अनुनाद

दहलीज़ : ५ / कवि-कर्म : प्रतिभा और अभिव्यक्ति-१ /शमशेर बहादुर सिंह

इस पोस्ट पर आ रही टिप्पणियों को देखते हुए इसकी तारीख आगे बढ़ा दी गई है। सबसे यही प्रार्थना है कि तनिक संयमित रहते हुए पोस्ट की विषयवस्तु तक ही अपने को सीमित रखें। स्वस्थ बहस से स्वस्थ राह निकलती है, ऐसा मेरा मानना है।

-शिरीष

नए कवियों के लिए शमशेर का गद्य
मेरी यह मान्यता है कि हिन्दी का कोई भी नया कवि अधिक-से-अधिक ऊपर उठने का महत्त्वाकांक्षी होगा, उसे और सबों से अधिक तीन विषयों में अपना विकास एक साथ करना होगा.
1
उसे आज की कम-से-कम अपने देश की सारी सामाजिक , राजनीतिक और दार्शनिक गतिविधियों को समझना होगा. अर्थात् वह जीवन के आधुनिक विकास का अध्येता होगा. साथ ही विज्ञान में गहरी और जीवंत रुचि होगी। हो सकता है इसका असर ये हो कि वो कविताएँ कम लिखे , मगर जो भी वह लिखेगा व्यर्थ न होगा।
2
संस्कृत , उर्दू , फ़ारसी , अरबी , बँगला , अँग्रेज़ी और फ्रेंच भाषाएँ और उनके साहित्य से गहरा परिचय उसके लिए अनिवार्य है। ( हो सकता है कि उसका असर ये हो कि बहुत वर्षों तक वह केवल अनुवाद करे और कविताएँ बहुत ही कम लिखे या बहुत अधिक लिखे जो नक़ल-सी होगी , व्यर्थ सिवाय मश्क के लिए लिखने के ; या कविताएँ लिखना वो बेकार समझे ) । इस दिशा में अगर वह गद्य भी कुछ लिखेगा तो वह भी मूल्यवान हो सकता है।
3
तुलसी, सूर, कबीर, जायसी, मतिराम, देव, रत्नाकर और विद्यापति को, साथ ही नज़ीर और मीर, ग़ालिब, दाग़, इक़बाल, ज़ौक और फैज़ के चुने हुए कलाम और उर्दू के क्लासिकी गद्य को अपने साहित्यगत और भाषागत संस्कारों में पूरी-पूरी तरह बसा लेना इसके लिए आवश्यक होगा। कला के विभिन्न अंगों के बारे में उसकी जानकारी उतनी ही गहरी होनी होगी, जितनी छंद के बारे में, स्टाइल के बारे में। सबसे बड़ी चीज़ ये कि वह विनम्र होना सीखेगा, उसका व्यापक और गहरा अध्ययन स्वयं उसको सिखायेगा, अपनी भाषा, संस्कृति और विशेषकर अपने को लेकर। ये बातें मैंने आज नहीं, कल के होनेवाले महाकवि के लिए ज़रूरी समझी हैं। साधारण रूप से केवल अच्छे और केवल बहुत अच्छे होनेवाले कवियों को इन लाइंस पर, इन चीज़ों पर सोचने की बहुत आवश्यकता नहीं। इनको ये चीज़ें भटका भी सकती हैं और अभी 10-20 साल तक इन चीज़ों का ज़िक्र करना भी एक फ़िज़ूल-सी बात है। हर दृष्टिकोण के लिए एक पृष्ठभूमि और वातावरण होता है, वो अभी चौथाई सदी बाद आयेगा। बल्कि मुझे अणुमात्र भी संदेह नहीं की वो अगर हम अणुबमों के युद्ध में ख़त्म न हो गये, तो वह आकर रहेगा। तब तक भाषा-साहित्य और ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा-पद्धतियाँ बदल चुकी होंगी। और उनके उसूल क्रांतिकारी परिवर्तन के बिना नया महाकवि और महान कलाकार सहज ही जन्म न ले सकेगा . अस्तु—–
असल में महान प्रतिभा अनुभूतियों के गहरे स्तरों तक पहुँचने में स्वयं सक्षम हो जाती है। जो कार्य औरों के लिए असंभव और अत्यंत दुरूह होते हैं, वह उसके लिए सहज ही द्रुततम विकास का आनंद देनेवाले हैं। कुछ—-के सामान हैं, इसीलिए यह प्रत्यक्ष है। उपर्युक्त दिशाओं में विकास का प्रयत्न आज हमारे लिए उचित ही नहीं, बल्कि उपहासास्पद भी लग सकता है, कवि के दृष्टिकोण से। अभी तो हम पंजाब में हिन्दी रक्षा आन्दोलन जैसे तंग दौर से गुज़र रहे हैं, जो काशी की तंग गलियों से भी कहीं अधिक तंग और सँकरा है, अभी तो अराजकता ( मोटे तौर से जिसे प्रयोगवाद कहा जा सकता है ; इसमें अपवाद भी है काफ़ी ) ने हमें गहरे धुंधलके में डाल रखा है।
भाषा की अवहेलना किसी भी रचना को सहज ही साहित्य के क्षेत्र से बाहर फेंक देती है और शिल्प की अवहेलना कलात्मकता के क्षेत्र से। अब तक शिल्प व भाषा की साधना में जो कुछ प्राप्त हो चुका है, उससे अज्ञान अक्षम्य है। उसी को दोहराकर प्रस्तुत करना कोई माने नहीं रखता। उससे आगे जाने का संघर्ष ही सजीव साहित्य—–और सफल कविता कहलाई जा सकती है, जो बहुत दिनों याद रखी जा सके। मुक्त छंद और गद्य में कविता लिखनेवाले को छंद और गद्य के सौन्दर्य से अच्छी तरह परिचित होना चाहिए। मुहावरे की ग़लती मैं अक्षम्य मानता हूँ।
मेरा ख़याल है की अब तक के रचे साहित्य में बहुत कम ऐसा है, जो क़ायम रहनेवाला है, इसका महत्त्व ऐतिहासिक ही रहेगा, जीवंत नहीं। जीवंत साहित्य में निराला, कुछ पन्त, नरेंद्र और थोड़ा-सा बच्चन, कहीं-कहीं से थोड़ा-सा मैथिलीशरण, फुटकर चीज़ें औरों की; बचा यही रहेगा, बाक़ी लोकगीत के श्रेष्ठ पद होंगे। जिनके अध्ययन और प्रचार की तरफ़ विशेष ध्यान देना होगा और साथ ही उर्दू का ख़ासा हिस्सा उस समय ज़िंदा होगा और पिछ्ला रीतिकाल का भी, इसके अलावा महाकवि नवरत्नों के उर्दू और हिन्दी का साहित्य एक हो जायेगा, गद्य उर्दू के अधिक निकट होगा, बहुत कुछ बदलेगा, अँग्रेज़ी, फ्रेंच, रूसी, चीनी, फ़ारसी, अरबी, बंगाली, जर्मन हमारे लिए अत्यंत आवश्यक भाषाएँ हो जायेंगी और इनके सीखनेवालों के लिए ये विषय सबसे आसान होंगे। भाषाशास्त्र एक अनिवार्य विषय होगा, जिसकी शिक्षा-प्रणाली कल्पनातीत रूप से आज से भिन्न होगी। यह सब जभी संभव होगा ——ले सकेगी और अपना भविष्य अपने आदर्शों के अनुरूप बना सकेगी।
****
(‘कुछ और गद्य रचनाएँ ‘ से साभार )
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विशेष : यशस्वी कवि शमशेर बहादुर सिंह ने अपने समय में आनेवाले कवियों के लिए—–एक बड़ी रचनात्मकता की ख़ातिर—– अपने ख़ास शाइस्ता , संजीदा , संवेदनशील , वैज्ञानिक और सौन्दर्यात्मक अंदाज़ में कुछ बेहद अहम दिशा-निर्देश किये थे . आज यह सब हमारे लिए एक अमूल्य दस्तावेज़ की मानिंद है . इसलिए और भी की आज ऐसी कोशिशें करता कोई नज़र नहीं आता . ‘दहलीज़ ‘ के पाठकों के लिए इस बार प्रस्तुत है , शमशेर के इस व्यवस्थित , लिखित और समावेशी प्रयत्न का एक हिस्सा .

सर्वर के कारण इस पोस्ट पर पंकज चतुर्वेदी की टिपण्णी बाक्स में नहीं जा पा रही इसलिए इसे यहाँ पोस्ट किया जा रहा – शिरीष

