अनुनाद

हिन्दी सीझ रही है मनुज की आत्मा में – मंजुला बिष्‍ट की कविताऍं


     कवि ने कहा     
मेरे लिए लिखने की तलब क्या है..इस प्रश्न को मैं ख़ुद से करती रहती हूँ।आख़िर क्या जरूरत है घड़ी के दो काँटों के बीच भागते कालांश से अपने हिस्से का चुराया अलभ्य एकांत कलम को सहर्ष सौंप दिया जाए?क्या जरूरत है अनेक खोजी प्रश्नों का सामना करना कि अपने अनुभूत सुख-दुःख व आत्मिक- सँघर्ष को शाब्दिक-रूप क्यों दिया जाये?

इन तमाम सुने-अनसुने प्रश्नों के उत्तर की अनुगूँज हमेशा एक ही होती है:–आख़िर कब तक ख़ुद से बातें करके उकता जाऊँ,क्योंकि इस व्यस्ततम जीवनशैली में मेरी मौन लिपि केवल कलम-कागज़ को ही त्वरित व स्पष्ट समझ आती है।कितनी देर तक आपबीती व जगबीती के मध्य जद्दोजहद करती हुई स्वयं को लड़खड़ाने से बचाती रहूँ।कितनी बार समझाऊँ कि लिखकर ही ,आत्ममुक्त होकर ही तो गाढ़ी नींद नसीब होती है,इस देवदुर्लभ जीवन के रहस्यों को देखने का साहस कर पाती हूँ। यही क्षणिक साहस मेरी कविताओं की पूर्वपीठिका है 

ऋतुओं की संख्या से गिने जाने वाले इस कालचक्र में किसी भी पत्थर से तीसरी ठोकर न खा सकूँ,इसी प्रयास में जीवन-रख के पास खड़ी हूँ।और मुझे अनुभवी सारथी की नहीं..देश-दिसावर ऋतुओं की चाहनाओं में एक दिकसूचक की खोज है। यह दिकसूचक मुझ जैसे निहत्थे के लिए एक कुशलतम हथियार जो है।सबसे ख़ुशी व सुकूँ की बात यह है कि यह कुशलतम हथियार …ब्रह्मांड में बिखरी वे तमाम अनुभूतियाँ हैं,जो कविताओं के रूप में बेखटके मुझसे मिलने चली आती हैं।उनसे मिलकर दिग्भ्रमित हुई ऊर्जा,सकारात्मकता व जिजीविषा लौटने लगती है।



बाँस में पुष्प खिलना


वे मनुष्य
सर्वाधिक कोमल रह पाए थे
जो स्वयं को सोचने भर से
छुईमुई बन जाने के अभ्यस्त हो चुके थे

जो बार-बार निर्बल सिद्ध होने लगे थे
स्वयं की नज़रों में
आखिरकार उन्होनें
एक दिन
स्वयं को लिखकर उसे सार्वजनिक किया

जो बने रह पाए थे सबल
बनिस्बत उनके
जिन्होंने लिखा…मगर
उसे किताबों के मध्य रखकर भूल गये

सबसे कठोर वे सिद्ध हुए
जिन्होंने दूसरों के शब्दों को भटकाकर
समय से दुरभि संधि की
और लंबे अवकाश पर चले गये

फ़िर एक दिन..
कोमल व सबल मनुष्यों ने भी
शब्दों से उठते ख़मीर को धूप दिखाई
उन्हें ताम्बई किया व बारिश में भीजने दिया
पीतवर्णी भी हुए तो
अल्पावधि के लिये ही ;

क्योंकि वे जान चुके थे
रहस्य इस भाव-सम्पदा का
कि स्वयं को लिखते जाना
कमज़ोर पड़ते हृदय की सबसे बलिष्ठ भाषा है
गूँगी जिह्वा की अति संवेदी वाचाल ग्रन्थियां हैं

हालाँकि वे सब अवगत हो चुके थे
इस महा-रहस्य से भी 
कि शब्दों को सार्वजनिक करने से
स्वयं के भीतर 
बाँस में पुष्प खिलने की घटना भी हो सकती है!


