सही
बढ़िया थी या घटिया
उसे होना चाहिए था या नहीं
पर ठीक वहीं
मेरी कविता थी
बगटुट भागती
रास्ते पर उसे कुछ कुत्ते खदेड़ते थे
जिन्हें मैं पुचकारता
अचानक ही ख़ुद को कवि मान बैठा था !
***
25.06-2010
… bahut khoob !!!
शिरीष की कविताएं जब भीतर जातीं हैं तो भीतर के तमाम रूखेपन को अकड़ेपन को , *ज़ंगलगेपन* को तर करती चली जाती है …अपने भीतर एक रुलाई पैदा करती है जो अंतत: आप को सहज स्वभविक तल पर ले आती है.एक सफल कविता और क्या होती है? सुबह सुबह थेंक्स, भाई.
अजेय ने सब कह दिया भाई…
मैं बस बधाई दे देता हूं
कविता तो अच्छी है . मध्यवर्गीय संत्रास को गहराई से व्यक्त कर रही है, परंतु प्रेम कविता में किधर है. माँ में या बच्चे या फिर …..
ऐसी कविताओं की एक सूची बनती है जिसमे शिरीष कविता के कर्त्तव्यों की बात करते हैं लेकिन वह कभी भी कविता के बारे में कविता नहीं लिखते. यों, वह दोनों मुद्दों में एक बार फिर फ़र्क़ पैदा कर देते हैं. शोर-शराबे के बीच यह कविता एक बेहद क़िस्म की ख़ामोशी के साथ ज़ाहिर होती है और ऐसे सत्र में, जब ख़ामोशी की मुद्राएँ भी हमारे इर्दगिर्द पर्याप्त चीख़-पुकार मचा रही हैं.