प्रिय दोस्तों , इस पूरी बहस में शिरीष भाई दो बार आये हैं और दोनों बार उन्होंने बीच-बचाव की भूमिका का वरण किया है ; जो व्यक्तिशः मेरे लिए एक दुखद मामला है. पहली बार उन्होंने लिखा था कि गिरिराज जिस विडम्बना की बात कर रहे हैं , वह भी सही है और धीरेश जिस विडम्बना की बात कर रहे हैं , वह भी सही है . इस बार उन्होंने हमें यह याद दिलाया है कि किराडू जी हमें ‘प्रतिलिपि’ में छाप चुके हैं . हाँ , अगर सिर्फ़ अपनी बात करूँ , तो वह मुझे एकाधिक बार छाप चुके हैं और क्या इस बात का इज़हार ज़रूरी है कि मैं उनके प्रति कृतग्य हूँ ? ठीक उसी तरह , जैसे कि शिरीष जी ने मुझे ‘अनुनाद’ का सह-लेखक बनाया , तो मैं उनके प्रति भी कृतग्य हूँ . और मेरी ये क्रितग्य्तायेन जीवन-भर चलनेवाली क्रितग्य्तायेन हैं , सम्बन्धों में आनेवाले उतार-चढ़ाव से क्षरित होनेवाली नहीं हैं . लेकिन इन बातों को बहस , आलोचना या मूल्यांकन के आड़े क्यों आना चाहिए ? शिरीष ने धीरेश को भी ‘अनुनाद’ का सह-लेखक बनाया है , मगर उनका ताज़ा कमेन्ट गवाह है कि उनके पास धीरेश के latest कमेन्ट को पढ़ने का समय ही नहीं था ! वह कमेन्ट , जिसमें धीरेश ने , अगर उनसे कोई ग़लती हुई है , तो उसको realize करते हुए दुःख भी व्यक्त किया है . मगर फिर उन्होंने यह सवाल किया है कि किराडू जी कृपया साफ़-साफ़ बताएँ कि शमशेर को आखिर अपने समय में किन साहित्यिक-राजनीतिक शक्ति-केन्द्रों का दबाव सहना पड़ रहा था , जिसके मद्देनज़र उन्होंने ‘कवि एक तोता है ‘ लिखा ? किराडू जी का हाल यह है कि ‘तोता’ तो वह बहुत उत्साह और ख़ुशी से पकड़कर हमें दिखाने लाये थे और उन्होंने दिखा भी दिया ; मगर उसकी पृष्ठभूमि बताने में , न जाने क्यों , उन्हें भारी हिचकिचाहट है . अगर इतना संकोच या अनिश्चय था , तो वह उत्साह क्यों था ? अब अमूर्तन से उबरने और स्पष्ट बात करने के हमारे आमंत्रण पर वह और भी अमूर्त और अस्पष्ट हो गये हैं ! उन्होंने पूरी बहस से कन्नी काटते हुए लिखा है कि ‘शमशेर का इशारा शीत-युद्धरत विश्व के दोनों ही पक्षों की ओर हो सकता है .’ क्या यही “वाम के कोमल विरोध और आधुनिकता के मिश्रण से पैदा हो रहा वह अनूठा विचार” (—शिरीष भाई के शब्द ) है , जिसे किराडू जी , ‘वात्स्यायन जी की परम्परा में “पका” ‘ (बक़ौल शिरीष भाई ) रहे हैं ? और वात्स्यायन जी का ज़िक्र आप ले ही आये , तो आपको यह याद दिलाना शायद अनुचित न हो कि अपने अंतिम दिनों में दिये गये एक वक्तव्य में उन्होंने कहा था कि ‘भारत को दो ही चीज़ों से ख़तरा है —या तो विदेशी विचारधाराओं से या अपने देश में आ गये अन्य धर्मावलम्बियों से !’ यह तो प्रसंगवश मैंने स्मरण कराया , हालाँकि किराडू जी से इस वक्तव्य का कोई लेना-देना नहीं है . यह साफ़ करना भी ज़रूरी था , अन्यथा मेरा भी वही हाल होता , जो धीरेश भाई का हो रहा है . उन्होंने अपने latest कमेन्ट में “तमाम भगवा चुप्पियों पर एक संतुष्ट चुप्पी साधे हुए होने ” की बात लिखी है , मगर शिरीष जी ने उन्हें समझाया है कि ‘भगवा होने का ‘ आरोप किराडू जी पर न लगाइये ! शायद यह बताना ज़रूरी है कि चुप्पी साधने के लिए भगवा हो जाने की क़तई ज़रूरत नहीं है . उस स्थिति में तो ‘युद्धरत विश्व के दोनों ही पक्षों की ओर ‘ रहने का ‘पारलौकिक ‘ सुख हासिल होता है . दिलचस्प है कि जब भी बहस छिड़ती है , शिरीष भाई एक द्वंद्व से घिर जाते हैं—-“धरम-सनेह उभय मति घेरी .”——एक ओर धर्म है , दूसरी ओर प्यार के कर्तव्य ; मैं किधर जाऊं ? किराडू जी का द्वंद्व भी—–अगर ध्यान से देखें तो —–यही है . इन दोनों युवा कवियों की इस मनोदशा से क्या हमारे समय की युवा कविता के वृहत्तर परिदृश्य के मिज़ाज के बारे में अहम सूचनाएँ हासिल नहीं होतीं ? एक और बात —–हम बहुत-से ‘लाल’ लोग ‘प्रतिलिपि’ में छपे हैं , शिरीष भाई ने याद दिलाया है . मगर मेरा कहना है कि आप लाल हैं या नहीं , इसका फ़ैसला औरों पर छोड़िये , ख़ुद अपने काम और पहचान को लेकर इस हद तक आश्वस्त रहना सुखद संकेत नहीं . यही सलाह मैं किराडू जी को भी दूँगा , हालाँकि मेरी ‘एक’ सलाह मानकर वह मेरी दूसरी सलाहों को “नज़रअंदाज़” करने की ख़ुशी से आप्लावित हैं और जाने -अनजाने इस गर्व से भी कि पहली बात तो यह कि वह किसी के इशारों पर चल नहीं रहे और दूसरी यह कि चल भी रहे हैं , तो दूसरे भी तो दूसरी ‘वाटिकाओं , वृक्षों और कुंजों ‘ के इशारे पर चल रहे हैं ! क्या ‘नैतिक समतुल्यता ‘ है ! विडम्बना ही विडम्बना है ! इसीलिए शमशेर ने कवि को तोता कहा ! ढूँढिये , इस सभ्यता में उस इंसान को , जो तोता न हो ! —–उस आशिक़ को , जो तोता होने की विडम्बना से जूझ न रहा हो ! बक़ौल मीर—– “हम हुए , तुम हुए कि मीर हुए उसकी ज़ुल्फ़ों के सब असीर हुए !”
—–पंकज चतुर्वेदी कानपुर

0 thoughts on “दहलीज़ : ५ / कवि-कर्म : प्रतिभा और अभिव्यक्ति-१ /शमशेर बहादुर सिंह”

  1. शमशेर पर/की यह पोस्ट सबसे पहले कई विडम्बनाओं के लिए पढ़ी जा सकती है. जिस कवि की कविता ने सबसे कम दिशा निर्देश माने, उसके दिशा निर्देशों को सुनने की विडम्बना, हिंदी कविता उत्तरोतर शमशेर की राह नहीं चली है पिछले तीसेक बरसों में यह विडम्बना और यही नहीं उसमें शमशेर जैसे रास्ते चलने को अपने लिए बहुत वरेण्य भी नहीं माना है की विडम्बना और सबसे बड़ी यह कि हम शमशेर की रीडिंग रिप्लेसमेंट की लड़त से आगे 'उनके काव्य से प्रतिकृत' कोई पठन पद्धति न सिर्फ नहीं बना पाए, बनाने की कोशिश ही नहीं की. पंकज भाई, मुझे संदेह शमशेर की बहुत सारी कवितायेँ जिस तरह लिखी गई हैं, उस मिज़ाज़/ तमीज़ की कविता लिखने की कोशिश करने वाला कोई नया कवि आज 'उल्लेखनीय' भी हो पायेगा. आज के (मेरा तात्पर्य है लगभग तीस बरस के) परिदृश्य पर एक नज़र काफ़ी होगी.

    विडम्बनाओं के बाद यह आपकी कोशिशों के लिए पढ़ी जा सकती है – जिस 'सम्पूर्णता के लिए' आप कोशिश करते हैं उसके लिए. शमशेर 'सम्पूर्णता' को काव्य-संभव करने की सबसे पेचीदा, सबसे निराली, सबसे सम्मोहक, सबसे ज्यादा पीड़ापूर्ण संघटना हैं हिंदी की. और यह सम्पूर्णताओं के विसर्जन का, समग्र के टूटने का (और ज्यादातर उचित,न्यायोचित ढंग से टूटने का) समय है और ऐसे में सम्पूर्णता की शमशेर की कोशिश को भी एक नए ढंग से प्रोब्लेमेटाइज करने की ज़रुरत है. सम्पूर्णता के स्वप्न, उसकी उम्मीद , उसके नास्टेल्जिया के साथ साथ उसकी पड़ताल भी दरकार है – मुझे एक 'अतार्किक' विश्वास है कि शमशेर का समग्र, इस नयी पड़ताल में भी, अन्यायमूलक सिद्ध नहीं होगा और हमारे लिए संपूर्ण एक नए ढंग से संभव होगा, बिना अन्याय के.

  2. प्रिय गिरिराज किराडू जी,
    आपका कमेन्ट बहुत enlightened है. मुझे बेहद ख़ुशी है कि मेरी कोशिशें बेकार नहीं जा रही हैं . श्रम का कुछ मूल्य तो है ! शमशेर की काव्य-विशेषताओं को जितनी गहराई और अंतर्दृष्टि के साथ आपने रेखांकित किया है , उससे मुझे थोड़ा गर्व हुआ कि 'मैं आपका समकालीन हूँ '. शमशेर का रास्ता वरेण्य हो सकता है और नहीं भी , वह तमाम कवियों के
    अपने-अपने चुनाव पर निर्भर है. शमशेर ने अपने गद्य की मार्फ़त आनेवाले कवियों को सिर्फ़ रौशनी दिखाई है , एक general रौशनी , जिसे आप सबका साझा आलोक कह सकते हैं . उसमें
    अपने काव्य-पथ पर औरों को ले आने की दूर-दूर तक कोई आकांक्षा नहीं है . उनका जैसा स्वभाव था , उसमें इस बात की संभावना को वह बिलकुल पसंद नहीं करते . फिर भी
    'सम्पूर्णता ' का उनका स्वप्न , बेचैनी , कोशिश और पीड़ा अगर किसी को अपील करते हैं , तो वह चाहे तो अपनी सुविधा की ख़ातिर यह ध्यान दे सकता है कि शायद 'सम्पूर्णता ' के
    उनके स्वप्न का ही तकाज़ा है कि वह अपने वक़्त के अनिवार्यतम मुद्दों पर ख़ामोश नहीं रहते थे , अपनी कविता में भी नहीं .
    —–पंकज चतुर्वेदी
    कानपुर

  3. पंकज जी, आपने बहुत, ज्यादातर अनडिजर्व्ड ही, सम्मान दिया है – उसके लिए कृतज्ञ हूँ. शमशेर की यह पंक्तियाँ बहुत उदास करती रही हैं, वही दोहराता हूँ:

    कवि एक बड़ा सा तोता है
    जिसे उसके सरंक्षक पालते हैं
    कई होते हैं वे

    तोता का व्यंग्यार्थ (जो उसका लगभग अभिधार्थ हो गया है) कि वह रटा हुआ, दूसरों का सिखाया हुआ बोलता है, यहाँ आपको क्रश कर देता है- किस मरहले पर शमशेर को लगा होगा कि कवि बड़े से ही सही पर तोते होते हैं, या हो गए हैं ?

  4. कुछ लोग इन दिनों बार-बार उदास हो जाते हैं, खासकर शमशेर जी को लेकर. विडंबना जिन्हें सता रही है, वह कुछ और ही विडंबना है कि आखिर शमशेर क्यों नहीं सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के खांचे में खींच लिए जाते. एक सज्जन कबाड़खाना पर भी शमशेर जी के बहाने कहीं और ही निशाना साधने की फिराक में थे. अशोक वाटिका के निर्देश पर जो हो जाये, कम है. वैसे तय्यारी पूरी है.

  5. एक युवा कवि और ब्लॉगर ने फ़ोन पर कहा है…. अभी – …शमशेर ना होते तो आलोक धनवा, मनमोहन और वीरेन डॅंगवाल की कई कवितायें ना होतीं.

