कल वाले कल के पहले वाले कल ही सोच लिया जाना चाहिए
यह सोचते हुए कल सोचा कि
कल कविता की वह किताब पढ़ूंगा
दफ़्तर जाने के पहले – किसी लावारिस वक़्त में
दूबे जी से मिलना
क्या आज ही ज़रूरी है
कल न भी मिलें
तो क्या
इस तरह तो कविता वाली वह किताब
कब पढ़ी जाएगी ?
अक्षरों और आंखों के बीच तरंगित दूरियों को फलांग कर
आई आवाजों से
लड़ते हुए
पढ़ते हुए कविता की किताब
सुना मैंने –
बेटा कुछ कह रहा था मम्मी से….
दबा कर दाँत मम्मी नें कहा, सुना जो मैनें-
वह नहीं था जो-
मम्मी नें कहा था
मैं अपनी आशंका को सुन रहा था मसलन
पैसा
ख़रीद फ़रोख्त
दोस्त से मिलने की मुश्किलात
मोटरसाइकिल में पेट्रोल
महीने की तारीख़ आदि जैसा कुछ
सुनाई दिया
यह डर भी कि
भड़क जाएगा लड़का
तंगहाली पर तड़क जाएगा
तन गया तनाव
कविता वाली किताब पढ़ते हुए कविता
खिसक गई कोने में
खाली कर दी जगह
दुख और अभावों और आशंकाओं का अंधकार
बैठ गया जम कर जहां
बैठी थी कविता
अभी, बिलकुल अभी, कुछ देर पहले
इसी डर और तनाव और नफ़रत और डर और संकोच से भरे
वक़्त में
मैं पढ़ रहा था कविता वाली वह किताब
दफ़्तर जाने के पहले के लावारिस वक़्त में
खोज रहा था बचपन का छूटा हुआ
`फिसलपट्टी´ पर चढ़ने उतरने का खेल
कविता की किताब में
जबकि
डर और आशंका और अभाव से भरा
किताब का `बाहर´
बदल दे रहा था मेरा `भीतर´
बार-बार पढ़ते हुए
कविता की किताब !
इस तरह पढ़ी गई
कविता की किताब
पाटा गया दफ़्तर जाने के पहले का
लावारिस समय
खेला गया फिसलपट्टी का खेल
वक़्त के कूबड़ पर बिठाई गई
कविता
उछाली गई
दफ़्तर जाने से पहले
कहा गया – सिद्ध हुई
कविता की ताक़त
अपराजेय!
बहुत सुंदर कविता।
सचमुच अपराजेय रही कविता !!!!
जिन्दगी की कविता पढ़ते पढ़ते ही बीत जाती है जिन्दगी
मगर कविता पूरी नहीं होती
'कविता की किताब पढ़ते हुये कविता खिसक गई कोने मे '' जीवन की तमाम विसंगतियों से जूझना भी तो कविता लिखने जैसा ही है ? कविता की किताब मे ही थोड़े न होती है कविता ? कवि का आभार की उन्होने कविता का विस्तार किया और उसे जिया .
सचमुच अपराजेय रही कविता !!!!
शिरीष भाई ये गोरखपुर वाले कपिलदेव जी की कविता है न?