निषिद्ध अनुनय

एकांत में
रोने का सबसे अहमक तरीका यह है
चीखे इतनी जोर से
कि आत्मा न्यूनतम रीत जाये
लेकिन बगलगीर दीवार भी बेख़बर रहे;
नही,नहीं !
मैंने किसी को कपड़ा मुँह में ठूँसकर रोने की सलाह बिल्कुल न दी है।

महफिलों में
हँसने की सबसे संकोची घटना वह है
मद्धम लय में ऐसी हँसी झरती रहे
कि आप देहातीत हो खिल उठें
लेकिन निराशा को भी गफ़लत होती रहे
उसके दुःखों पर हँसना अभी भी अभेध काम है;
नहीं,नहीं!
मैंने अट्टहास पूर्व किसी गलदश्रु की तरफ पीठ करने को नहीं कहा है।

नफ़रतों के मध्य
प्रियस बनने का सबसे निष्ठुर प्रयास यह है
प्रेम करें इतना मंदबुद्धि होकर
कि स्वयं की पहचान के प्रति भी कौतुक बनें रहें
भूखा-प्यासा भेड़िया आपको हमशक़्ल न पुकारे कभी
नहीं,नहीं
मैंने आपको प्रेम में अधिक शील-नागरिक होने की विनती नहीं की है।

शिक्षालयों में
बेस्ट-टीचर अवार्ड को चूमने से पहले
उठा लें एक बहिष्कृत छात्र का झुका सिर
रोक दें किसी चपल मासूम की तरफ
आपके मार्फ़त फुसफुसाए हतोत्साहन मन्त्र को;
नहीं,नहीं!
मैंने आपको व्यक्तिगत कुंठाओं तज अधिक शिक्षित होने को ताक़ीद नहीं किया है।

वाचनालयों में
सर्वविदित कृति की उबाऊ प्रतीक्षा से पहले
उस दराज़ की तरफ़ अवश्य टहल आएं
जहाँ किसी पदचिह्न अंकित होने की सूचना न हो
सृजन की उन बन्द यज्ञशालाओं पर वातायनों से रोशनी न गिरी हो
नहीं,नहीं!
मैं अपठित रही अभिव्यक्तियों हेतु सदाशय बने रहने की गुंजाइश नहीं बता रही हूँ।


हिंदी सीझ रही है


नयी हिन्दी बनाम पुरानी हिन्दी
के बीच भाषा की आत्मा
कहीं लय-ताल न खो दें

क्या इतना काफी नहीं है
भाषा के आलोचकों व पुरोधाओं के लिए
कि हिन्दी खूब बोली जा रही है
लिखी जा रही है..समझी जा रही है
पुराने बासमती चावल सी;
हिन्दी सीझ रही है मनुज की आत्मा में

भाषा का नमक चढ़ने दो
उसके मनमाफ़िक पाठकों तक
उस पाठक तक
जो,सिर्फ हिन्दी को जानता-पहचानता है
उसकी आयु को नहीं ;
यह हिन्दी उसकी पुरखों की आदिम वाणी है
इसे बार-बार फूटने दो,बहने दो,लौटने दो

रह जाये इतनी पहचान व ठसक
अपनी हिन्दी की
कि इसकी सभा-चौपालों में
आने वाले के कांधे में
अगर नमकीन अंगोछा हो
या झूलती हो कोई सुगन्धित विदेशी टाई
तो भी मंच पर कोई परायी अकबक़ाहट न हो

बस,
उसके मुँह से जब नेह बरसे
गझिन आत्मीयता से
या फूटे कोई आक्रोश भी ;
उस बोली की त्वरा व तेवर
अपनी हिन्दी का हो
भले ही वह किसी भी जनपद की हो
टूटी-फूटी या मिश्रित ही सही
सोंधी न सही खाँटी ही भली!
अनबुझी रह जाये तो कोई बात नहीं
अनसुनी रह जाये तो मलाल नहीं