  6. विडंबना जिन्हें सता रही है, वह कुछ और ही विडंबना है कि आखिर शमशेर क्यों नहीं सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के खांचे में खींच लिए जाते –
    क्यूंकि इशारा मेरी तरफ है इसलिए रेस्पोंड कर रहा हूँ. यह 'नीयत' स्कैन करने का जादू कैसे सीखा जाता है? क्या इसके लिए किसी के लिखे को उसके काम को देखने की कोई ज़रुरत नहीं होती? – और अगर अपनी 'एक' व्याख्या के अलावा हर व्याख्या षडयंत्र है तो मित्रों फासिज्म सिर्फ किसी एक जगह नहीं है, उसके कई रूप हैं.

  7. मुझे लगता है अशोक वाजपेयी और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के मुआमले में धीरेश भाई ने गिरिराज पर एकतरफ़ा ज़्यादती कर दी है. गिरि को भारतभूषण उन्होने दिया, अशोक जी और उनके बीच इसके अलावा शायद ही कुछ और उल्लेखनीय हो. मेरे लिए गिरि की छवि साफ़ और स्पष्टवादी व्यक्ति और कवि की है और मेरे सामने कोई वजह नहीं है कि उनकी नीयत पर शक़ किया जाए. इसके लिए उनके द्वारा संपादित-संचालित ई पत्रिका प्रतिलिपि के कंटेंट को पढ़ा-देखा जा सकता है. उन्होने गुजरात अंक निकाला है जो अत्यंत महत्वपूर्ण है.

    गिरि के पक्ष में इतनी बातों का कहा जाना ज़रूरी नहीं है पर कुछ ग़लतफ़हमियाँ दूर हो जायें तो अच्छा. यह भी देखिए कि इस टिप्पणी पर गिरि का जवाब कितना तर्कपूर्ण और संयमित है.

    गिरि ने जिन विडंबनाओं का ज़िक्र किया वे मौजूद हैं और धीरेश भाई ने जिस विडंबना का ज़िक्र किया वो भी मौजूद है पर मैं साफ़ कहूँगा कि उसको गिरि के सर नहीं मढ़ा जा सकता. धीरेश भाई ने मुद्दा बहुत अच्छा उठाया पर उस पर सार्थक बात होनी अभी बाक़ी है. धीरेश भाई इस पर कोई लंबी टिप्पणी पोस्ट के रूप में अनुनाद पर लगायें तो बात सही दिशा में आगे बढ़ सकती है….मेरी धीरेश भाई से गुज़ारिश है कि ऐसा ज़रूर करें.

  8. प्रिय गिरिराज किराडू जी ,
    पिछले दो दिनों से इस बहस में अपनी बात रखने की कोशिश कर रहा हूँ ; मगर पास में कंप्यूटर एवं इंटरनेट न होने की वजह से रह जा रहा हूँ . 'दहलीज़ ' की ताज़ा पोस्ट पर जो विवाद छिड़ गया है , उसके सन्दर्भ में
    सिर्फ़ यह कहना चाहता हूँ कि पोलेमिक्स से कोई ऐतराज़ नहीं है , पर सन्दर्भ से विच्छिन्न पोलेमिक्स की भी ज़रूरत शायद नहीं है. 'दहलीज़' का मक़सद उन कवियों और पाठकों—–विशेष रूप से नये कवियों ——–को ऐन कविता से जुडे तमाम मुद्दों से रूबरू उत्कृष्ट रचनाओं और गद्यांशों से वाबस्ता कराना है ; जिनकी दरअसल इन चीज़ों में ख़ास अभिरुचि हो. यह बात इस कॉलम की बिलकुल शुरूआत में ही साफ़ कर दी गयी थी , फिर भी समझ में नहीं आ रहा कि प्रबुद्ध मित्रों की स्मृति में यह साधारण-सी बुनियादी प्रतिज्ञा भी रह क्यों नहीं पा रही ? जो रचनाएँ और गद्यांश—–आपकी नज़रों में वे चाहे जैसे हों—–यहाँ प्रस्तुत किये जा रहे हैं; उनकी सार्थकता, उत्कृष्टता और प्रासंगिकता पर आप सबसे उम्मीद करता हूँ कि आप सटीक, संजीदा और विचारोत्तेजक बहस चलायेंगे . इस सिलसिले में तल्ख़, तीखी और असुविधाजनक बातों का भी स्वागत है, मगर प्रक्रिया के दायरे में ही. मसलन यह बात सबको पता है कि शमशेर किसी को दिशा-निर्देश देने की भावना से नहीं लिख रहे थे . फिर भी आप कहते हैं, चलिए कोई बात नहीं. फिर आप अचानक एक कविता लाकर कहते हैं कि जो बोल रहा है , वह ' सिखा-सिखाया , रटा-रटाया तोता ' है. क्या यही शमशेर की उस कविता का असली मानी है ? और फिर इन बातों का उस सन्दर्भ से क्या रिश्ता है, जो 'दहलीज़' में प्रस्तुत शमशेर के गद्यांश से निर्मित होता है. फिर एक मित्र ने आकर कहा कि शमशेर के इस गद्य से उदास होनेवाले सांस्कृतिक राष्ट्रवादी हो सकते हैं या कि हैं ? हालाँकि यह बात किसी एक के लिए नहीं कही गयी थी , फिर भी एक मित्र ने उसे सिर्फ़ अपने ऊपर घटित करके देखा और उसके जवाब में लिखा कि ऐसा आरोप लगानेवाले फ़ासिस्ट हो सकते हैं. एक तीसरे मित्र ने आकर कहा कि न कोई सांस्कृतिक राष्ट्रवादी है , न फ़ासिस्ट, बेहतर है कि यह बहस आगे बढ़े. मैं पूछता हूँ कि बहस किस मुद्दे पर होनी थी और किस दिशा में उसे आगे बढ़ाया जा रहा है ? आप फ़ासिस्ट , सांस्कृतिक राष्ट्रवादी वगैरह हैं या नहीं , कृपया 'दहलीज़' को इन निजी बातों का मंच मत बनाइये ! हिन्दी का पूरा तंत्र इस वक़्त 'गॉसिप' संस्कृति की चपेट में है . हवाओं में यह प्रदूषण हमारे अपने बड़े अपनी रोज़ाना की अगंभीर फ़ब्तियों, फ़तवों , तानों , चुटकुलों और गाली की हद तक पहुँची हुई भाषा के ज़रिए बढ़ा और फैला रहे हैं . हममें-से किसी में यह साहस नहीं नज़र आता कि हिन्दी के इन 'प्रभुओं' द्वारा पोषित और मज़बूत की जा रही उपर्युक्त अपसंस्कृति का कोई कारगर और मुक़म्मल प्रतिवाद कर सकें . उलटे , हम अपनी आदतों और व्यवहार से उन्हीं के कारनामों और हरक़तों की तस्दीक़ कर रहे हैं . क्या हम सचेत होंगे और गंभीरता, preciseness और मूल्यनिष्ठता को अपने बीच जगह और सम्मान दे सकेंगे ?
    —–पंकज चतुर्वेदी
    कानपुर

  9. पंकज जी,

    1.
    यह टिप्पणी संतुलन बनाने के चक्कर में चीज़ों को न पढने का एक नमूना बन गयी है.'दिशा-निर्देश' वाला नुक्ता आपके स्वयं के ही लिखा हुआ है, यानी शमशेर की भावना दिशा-निर्देश देने की रही हो कि नहीं, कॉलमकार ने इसे 'दिशा-निर्देश' की ही तरह प्रस्तुत किया था. आपकी पोस्ट पर 'विडम्बना' शब्द के अनेकशः प्रयोग वाली टिप्पणी मेरी थी किसी और की नहीं और अगर एक मित्र ने यह कहा कि "विडंबना जिन्हें सता रही है, वह कुछ और ही विडंबना है कि" तो यह साफ़ साफ़ मुझे इंगित करके था.अगर ऐसे में मैंने इसका प्रतिवाद किया तो यह ज़रूरी था.अगर कोई किसीको 'संस्कृतिक राष्ट्रवादी' आदि कहे और उस पर तुर्रा ये जड़ दे की आप किसी और के इशारे पे काम करने वाले हैं तो आपकी राय मान कर उसे चुप रहना चाहिए क्यूंकि ऐसा न करना करना "निजी बातें करना है" और इससे किन्ही गलत प्रवृतियों की तस्दीक़ होती है!

    2.
    यह बात मैं दोहराना चाहता हूँ कि अपनी व्याख्या के अलावा दूसरी व्याख्याओं को षडयंत्र मानना या उनका दमन करना फासिज्म है.अगर शमशेर ने एक कविता लिखी है तो वह मेरे लिए पठनीय है- मेरे लिए यह संभव नहीं कि शमशेर जैसे कवि की लिखी किसी बात को मैं इसलिए नहीं पढूं कि वह असुविधाजनक है.क्यों लिखा शमशेर ने कि कवि एक बड़ा सा तोता है,क्यों लिखा कि उसे पालने वाले सरंक्षक होते हैं और कई होते हैं – यह बात जिन्हें उदास नहीं करती ना करे शमशेर जैसे कवि का यह लिखना मुझे एक कवि और पाठक के तौर पर क्रश करता है- कवि होने की यह परिणति अगर शमशेर ने तब देखी कही थी तो इसके क्या माने हैं यह विचारणीय है कि नहीं?

    यह सन्दर्भ से विच्छिन्न पोलेमिक्स नहीं थी,लेकिन यह सन्दर्भ से विच्छिन्न प्रहार ज़रूर था मुझ पर और आपको वह अनुचित न लगा हो तो कोई बात नहीं,लेकिन यह सब मत कहिये कि निजी बातों का मंच बनाया है दहलीज़ को और 'अपनी आदतों और व्यवहारों से'किसी और प्रवत्ति की तस्दीक़ की है.

    3.
    वैसे हिंदी में गाली गलौच और चरित्र हनन नए नहीं हैं – यह मूल्यहीनतायें 'नयी' नहीं हैं.यह 'प्रदूषण'नया नहीं है.

  10. प्रिय किराडू जी ,

    हिन्दी में गाली-गलौज,चरित्र-हनन,मूल्यहीनताएं और 'प्रदूषण ' नये नहीं हैं ; यह कहकर आप क्या प्रस्तावित कर रहे हैं ? ——कि यह सब जारी रहना चाहिए ?

    शमशेर की कोई कविता पढ़कर उदास होने का आपको पूरा हक़ है , मगर उदासी के सन्दर्भ स्पष्ट करना किसका कर्तव्य है ? मैं फिर कहता हूँ कि शमशेर के लिखे को मैं अपने लिए दिशा-निर्देश ही मानता हूँ . आप नहीं मानते,तो इससे "तोता" आप नहीं बनेंगे,इसकी कोई गारंटी नहीं है . मैं उन्हें दिशा-निर्देश मानता हूँ, इससे मैं "तोता" हो जाऊँगा,इसकी भी कोई गारंटी नहीं है .

    फ़िलहाल यह विडंबना ही मुझे उदास करने के लिए काफ़ी है .
    ——-पंकज चतुर्वेदी
    कानपुर

  11. प्रिय शिरीष जी

    कल मैंने इस पोस्ट पर एक कमेंट किया था। वह कमेंट अब तक प्रकाशित नहीं हुआ है। लगता है वह कमेंट आपको नागवार गुजरा। मुझे महबूब शायर का कहा याद आ गया,

    खुदा के वास्ते परदा, न काबे से उठा जालिम
    कहीं ऐसा न हो यां भी वही काफिर सनम निकले

  12. शमशेर की इन शर्तों को कौन पूरा कर पाएगा ?
    वो युग कब आएगा ये तो कवि और विज्ञ लोग ही जाने ?

    मुझे तो लगता है कि कपोल कल्पनाओं के लिए फुरसत मिलने पर बड़ा कवि भी अतिसरलीकरण कर बैठता है। भविष्य में क्या होगा इसका किसी को नहीं पता। इतिहास में जो हुआ है उसके आधार पर कहा जा सकता है कि शमशेर बहादुर सिंह का पैमाना कांच का है !! जो कठोर तथ्य की टक्कर से चूरचूर हो जाएगा।

    अपनी पंरपरा को अपने अंदर उतारना एक सीमा तक काम की चीज हो सकती है लेकिन व्यवहार में कम से कम कवि बनाने के सभी फार्मुलेे थोथे ही साबित होते हैं। शमशेर ने जिस तरफ इशारा किया है उन गोलियों को खाने के बाद कोई औसत कवि कुछ अच्छी कविताएं तो लिखने में कामयाब हो सकता है लेकिन इन गोलियों के असर से वो महान कविताएं लिख सकेगा इसमें मुझे गहरा संदेह है।

    इस पोस्ट को पोस्ट करने वाले पंकज चतुर्वेदी ने अपने पहली पोस्ट के रूप में ब्रेख्त की एक कविता लगाई थी और उसे खुद की नजर में महानतम प्रेम कविता बताई थी। इसके बाद उन्होंने ब्रेख्त की दूसरी कविता लगाई और उसे भी महान बताया। मैं उनकी तरह यह नहीं कहुंगा कि वो कविताएं महानतम थीं लेकिन वो महान हैं इसमें मेरी सहमति है।

    उन दोनों कविताओं को पढ़ने के बाद शमशेर की यह फार्मुला थोथा जान पड़ता है। उन्हें किन शास्त्रीय ज्ञान के आधार पर लिखा गया है।
    भिखारी ठाकुर तो अनपढ़ थे। यही हाल कई और का था।

    मुझे तो लगता है कि शमशेर महान आलोचक बनने के लिए ये शर्तें बताना चाह रहे होंगे और भूलवश महान कवि शब्द का प्रयोग कर लिया होगा।
    मुझे अफसोस हैं कि यहां उपस्थित कवियों ने भी शमशेर के इस मत का प्रतिवाद नहीं किया !!
    मुझे कोई बताए कि बीस साल के पाब्लो नेरूदा ने जो कविताएं लिखी वो महान हैं या नहीं ?

    मैं ऐसे ढेरों उदाहरणों की तरफ विज्ञ पुरूषों का ध्यान खींचना चाहुंगा।

  13. प्रिय रंग !

    आपके कमेन्ट को मोडरेशन की प्रक्रिया से गुज़रना होता है और मैं आजकल दिन में एक ही बार कुछ देर के लिए कम्प्यूटर खोल पाता हूँ. आप इतनी जल्दी अपनी ओर से इस निष्कर्ष पर क्यों पहुँच गए कि कमेन्ट मुझे नागवार गुज़ारा होगा! और भाई आप मुझे इतना नालायक़ समझते हैं कि मैं नागवार गुज़री बात को लगाने से पीछे हटूंगा. आपकी इस एक टिप्पणी ने मेरी नीयत, ईमान और लेखकीय प्रतिबद्धता पर भी सवाल उठाया है. अरे भाई मुझे अपनी व्यस्त दिनचर्या में नेट पर आने की मोहलत तो दीजिये.आपकी अगली पिछली दोनों टिप्पणी साथ में मिली और मैंने नेट पर आते ही लगा दी.

    आपका महबूब शायर मेरा भी महबूब शायर है और आपके मामले में मेरे लिए तो क़ाबे पर से पर्दा उठ गया लगता है.

    सस्नेह शिरीष

  14. प्रिय रंगनाथ सिंह जी ,
    आप यहाँ आये , आपने विस्तृत कमेन्ट किया , बहुत अच्छा लगा. उम्मीद है , प्यार क़ायम रहेगा . रही बात यह कि किताबी ज्ञान से कोई कवि महान नहीं हो सकता , बिलकुल
    सही है . मैं आपसे सहमत हूँ . शमशेर भी इस सामान्य-सी बात को जानते थे . फिर भी उन्होंने यह सब लिखा , क्योंकि अगर किसी में कोई प्रतिभा है—–जिसके लिए टी. एस. एलियट ने
    कहा था कि 'प्रतिभा का कोई विकल्प नहीं है .'——तो शमशेर यही चाहते थे कि वह प्रतिभाशाली कवि अपने विशद , गहन और बहुआयामी अध्यवसाय से अपनी कविता के कैनवास को
    और भी परिष्कृत , समृद्ध और मूल्यवान बनाने की कोशिश करे . मेरे ख़याल से ऐसा चाहने में कोई बुराई नहीं है , बल्कि अच्छाई ही है . ख़ास तौर से आधुनिक समय में मुक्तिबोध की
    "ज्ञानात्मक संवेदना और संवेदनात्मक ज्ञान " की क्रांतिकारी अवधारणाओं के आ जाने के बाद कविता का इतिहास आगे की ओर ही जायेगा . प्रत्यावर्तन का विकल्प उसके पास बचा ही
    नहीं है . इसलिए कवि और उसकी कविता के विकास का मामला सिर्फ़ संवेदनाओं के सहारे नहीं छोड़ा जा सकता . हाँ , किताबी ज्ञान के बगैर भी उत्कृष्ट कविता मुमकिन है , क्योंकि श्रेष्ठ
    कविता के संभव होने की असंख्य सूरतें होती हैं . उनसे किसी को कोई उज़्र नहीं है . लेकिन यह मानना कि अकेले जीवनानुभव या जीवन-संघर्ष कविता के लिए काफ़ी है , यह भी मानना
    है कि अध्ययन और विचार-कर्म में दरअसल कोई संघर्ष या अनुभव-प्रक्रिया निहित ही नहीं है . अगर ऐसा होता तो भगत सिंह क्रांतिकारियों के लिए अध्ययन और विचार-कर्म को अनिवार्य
    घोषित नहीं करते . आपको मालूम ही होगा कि फांसी पर चढ़ने के पहले अपने महज़ कुछ ही महीनों के जेल-जीवन में अपने पढ़ने के लिए उन्होंने ब्रितानी हुकूमत से लगभग चार सौ से ज़्यादा देशी-विदेशी किताबों की माँग की थी , जिनमें-से ज़्यादातर उन्हें मुहैया भी करायी गयी थीं . आपके कमेन्ट के लिए शुक्रिया !
    —–पंकज चतुर्वेदी
    कानपुर

  15. आप ने यह कहने की कोशिश की है कि कवि के सिर पर किताबों का गठ्ठर लादने में कोई बुराई नहीं है बल्कि भलाई ही है। वर्डसवर्थ ने कवि के पांच लक्षण बताए थे। आप जानते ही होंगे। उनके बिना कोई कवि हो सकेगा इस पर मुझ जरा भी विश्वास नहीं है। जिस कवि में वो लक्षण हैं उसके सिर पर जरा भी ज्यादा बोझ पड़ा तो वह कुछ का कुछ तो हो जाएगा लेकिन साबुत कवि नहीं बचेगा। स्वयं शमशेर को बराबर यह आशंका रही कि वह गद्यकार हो जाएगा, अनुवादक हो जाएगा, नकलची कवि हो जाएगा, या फिर कविता लिखना छोड़ भी सकता !!!
    हां शमशेर को यह जरूर जिश्वास है उनके दिए सुझावों के बाद कवि के संग जो भी महान ही होगा !!!
    एक हुए थे मौलाना रूमी। पहले-पहले बहुत भारी विद्वान हुआ करते थे। फिर सूफी हो गए और यही कहते घूमने लगे कि,
    आकिला-नुक्ताए परकारन वजूदन वलै
    इश्क दानद की दरिदाए सर गरदारन
    (अक्ल वाले तो परकार(compasses) की तरह होते हैं जो अपने बुद्धि को केन्द्र बनाकर उसके चारो तरफ गोल-गोल घूमते रहते हैं।
    यह नेमत तो इश्क को हासिल है कि वो जाने कि ये सब दिमाग की चाहरदिवारी पर अपना सिर मार रहे हैं जबकि असल मामला तो उस दिवार से पार पाने के बाद शुरू होता है)

    यानि सूफी काव्य तो शुरू ही तब होता है जब आप दिमाग की स्लेट को धो-पोंछ कर साफ कर लें।
    उम्मीद है शमशेर के ऊँचे मेयारों पर रूमी और दूसरे सूफियों का काव्य टिक सकेगा।

  16. "…… हाँ , किताबी ज्ञान के बगैर भी उत्कृष्ट कविता मुमकिन है , क्योंकि श्रेष्ठ
    कविता के संभव होने की असंख्य सूरतें होती हैं . उनसे किसी को कोई उज़्र नहीं है . लेकिन यह मानना कि अकेले जीवनानुभव या जीवन-संघर्ष कविता के लिए काफ़ी है , यह भी मानना
    है कि अध्ययन और विचार-कर्म में दरअसल कोई संघर्ष या अनुभव-प्रक्रिया निहित ही नहीं है….."

    पंकज जी ऊपर लिखा गद्यांश आपका लिखा है। इसमें उपस्थित परस्पर विरोधी विचारों की तरफ आपका ध्यान दिलाना चाहुंगा। जब किताबी ज्ञान के बगैर महान कविता लिखी जा सकती है तो जीवनी-संघर्ष को कविता के पर्याप्त माने लेने मंे कैसा विरोध बचता है ??