देखना!
हिंदी की आत्मा
अपनी खूंटी से रंभाती गईया की तरह
अपना नाम
हर बोली में पहचान ही लेगी।


आश्रयहीन मैं


जब पिता गए
तो अनायास सौंप गए
माँ को
मेरा बचपन..मेरी विस्तीर्ण दुनिया

लेकिन
जब माँ गयी,तो
छीन ले गयी
वे सभी ठियां
जहाँ मैं भरपूर बसती थी
अपनी परिपक्वता में,अपनी नादानियों में

वह बसावट ही
मेरा तीन-चौथाई संसार था
अब इस बचे हुए एक-चौथाई खण्ड में
कहाँ पग धरु..कहाँ से पलटू मैं

कल्पनातीत है
माँ के छोड़े जाने पर
इतनी क्रूर-दारुण हो सकती है
मेरी वह पूर्व-दुनिया !


सिकुड़ा अँगूठा


पहाड़ काटकर
वर्तमान में रोज़गार
व भविष्य के सुगम हाईवे तैयार किये जा रहे हैं

चौड़ी..और चौड़ी होती सड़क के किनारे
आस-पास बचे दो पेड़ों की डालियों के बीच
साड़ी के टुकड़े में रख छोड़ा
एक अधनंगा शिशु
चटकते आसमान में पुरखे तारों से खेल रहा है
उसने अपनी भूख को शांत करने के लिए
मैला अंगूठा मुँह में फंसा रखा है

सिर पर तसला रखती उसकी माँ के लिए
बार-बार उस तक पहुँचने से पहले
ठेकेदार की ओर देखना जरूरी है
और ठेकेदार अपने हाज़िरी-रजिस्टर में
कुछ ज्यादा झुका है

महीने का अंत जो नज़दीक है!
उसके फैले हुए आर्द्र-हाथ बार-बार
जेब की तरफ चले जाते हैं

लेकिन आश्चर्य !
हाथ की मुट्ठी बनती ही नहीं
मुट्ठी खुली रह जाती है
हर बार ही

माँ जानती है
अगर वह सीधी राह न चली तो
नये माह की शुरुआत में
अपने लिए एक नयी सड़क
व उसके शिशु हेतु
दो बचे पेड़ फिर खोजने होंगे

एक तरह से
वह और ठेकेदार
अपनी-अपनी आदिम-लकीर को पीट रहें हैं
और शिशु भी
अब अपनी भूख लगने के समय को पहचानने लगा है

माँ का ध्यान इस तरफ़ नहीं जाता है कि
चूसते रहने से
शिशु का अंगूठा सिकुड़ जाएगा

उसने अपने हक़ में
एक यक़ीन पुख़्ता किया हुआ है कि
हाज़िरी-रजिस्टर में सिकुड़े अंगूठे ही देर तक छपते रहते हैं
जिद्दी अंगूठे तो पलायन को विवश है।
***

परिचय

मंजुला बिष्ट
स्वतंत्र -लेखन। कविता व कहानी लेखन में रुचि।
उदयपुर (राजस्थान)में निवास
हंस ,अहा! जिंदगी,विश्वगाथा ,पर्तों की पड़ताल,माही, स्वर्णवाणी, दैनिक-भास्कर,राजस्थान-पत्रिका,सुबह-सबेरे,प्रभात-ख़बर समाचार-पत्र, समालोचन ब्लॉग,हस्ताक्षर वेब-पत्रिका ,वेब-दुनिया वेब पत्रिका, हिंदीनामा ,पोशम्पा ,तीखर पेज़ व बिजूका ब्लॉग में रचनाएँ प्रकाशित हैं।

0 thoughts on “हिन्दी सीझ रही है मनुज की आत्मा में – मंजुला बिष्‍ट की कविताऍं”

  1. मंजुला जी की कविताएँ पहले भी पढ़ चुका हूँ|पाँचों कविताएँ मन को छू लेने वाली बेहतरीन कविताएँ हैं| मंजुला जी को बधाई और इन सुन्दर कविताओं के लिए अनुनाद का आभार|
    R.B.Chhetri.

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