    अगर मैं छूट लूं तो कहुंगा कि शेष जीवन जगत की छोड़िए, सूरदास को तो कृष्ण के बाल रूप ने की मुक्ति दिला दी!!

    इसके अलावा यह आप का आरोपित मत है कि कविता के लिए जीवन-जगत के अनुभव को पर्याप्त मान लेना यह मान लेना है कि अध्ययन और विचार-कर्म में दरअसल कोई अनुभव या संघर्ष-प्रक्रिया निहित नहीं है…..

    दरअसल आप पहले ही मान बैठे हैं कि हर आदमी पढ़ा-लिखा तो होता ही है। जबकि राइट टू एजुकेशन का विधेयक अब आया है।

    जब कोई कबीर या भिखारी ठाकुर कविता लिखेगा तो उसके लिए जीवन जगत और मौखिक ज्ञान ही पर्याप्त होगा। उसे किताब से जुझने का संघर्ष तो नहीं करना पड़ता। आपने अध्ययन ओर विचार-कर्म को जिस तरह एक जोड़े में सजाया है उसे देख कर यह कहना जरूरी है कि अनपढ़ यानि पोथी न पढ़ने वाले लोग भी विचार-कर्म करते हैं।

    जैसे मिंया सुकरात करते थे,वो तो जान-बूझ कर मौखिक ज्ञान पर एड़ी-चोटी को जोर लगाए फिरते थे। ढेर सारे सूफी और भक्ति कवि मौखिकी ही देते-लेते थे !!

    उस जमाने में भी जब लिखने-पढ़ने का फैशन जोरों पर था।

    पंकज जी आपको स्पष्ट कर दुं कि अध्ययन-कर्म में होने वाली पिसाइ-कुटाइ के महत्व और कष्ट को अच्छी तरह जानता-समझता हूं। मैंने इसे कहीं भी नजरअंदाज करने की कोशिश नहीं कि थी। जो सत्य है उसे कोई नहीं झूठला सकता। आप ने न जाने कैसे यह प्रश्न खड़ कर दिया।

    आप से विनम्र गुजारिश है कि आप कुछ भी लिखने से पहले ध्यान रखे कि हम लोग ‘कवि‘ को केन्द्र में रखकर बात कर रहे हैं।
    कवि और दार्शनिक,राजनीति शास्त्री,अर्थशास्त्री के बीच तुलना न करें।

  17. शमशेर इस कदर प्यूरिटन और भाववादी सोच रखते थे यह जानकार आश्चर्य होता है। उनकी कविताओं मात्र का पाठक होने के कारण मेरे लिए उनका यह रूप नया था।

    शमशेर के इस गद्यांश में ऐसी ही कई वैचारिक चूक है। मैंने कुछ चीजों की तरफ इशारा किया है। शेष आप खुद समझ लेंगे।

    हमारा महान कवि बहुत बड़ा थियरेटिशयन नहीं हुआ तो भी वह हमारे लिए महान रहेगा।

    पंकज जी, मेरा निजी मत है कि कवि नाम का जीव बहुत ही सूक्ष्म,सुकोमल,और संवेदनशील तंतुओं से बना होता है। उसके ऊपर इस तरह के प्रवचनों के पहाड़ लाद देने से उसका मौलिक व्यक्तित्व खत्म हो जात है। यह डर आपको खुद शमशेर में उनके लिखे अगर-मगर से झांकता दिखेगा।

    कोई कवि है तो उसके लिए मेरे पास कोई राय नहीं है सिवाय इसके कि वो जिस भाषा में लिखता है उसमें हुए महान कवियों को जानने की कोशिश करे। गर उसका पढ़ने में जरा भी मन नहीं लगता लेकिन जीवन-जगत के बारे में वह अदभूत कवितांए रचता है तो फिर वो मेरी या किसी की राय से ऊपर की चीज है।

    इसी को कहते हैं काव्य-प्रतिभा।

    आपने लिखा है कि मुक्तिबोधिय क्रातिकारी फिनामइनन के बाद कविता का इतिहास आगे की ओर ही जाएगा !!

    पंकज जी कविता या किसी चीज का इतिहास कभी भी पीछे जाता है इसमें मुझे गहरा संदेह है। कई लोग कोशिश करते है लेकिन ऐसा होता नहीं है। उत्तरोत्तर विकास इतिहास का सर्वविदित नियम है। अतः आप का मुक्तिबोधिय अवधारणा के बाद कविता के इतिहास के आगे जाने से आप का क्या आशय था इसे जरा स्पष्ट करें।

  18. शमशेर के सुझाव नम्बर तीन पर तो दया आती है। उन्होनें खुद कहा है कि,"साधारण रूप से केवल अच्छे और केवल बहुत अच्दे कवियों के लिए इन चीजों पर सोचना ठीक नहीं। इनको ये चीजें भटका भी सकती है…"

    शमशेर ने कहा है कि उनके इन फार्मुलों को अप्लाई करने का समय करीब पच्चीस साल बाद आएगा। पंकज जी गर आप इस गद्यांश का रचना काल बता दंे तो हम सब को शमशेर का सुझाव का मान कर महाकवि बनने का सही समय पता चल जाए।
    इसी सुझाव नम्बर तीन में एक और तुर्रा देखिए,"सबसे बड़ी चीज उसे विनम्र होना सीखना होगा"
    कबीर क्या मिजाज था इसका तो मुझे ज्यादा नहीं पता !!
    सुना है पुस्किन कुछ खास शरीफजादा नहीं था….
    निराला और मीर तो मरते दम तक विनम्र होना नहीं सीख पाए। मोमिन तो अपने आगे गालिब और जौक जैसों को बालक समझते थे और शेखसादी को शिशु…..
    मुझे समझ नहीं आता कि शमशेर किसी आदमी के लिए सुझाव सूची बना रहे थे या किसी सुपर मैन के लिए ??
    दुनिया में कितने महान कवि ऐसे हुए हैं जिन्हें सात-सात भाषाएं आती थीं ??
    पंकज जी,
    मुझे लगा कि कवि के लिए आवश्यक औजार और जरूरी संस्कार पर बात करने से पहले शमशेर के गद्य का विवेचन कर लिया जाए। यहां मैंने वही किया है।
    पंकज जी, आपकी टिप्पणी से पहले भी मेरे सामने यह स्पष्ट था कि यह सुझाव सूची काव्य प्रतिभा सम्पन्न लोगों के लिए ही दी गई है। किताबें पढ़ने से कविता लिखने आती तो आज हिन्दी के दो सबसे बड़े कवि नामवर सिंह और राम विलास शर्मा होते !!
    यही बात मैं प्रतिभा के बारे में भी कहुंगा गर टी एस इलियट साहब अपने महत्वपूर्ण विचार न रखते तो भी किसी सामान्य से बुद्धिजीवी को भी यह पता होता है कि प्रतिभा का कोई विकल्प नहीं होता। और गर शास्त्रीय मान्यताओं की ही बात करनी हो तो संस्कृत काव्यशास्त्र में प्रतिभा की चरण वंदना के ढेरों पद मिल जाएंगे।

  19. …कवि की कविता ने सबसे कम दिशा निर्देश माने, उसके दिशा निर्देशों को सुनने की विडम्बना…(गिरिराज किराडू)

    शमशेर ने यह गद्य कहां और किस संदर्भ में लिखा है यह नहीं जानने से मेरे सामने इस गद्य के टुकड़े को स्वतंत्र गद्य मानकर बात करने का ही विकल्प है और मैं यही करूंगा। शमशेर के इस प्रवचन के संदर्भ में उनका एक इंटरव्यू में दिया वह जवाब याद आ रहा है जो उन्होंने मार्क्सवाद के संदर्भ में दिए थे। अदभूत और अनुपम शिल्प के धनी इस कवि से जब पूछा गया कि आपने मार्क्सवाद की कौन सी किताबें पढ़ी हैं तो उन्होंने बहुत ईमानदारी से जवाब दिया कि सिर्फ एक, कम्यूनिस्ट मैनिफेस्टो। शमशेर ने संभवतः मैनिफेस्टो को मार्क्सवाद की गीता बताया था। जिस दर्शन को उन्होंने अपने जीवन का दर्शन बनाया था उसके प्रति उनक यह रवैया उनके महान कवि बनने के दिशा-निर्देशों से उलट ठहरता है।
    लाजिक के दुहाई दे कर मैं यह मान लूं कि हिन्दी का यह महाकवि उन दिशा निर्देशों को भविष्य के महान कवियों के लिए गढ़ रहा था तो भी उसके इन निर्देशों पर मेरा एतराज पूर्ववत है। मैं स्पष्ट कर दूं कि मेरे स्पष्ट मान्यता है कि, साहित्य का सृजन करने वाली चार महत्वपूरृण इकाईयों में से साहित्य के पाठकों के अतिरिक्त अन्य तीन इकाईयों कवि,कथाकार,और आलोचक में से सिर्फ आलोचक ही वह बदनसीब है जो जितना पढ़े कम पड़ता है। बाकी दो गर पढ़ने की बजाए ज्यादा पढ़ने लगे तो या तो वो आलोचक बन जाएंगे या फिर……….कुछ नहीं रहेंगे।

    पंकज जी कहा गया है कि साहित्य समाज का दर्पण है। गर शमशेर की बात में जरा भी दम होता तो साहित्य शास्त्र का दर्शन बन गया होता। शास्त्र के बरक्स खड़ा होने की ताकत ही साहित्य को वह ताकत देती है कि कार्ल मार्क्स जैसा निर्मम आलोचक शेक्सपीयर और बाल्जाक का फैन बना रहा।
    खुद शमशेर ने यहां जो लिखा है उसमें ढेर सारी विसंगतियां है।

    मसलन, नम्बर एक के अंत मंे शमशेर लिखते हैं इसका असर यह भी हो सकता है कि वो कम लिखे लेकिन जो लिखेगा वो…..और मजेदार यह कि शमशेर का कवि की विज्ञान में गहरी और जीवंत रूचि लेगा !!

    पंकज जी आप फिलहाल के कवियों में किसे महान मानते हैं बता दे ंतो उसके उदाहरण से हमें शमशेर के पैमाने को परखना आसान हो जाएगा।
    नम्बर दो मंे शमशेर न जाने किस आधार पर संस्कृत,बांग्ला,अरबी,उर्दू,फारसी,अंग्रेजी,फ्रेंच के ज्ञान को बड़ा ही महत्वपूर्ण मानते हुए उनके पारायण का सुझाव दिया है। मुझे समझ नहीं आता कि ग्रीक और इटैलियन,चाइनीज,रूसी,मराठी,तमिल के पारायण से वही बात क्यों नहीं बनेगी ?

    खैर कोई कह सकता है कि शमशेर का लकी नम्बर सात था इसलिए उन्होंने सात भाषाएं चुनी है या फिर कोई ये कहे कि शमशेर का मतलब ……..या …….

    लेकिन सुझाव का संभावित परिणाम खुद शमशेर के अनुसार क्या है ?

    हो सकता है आप अनुवादक बन जाए….और कविताएं बहुत कम लिखें !!
    हो सकता है बहुत अधिक लिखे जो नकल-सी होगी !!!!

    या फिर कविता लिखना ही बेकार समझे… !!!
    और यह आखिरी बात हुई और गर वो…..गद्य लिखने लग गया तो(?) बड़ा ही मूल्यवान गद्य लिखेगा !!!

  20. प्रिय पंकज जी
    आपका सवांद शैली में लोकतांत्रिक ढंग से दिया गया जवाब सुखद है। हालांकि आप ने मेरे पहली टिप्पणी में उठाए कुछ प्रश्नों की अनदेखी की है। फिर भी अब मैं ज्यादा सहज हो कर अपनी बात रख पाऊंगा।

    आपने भगत सिंह का उदाहरण दिया है। वो पहले से ही पढ़ने के शौकिन थे। उनके पास जेल में संभव कामों में यही सवोर्तम काम था। उनके सामने अपने जीवन दर्शन और राजनीतिक दर्शन के औचित्य और तलाश का प्रश्न था। अंग्रेजों ने क्रंातिकारी भगत सिंह को गिरफ्तार किया और विचारक भगत सिंह को फांसी दी। लेकिन भगत सिंह का उदाहरण हमारे विषय से बिल्कुल ही अलहदा है। मैंने खुद लिखा है कि लगता है शमशेर महान आलोचक बनने के लिए जरूरी बातें बताना चाहते थे और गलती से महान कवि लिख गए।

    इसलिए दार्शनिक,आलोचक,विद्वान या ऐसे ही किसी अन्य व्यक्ति के उदाहरण को हमारे कवि और कविता केन्द्रित बहस में न ले आएं तो हमारे बहस में अपेक्षित सफाई रहेगी। बात कवि की हो रही है ओर कवि के लिए आवश्यक औजार और जरूरी संस्कार की हो रही है।

    अतः फिलहाल के लिए मैं मान लेता हूं कि आप मुझसे इस बात पर सहमत हैं कि हमारी बहस ‘कवियों‘ को केन्द्र में रखकर की जा रही है। आपके जवाबी टिप्पणी का सार यही प्रतीत होता है कि, शमशेर के निर्देशों को माने बिना भी कोई कवि महान कविता कर सकता है लेकिन वो उनके निर्देश मानता है तो उसे इसका फायदा ही मिलेगा।

    इन बिन्दुओं को स्पष्ट करने के बाद अगली टिप्पणी में मैं कवि और पुस्तक-परायणता पर अपनी राय रखुंगा। साथ ही यह भी स्पष्ट कर दूं कि साहित्य कभी भी मेरे अध्ययन का प्राथमिक सारोकार नहीं रहा है इसलिए मेरी त्रुटियों के प्रति इसी तरह सहिष्णु बने रहिएगा।

  21. प्रिय शिरीष जी

    आपके प्रिय से शुरू होकर सस्नेह पर खत्म होने वाले जवाब को देखा और उसके मजमून को पढ़ा तो लगा कि आप ने गलती से अपने हज्व के लिए काले कि बजाए गुलाबी लिफाफा चुन लिया है।

    एक दूसरी पोस्ट पर प्रियम अंकित की 6 अगस्त को की टिप्पणी को देख कर मैंने आपसे अपनी शिकायती कमेंट लिख भेजा। क्योंकि मुझे यह नहीं समझ आया कि उनका मेरे एक दिन बाद 6 अगस्त को किया कमेंट तो आ गया लेकिन मेरा उसके पहले 5 अगस्त को किया कमेंट ब्लाग माडरेटर की व्यस्तताओं के कारण नहीं आ पाया है !!

    और जहाँ तक परदा उठने-गिरने की बात है ?

    बस यही कहुँगा कि, गालिब के तरफदार एक दूसरे ही महबूब शायर ने कहा है,

    मुझे आहो-फुगाने नीम शब का फिर पयाम आया
    ठहर ऐ दिल कि शायद फिर कोई मुश्किल मुकाम आया

  22. manoj kumar jha

    oh yahan sanskritik rashtravad ka nariyal kyon gir pada.seeta to lanka me thee hee nahee aur hanuman phunch gaye.raam kee mudrika saath me to kya samudra-langhan tab bhi karna chahiye jab us paar das-sheesh na bhi ho.girirajji ka text to sampoornta se mukhatb tha aur is roop me jo apne arth-prsaar me saanskritk rshtravad ke khilaf jata hi.sanskritk rashtravaad to khud vikat totalisng laalsa hi. vinamr nivedan ki har path ko na to pksh-patit kiya jae aur na hee asmita-asmit.

  23. priy rang

    प्रियम का कमेन्ट इसलिए आया कि वो अनुनाद का लेखक है और उसकी टिप्पणी का माडरेशन नहीं होता. , क्या आपके अपने ब्लॉग पर आपको अपनी टिप्पणी माडरेट करनी होती है ! मैं फिर कह रहा हूँ – अपनी ओर से एकतरफा निष्कर्ष मत पहुँचो – आगे तुम्हारी मर्ज़ी !

    shirish

  24. प्रिय शिरीष जी

    मैंने तो बस अपने वह शंका बताई जिसकी वजह से यह गलतफहमी पैदा हुई। मेरे ब्लाग में कमेंट माडरेशन आॅन नहीं है इसलिए मुझे यह जानने का अवसर मिला ही नहीं है कि ब्लाग-माडरेटर और बाकियों के कमंेट करने में यह फर्क आता है।
    आपको हुई तकलीफ के लिए क्षमाप्रार्थी हूं।

  25. पंकज जी,

    1
    आपको जो उचित लगा वही आपने किया है – मेरे सम्बन्ध में गलतबयानी आपको उचित नहीं लगी आपने उसका प्रतिवाद नहीं किया.


    शमशेर की यह कविता इसलिए क्यों न पढी जाय, जैसा मैं प्रस्तावित करने का प्रयास कर रहा हूँ, कि शमशेर के समय में ऐसे कौनसे साहित्यिक/राजनैतिक शक्ति केंद्र ("संरक्षक") थे जिनकी 'इम्पोजिंग' उपस्थिति को शमशेर को "कविता में भी" व्यक्त करना पड़ा? और क्या ऐसा हो रहा था कि कवि उन शक्ति केंद्र, सरंक्षकों की जुबां बोलने लग गए? सरंक्षकों और लेखकों का सम्बन्ध आधुनिक समय में कई नए आयाम पा गया है लेकिन समस्या पुरानी है – जब हम कालिदास जैसे लेखक के बारे में यह कहते हैं कि वे अपने सरंक्षकों की दुर्बलताएं छुपाते थे, या उनका गुणगान करते थे तो हम इसे एक सामान्य बात मान लेते हैं, एक आधुनिक लेखक जब खुद ऐसा कह रहा है तो उसे पढने की कोशिश तो की जानी चाहिए. मेरे लिए यह शमशेर के समय को समझने का इक रास्ता है.
    आपने जो निजी टच दिया है बहस को वह मेरा मंतव्य नहीं था, इसलिए मैं उसे आगे नहीं बढाऊंगा. मैं दोहराता हूँ वह मेरा मंतव्य नहीं था- इसलिए कि मेरी पहली टिप्पणी पर आपकी प्रतिक्रिया यह बताती है कि उस पर आपको न सिर्फ आपत्ति नहीं थी, बल्कि आपने उसे 'एन्लाईटन्ड' कहा. यानी आपकी आपत्ति दूसरी टिप्पणी से शुरू हुई. उसका मेरा पाठ वह है जो मैंने ऊपर किया है।
    3
    शमशेर की कविता का मेरे लिए क्या अर्थ है और उसे मैं अपने लिए क्या मानता हूँ, इसको आपसे बेहतर कम लोग जानते होंगे. आपने 2006 में वागर्थ के अपने कालम में मेरी कविता 'टूटी हुई बिखरी हुई पढ़ाते हुए’ प्रकाशित की थी और उस पर टिप्पणी की थी। यह इसलिये कि शमशेर को लेकर मेरे कहे में एक सिलसिला है। ‘अचानक’ कुछ नहीं हुआ है।
    4
    हिन्दी में प्रदूषण जारी रहे यह नहीं इतनी कामना है कि इस संदर्भ में कोई न्यूनतम मानक होने चाहिये और उसका अतिक्रमण ‘चाहे जिसके’ संदर्भ में हो उसका विरोध, निंदा होनी चाहिये।

  26. प्रिय किराडू जी ,
    आपके सम्बन्ध में जो ग़लतबयानी हुई है , उसका प्रतिवाद मैंने किया है ; कोई भी मेरे पिछले कमेंट्स पढ़कर यह बात समझ सकता है . अब आपको लगता है कि मैंने नहीं किया है , तो एक बार
    और किये देता हूँ . यह कि युवा कवि और 'प्रतिलिपि' के संपादक गिरिराज किराडू या किसी के भी सन्दर्भ में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बात करना—–बिना किसी प्रत्यक्ष प्रमाण के—–निहायत आपत्तिजनक
    बात है . मगर मेरा इसरार यह था कि अगर वह इतनी ही निराधार और आपत्तिजनक है , तो ऐसे कमेंट्स आपको नज़रअंदाज़ करने चाहिए . थॉमस हार्डी ने कहा था कि ' when my novel has confused you , my explanation would confuse you ten times over .' आपका गंभीर न रह पाना और यह कहना कि ऐसा आरोपण फ़ासिज़्म है , शायद आपके सम्बन्ध में किसी की ग़लतफ़हमी या अविचारित टिप्पणी को फ़ासिज़्म जैसी भयावह संज्ञा से अभिहित करना मेरे ख़याल से over -react करना है . अगर आप सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के खिलाफ़ हैं , तो दुनिया आपको वैसा मानेगी और देर-सबेर
    वह शख्स भी मानेगा , जिसने किसी तात्कालिक जोश में कभी आपकी बाबत ग़लतबयानी की होगी . इस बात का confidence आपकी देह-भाषा में आना चाहिए . हालाँकि मैं ऐसी बिन-माँगी सलाह देनेवाला कौन होता हूँ और क़तई ज़रूरी नहीं कि आप मुझसे सहमत ही हों . मगर तुलसी के काव्य-नायक राम ने जितना मुझे अभिभूत किया है , शायद ही किसी ने किया हो . और उन्हीं राम की यह विशेषता है कि सारी दुनिया का मालिक होने के बावजूद उनकी चाल में 'सहजता' है—–"सहजहिं चले सकल जग स्वामी ." एक और प्रसंग में राम की विनयशीलता और आत्मवत्ता देखते बनती है—–"भृगुपति बकहिं कुठार उठाये / मन मुसकाहिं राम सिर नाये ." तो मित्र , यह बात है और राजनीति के क्षेत्र में तो किसी को ——-इस बात के लिए कि वह आपके सम्बन्ध में कोई राय क़ायम करे—–असीमित 'चांस ' देने चाहिए . दूसरी बात शमशेर को लेकर आपके उदास होने की है , तो मेरी इस अपील पर कि आप अपनी उदासी का सन्दर्भ स्पष्ट कीजिये , आप आगे तो बढ़े हैं , लेकिन सिर्फ़ एक क़दम . जब तक आप speculations में जियेंगे कि शमशेर के समय में वे कौन-से साहित्यिक-राजनीतिक शक्ति-केन्द्र थे , जिनकी बाबत उन्हें यह लिखने को मजबूर होना पड़ा कि "कवि एक तोता है / जिसे उसके संरक्षक पालते हैं ", तब तक आप कोई भी ध्यान देने लायक़ या बहसतलब स्थापना नहीं कर पायेंगे ! यों मेरी गुज़ारिश है कि इस संजीदा विषय पर आप कोई विस्तृत आलेख लिखें , जिसमें अपने 'दुःख ' के सन्दर्भ को पर्याप्त स्पष्टता के साथ सामने रखें ; तो मेरा वादा है कि उस पर हम लोग आगे बहस करेंगे .
    —–पंकज चतुर्वेदी
    कानपुर

  27. आपकी इस लेटेस्ट टिप्पणी को मैंने,आपकी कीमती सलाह के मुताबिक,नज़रअन्दाज़ करने योग्य पाया है।
    2
    मैं यह नहीं पूछूंगा – क्यूंकि ऐसा करना फिर से एक गलत देह-भाषा (वर्चुअल में पर देह कहाँ इधर तो भाखा ही भाखा) हो जायेगा –कि ‘तात्कालिक जोश’ से भरी ‘अविचारित’ टिप्पणी किस कुंज या वाटिका या वृक्ष के ईशारे पर की गई – ऐसे कुंज ऐसी वाटिकाएँ ऐसे वृक्ष कोई एक तो है नहीं अपने इधर – मुझे पूरा विश्वास है मेरे यह सब कहने को भी उदारमना, 'गंभीर' मित्रों द्वारा नज़रअंदाज कर दिया जायेगा।

  28. शिरीष जी, आपकी वहदत पे आंच न आए, कोशिश करूँगा लेकिन यह जानने की इच्छा जरूर है कि आखिर गिरिराज किराडू खुलकर साफ़-साफ़ क्यों नहीं बोलते कि आखिर `विडंबना` बल्कि `३० वर्षों की विडंबना` से उनका इशारा किस तरफ था और क्या वजह उन्हें उदास बना दिए जा रही थी. `तात्कालिक जोश` इतना तात्कालिक भी नहीं था, पूर्व में वे अपनी राह की झलक देते भी रहे हैं. मुझे पहले भी पूछना पड़ा था कि आखिर कोई लाल रंग देखते ही इतना बिदक क्यूँ जाता है और तमाम भगवा ज्यादतियों पर संतुष्ट चुप्पी क्यूँ साधे रहता है. देंखे इसी ब्लॉग पर- http://anunaad.blogspot.com/2009/06/blog-post_21.html
    आप नाराज हुए श्री किराडू ने कहा कि वे वो नहीं हैं जो कहा जा रहा है तो मैं इस सुखद परिवर्तन पर खुश हुआ और अपनी `गलती` पर दुखी भी. लेकिन (`बात बोलेगी हम नहीं, भेद खोलेगी बात ही`) किराडू जी फिर कह रहे हैं – `शमशेर की यह कविता इसलिए क्यों न पढी जाय, जैसा मैं प्रस्तावित करने का प्रयास कर रहा हूँ, कि शमशेर के समय में ऐसे कौनसे साहित्यिक/राजनैतिक शक्ति केंद्र ("संरक्षक") थे जिनकी 'इम्पोजिंग' उपस्थिति को शमशेर को "कविता में भी" व्यक्त करना पड़ा? और क्या ऐसा हो रहा था कि कवि उन शक्ति केंद्र, सरंक्षकों की जुबां बोलने लग गए?` आखिर किराडू जी साफ़ क्यूँ नहीं कहते कि वे शक्ति केंद्र फलां थे. अब अगर किराडू जी की भाषा, उनके मुहावरों, अपने वक़्त के सवालों पर उनके स्टैंड या उनकी चुप्पियों, उनकी तर्क पद्धति आदि से उन शक्ति केन्द्रों का पाता चल रहा जिनका दबाव उन पर (उनके लेखन/टिप्पणियों में) नज़र आता है, तो इतना हंगामा क्यूँ. मुझे खुशी है कि `तात्कालिक जोश` में कही बात वे ही तस्दीक़ किये जा रहे हैं.

  29. गिरिराज ने अनुनाद की एक पोस्ट पर लाल संबंधी टिप्पणी की थी, जिसका ज़िक्र धीरेश भाई कर रहे. पहली बात तो तो ये कि गिरि की उस टिप्पणी में वह खिलंदरपन ज़्यादा था जिसका इस्तेमाल वो अक्सर मेरे साथ करता है, इसलिए अनुरोध है इस टिप्पणी को उसकी एकमात्र आख़िरी गवाही ना मानें. दूसरी बात ये है कि लाल विरोधी होने का अर्थ भगवा हो जाना नहीं है. वाम के कोमल विरोध और आधुनिकता के मिश्रण से एक अनूठा विचार पकाने का उद्देश्य गिरिराज का हो सकता है और ये कोई आज की संघटना नहीं है, वात्स्यायन जी के समय से ये होता रहा है. शमशेर के साथ इस मुद्दे पर भी हम एक बार फिर गिरिराज से बहस कर सकते हैं पर उस पर भगवा का लेबल लगाना एक सामाजिक-साहित्यिक और मानवीय ग़लती होगी. गिरि की पत्रिका प्रतिलिपि के सत्तर फीसदी लेखक लाल हैं, जिनमें पंकज, शिरीष, व्योमेश आदि भी शामिल हैं. उसने गुजरात पर भी विशेष सामग्री दी है, जिसमें व्योमेश का किया कविता चयन शामिल है और उसके कवि हैं – विष्णु खरे, कात्यायनी, मॅंगलेश डबराल, देवीप्रसाद मिश्र आदि – कृपया एक निगाह उस सब पर भी डालें. उसे भगवा कह कर आप फिर भूल कर रहे हैं धीरेश भाई, या फिर ये टिप्पणी करके शायद मैं कोई भूल कर रहा हूँ.

    गिरिराज से भी अनुरोध है कि भगवा वाली बात भूल कर बाक़ी बातों पर अपना पक्ष रखें……….यक़ीन है वो ऐसा करेंगे. और धीरेश भाई आपसे मेरा पुराना अनुरोध बरक़रार है कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर एक नई पोस्ट लिखें.

  30. चलिए यह तो तय हुआ कि नज़रंदाज़ करना कितना मुश्किल होता है!

    शमशेर की कविता की पढ़त जिन शक्ति केन्द्रों की ओर ले जा सकती है वे एक शीतयुद्ध रत विश्व के दोनों पक्ष हो सकते हैं-उन दिनों एक दूसरे को किसी का एजेंट कहना उतना ही आसान था जितना आजकल किसी को राष्ट्रवादी या राष्ट्रद्रोही.

    कवि – कुछ उग्र कुछ शांत,कुछ जाहिर कुछ कम जाहिर ढंग से – अन्याय की संरचनाओं को समझने की कोशिश करते हैं उनका रंग कोई भी हो। जैसा शिरीष ने कहा था बाकी तो मेरा भी काम ही बोलेगा। अगर किसी को फुर्सत हो उसे देखने की.

  31. "….तुलसी के काव्य-नायक राम ने जितना मुझे अभिभूत किया है , शायद ही किसी ने किया हो . और उन्हीं राम की यह विशेषता है कि सारी दुनिया का मालिक होने के बावजूद उनकी चाल में 'सहजता' है—–"सहजहिं चले सकल जग स्वामी ." एक और प्रसंग में राम की विनयशीलता और आत्मवत्ता देखते बनती है—–"भृगुपति बकहिं कुठार उठाये / मन मुसकाहिं राम सिर नाये ." तो मित्र , यह बात है….. "
    – पंकज चतुर्वेदी

    बंधुओं मुझे लगता है पंकज की ऊपर लिखी पंक्तियां भी पल्लवन की मांग करती हैं।

    तो मित्र , यह बात है…..

  32. आप मित्रों की बैठक में दखल देने के खेद है। हद है भाई लोगों, तोता के पीछे क्यों पड़े हो।

    शिरीष जी के वचनों की दुहाई देते हुए कहुंगा,यह ब्लाग कविता का ब्लाग है,इस बहस में बहस के केन्द्र का ध्यान रखें और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर बहस करनी हो तो उस पर एक पोस्ट लिखें। उस पर जो बहस होगी उसमें लाल,गुलाबी,हरा,नीला,पीला,केसरिया और काला समेत सभी रंगों की पहचान कर ली जाएगी। या फिर तख्ती लगा दें आउटसाइडर नाट अलाउड….

    पंकजी जी शमशेर के गद्यांश पर बहस से मुँह फेर कर गिरिराज किराडू से निपटने में व्यस्त हैं !!
    उनसे पूछता हूँ, कविराज कहाँ व्यस्त है ? मेरे प्रश्नों का उत्तर कब देंगे ?

    खैर आप लोगों के मनोरंजन के लिए पेश है,

    अगर कहीं मैं तोता होता
    तोता होता तो क्या होता ?
    तोता होता।
    होता तो फिर ?
    होता,फिर क्या ?
    हेता क्याा ? मैं तोता होता।
    तोता तोता तोता तोता
    तो तो तो तो ता ता ता ता
    बोल पट्ठे सीता राम

  33. बहुत दिनों से साहित्य के नाम पर यह थुक्का फ़ज़ीहत देख रहे हैं. इसके लिए खुद शिरीष भाई भी ज़िम्मेदार हैं जो इसमें घुसते चले गये और आज दिन ये आया की एक लेखक उनके लाल होने पर संदेह और व्यंग्य कर रहा है. मैं शिरीष भाई को उन दिनों से जनता हूँ जब वो आई पी एफ के लिए चंदा लेने गली गली घूमते थे. रात रात भर वाल राइटिंग करते थे. जनमत तब पाँच रुपये की आती थी और पार्टी कार्यकर्ताओं की पत्रिका थी, वो भी शिरीष भाई के पते पर ही आती थी और उसे बेचने वे घर घर जाते थे. मैं तब इंटर में था, फिर कालेज में आया तो आइसा की राजनीति से परिचय करने वालों में वो एक थे. आज भी वे पार्टी के दुख सुख में साथ खड़े आते हैं, हाँ पर इतना ज़रूर है कि लेखक संगठन से उन्होने दूरी बना ली है जो हमें दिखयी देती है. दुख होता है कि उन्हें आज एक लेखक से अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता के लिए यह सब सुनना पड़ रहा है. पंकज चतुर्वेदी जी आप बतायें कि किसी भी लाल पार्टी की ज़मीनी राजनीति में आपका क्या योगदान है? शिरीष जी के बारे में पता करना हो तो उत्तराखंड में कामरेड इन्द्रेश मैखुरी, गिरिजा पाठक, पुरषोत्तम शर्मा आदि को फ़ोन करें. और अगर आप सिर्फ़ साहित्य में हैं तो वहीं रहिए, लाल को बख़्श दीजिए.

  34. १.
    यात्रा कर रहा था. इसलिए देर हुई रेस्पोंड करने में – यह इसलिए कि इसे भी 'चुप्पी' न समझ लिया जाय.

    २.
    प्रतिलिपि अब तक बिना किसी तरह के संस्थानिक, सांगठनिक, कारपोरेट सहयोग के निकल रही पत्रिका है और इसके संपादक कई बार सम्पाद्कीयों एवं साक्षात्कारों में पत्रिका के लेखकों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित कर चुके हैं जिनके लेखकीय सहयोग से ही यह पत्रिका जैसी है बनी है. मैं फिर से दोहराना चाहूँगा कि उसमें प्रकाशित होने वाले सब लेखकों के प्रति हम कृतज्ञ हैं. यह इसलिए कि पंकज भाई की टिप्पणी का एक पाठ ऐसा किया जा सकता है कि शिरीष 'बीच-बचाव' करने इसलिए आये कि वे मेरे द्वारा संपादित पत्रिका के लेखक रहे हैं. मैं यह कहूँगा कि शिरीष कोई अज्ञात लेखक नहीं हैं. वे जाने पहचाने, पुरस्कृत, और अगर प्रचलित मुहावरे में कहूं तो 'प्रतिष्ठित' लेखक हैं, वे किसी एक पत्रिका में प्रकाशित हों या नहीं यह कोई बड़ी बात नहीं. यही बात पंकज जी और समस्त अन्य लेखकों के बारे में है – हम उनके कृतज्ञ हैं और यह कृतज्ञता हमेशा बनी रहेगी.


    जैसा रंगनाथ ने कहा है यह कुछ अधिक ही मित्रों की बैठक हो गयी है. मैं शमशेर की कविता की पढ़त बता चुका हूँ. मैं फिर कहता हूँ शमशेर जैसे विराट विजन, विश्वद्रष्टि वाले कवि की यह कविता जिन शक्ति केन्द्रों की और इंगित कर रही है वे शीतयुद्ध के दोनों पक्ष हो सकते हैं- उन पक्षों ने तब इस पृथ्वी पर हर मानवीय गतिविधि को डिफाईन किया या करने की कोशिश की थी. क्या यह अमूर्त बात है?

    पहले यह बहस थी भगवा कौन अब है लाल कौन. अगर यह 'किसी के भी खुद नहीं औरों के तय करने का मामला है तो मैं अपने बारे में क्या कहूँ – सफाई मांगने वाले नहीं थकते तो देते हुए न थकना ही एक मात्र चारा है. एक अज़ब स्केनिंग मशीन से गुज़र रहा हूँ- एक अज़ब डिकोडर से जो उदास और क्रश होने को 'खुशी' और 'उत्साह' में ट्रांसलेट करता है. स्माइली का मतलब 'नागवारी' करता है.

    मित्रों यह लिंक देखिये और तय कीजिये कि अपने वक़्त के सवालों पर मेरा स्टैंड क्या है. यह सम्पादकीय छपे एक महीना हो चुका. इसमें कमबख्त वो लफ्ज़/फ्रेज़ 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' भी प्रयुक्त हुआ है:

    http://pratilipi.in/2009/07/editorial-june-2009/

    चलिए सभी तोतें हो जाएँ -सभी उसी "एक" जुल्फ के असीरी हो जाएँ. क्या नैतिक समतुल्यता है. कैसा वहदत-उल-वजूद है. सब तोता है. अलख निरंजन.

  35. mujhe lagta hai ki bhgwe rang ke chhatte ka istemaal ham apni suvidha aur kisi ko other thahrane ke liye karte hain. shamsher ki itni gambheer salah ka ye asar hua ki ham ek doosre ka rang pahchanne men lag gaye. girirajji ne tote wali kavita ka achha sandarbh diya, lekin uske upar bahas karne ki jagah unko bhagwa thahrane men lag gaye. giriraj kiraroo ka sara kaam isi virtual world par maujood hai, usko dekh kar batayen unka rang kya hai? is tarah bina parhe kisiko khariz kar dena kya fasiwad nahi hai?

  36. शमशेर जी की बातों में बहुत कुछ ऐसा भी है जो पहले पाठ में एक भविष्य वक्ताे जैसा लगता है, कवि दृष्टाो होता है, शायद इसीलिए। हालांकि उनकी कई स्थामपनाओं से मैं सहमत हूं और लगता है कि ऐसी स्थाहपनाएं कमोबेश सभी पर लागू हो सकती हैं। लेकिन बहुत सी बातें ऐसी हैं जो हिंदी के कवियों पर ही लागू हो सकती हैं। शमशेर जी की सीख को मेरे खयाल से इस रूप में भी देखना चाहिए।
    इस विवादित हो चुके प्रकरण में मैं शिरीष और उन तमाम लोगों के साथ हूं जो बिला वजह गिरिराज को गलियाने की खिलाफत करते हैं। आजकल यह आम खेल हो गया है कि जरा सी बात को तूल देकर राई का पहाड़ बना दिया जाता है। जिस वामपंथ की शमशेर बात करते हैं, उसमें इस प्रकार की परनिंदा का कोई अर्थ नहीं, बिना साक्ष्यज और तथ्यों के किसी को कुछ भी साबित कर देना उचित नहीं है। यदि कोई हमारे साथ नहीं है या भिन्न, विचार का है तो उसे शत्रु मान लेना बौद्धिक दिवालियापन है। और इसमें कोई शक नहीं कि गिरिराज वामपंथी नहीं तो कम से कम वाम-विरोधी भी नहीं है। लेकिन ‘जिद्दी’ का क्याद किया जाए, अब जिद पकड़ ली है तो काहे को छोड़ेंगे। हम यदि वाम और वाम समर्थकों का कोई विशाल समूह बनाना चाहेंगे तो उसमें गिरिराज जैसे अनेक लोग शामिल होंगे। एक बेहतर रचनात्माक बहस और वातावरण इस किस्मा के प्रयासों से ही संभव है। मेरे खयाल से इस बहस को अब विराम देकर आगे बढना चाहिए। शुभस्य शीघ्रम।

  37. अब बहस उस मक़ाम पर आ गयी है , जहाँ मेरे कुछ भी कहने का कोई मानी दरअसल बचा नहीं है . किराडू जी कह सकते हैं कि वह पहले भी नहीं था . सिर्फ़ "एक अजब स्कैनिंग मशीन " और
    एक "अजब डीकोडर " था . ये वही किराडू जी हैं , जो कुछ समय पहले तक किसी भी चीज़ के हर पाठ के सही होने की हिमायत कर रहे थे और किसी भी पाठ को मंज़ूर न किये जाने को फ़ासिज़्म
    की भयावह संज्ञा से अभिहित कर रहे थे ! अब उन्होंने मेरे लिखे का एक पाठ यह किया है कि मैं यह कह रहा था कि शिरीष जी ने बीच-बचाव इसलिए किया कि वे 'प्रतिलिपि ' में छप चुके हैं ; जबकि मैंने यह लिखा था कि कृतग्यताओं को आलोचना , बहस या मूल्यांकन के आड़े क्यों आना चाहिए ? कृतग्य तो हम सभी तमाम वजहों से एक-दूसरे के प्रति हैं , फिर किसी भी क़िस्म की बहस
    की गुंजाइश रह जाती है क्या ? दूसरी बात मैंने यह लिखी थी कि जब यह भी सही है और वह भी सही ; तो आप कहना आखिर क्या चाहते हैं ? इन सवालों का जवाब देने की बजाए किराडू जी ने मुझे यह बताना शुरू कर दिया कि शिरीष हमारे समय के प्रतिष्ठित साहित्यकार हैं . इस अंदाज़ में , जैसे उनसे मेरी असहमति हो ! वैसे शिरीष का परिचय उन्होंने मुझसे करा दिया , इसके लिए जितना
    भी उनका शुक्रिया करूँ , कम होगा ! मुझे तो हमेशा यही लगेगा कि शमशेर की तोते वाली कविता को सामने लाकर भी किराडू जी उस पर अपने मन की बात कहने से रह गये ! शायद फिर कभी कहें !
    शुभ मुहूर्त में —–"विश्वामित्र समय शुभ जानी ——–!"

    baharhaal . अभी तक शिरीष जी ने स्वयं यह लिखा है कि kiradoo जी "vaam के komal virodh और aadhuniktaa के mishran से vaatsyaayan जी की paramparaa में
    कोई anoothaa vichaar pakaa रहे हैं ." अब यह kahaa जा रहा है कि kiradoo जी vaampanthiyon के samarthak हैं और यह कि unhen saanskritik raashtrvaadi या bhagwaa न kahaa जाए . यह पहले भी किसी ने नहीं kahaa था , फिर भी लोग इस nishkarsh तक पहुँच गये ; तो क्या इसे "एक अजब स्कैनिंग मशीन " और एक "अजब डीकोडर " का jaadoo नहीं maanenge ?

    एक sawaal यह uthaayaa गया है कि shireesh जी sachche vaampanthi हैं . hamen इस पर भी कभी कोई shak नहीं था . hamaaraa israar सिर्फ़ यह था और rahegaa कि saahityik मूल्यांकन के ख़ास sandarbh में यह nirnay karnaa vyaapak saamaany jantaa और आगे आने वाली peedhiyon का visheshaadhikaar है कि कौन क्या था या कि है !
    —–pankaj chaturvedi
    kanpur

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