तुम्हारे पंजे देखकर
डरते हैं बुरे आदमी
डरते हैं बुरे आदमी
तुम्हारा सौष्ठव देखकर
खुश होते हैं अच्छे आदमी
खुश होते हैं अच्छे आदमी
यही मैं चाहूँगा सुनना
अपनी कविता के बारे में .
( 1941-47 )
( अनुवाद : मोहन थपलियाल )
अपनी कविता के बारे में .
( 1941-47 )
( अनुवाद : मोहन थपलियाल )
विशेष : बेर्टोल्ट ब्रेख्त की यह कविता कहन की सादगी और आकार में बहुत छोटी होने के बावुजूद कविता पर लिखी गयी विश्व की महानतम कविताओं में-से है . यहाँ ब्रेख्त जिस तरह की कविता की कामना करते हैं और जैसी उन्होंने लिखी भी हैं ; वैसी कविता लिख पाना शायद प्रत्येक कवि का स्वप्न होता है . इसीलिए ‘ दहलीज़ ‘ के अंतर्गत इस बार यही कविता प्रस्तुत की जा रही है .
भाई शिरीष जी आप खुद एक कवि हैं और बेहद प्रशंसायोग्य और प्रशंसाप्राप्त कवि हैं और भाई पंकज जी आप को मैं समकालीन हिन्दी आलोचना के घुप्प अंधेरे में मशाल लिए खड़ा एक अत्यंत समर्थ आलोचक मानता हूँ – अब आप दोनों सज्जन ये बताइए कि दहलीज़ पर नये कवियों के सामने रखने के लिए कोई हिन्दी कवि नहीं है क्या?
तल्ख़ जुबान जी, पंकज जी ने पूर्व मे ही यह घोषित कर दिया है कि वे विश्व साहित्य से चुनिन्दा रचनाये यहाँ प्रस्तुत करेंगे . हिन्दी के कवियों को देखना हो तो शरद कोकास सहित अन्य बहुतों के ब्लॉग्स है वहाँ देखिये. पंकज जी ..बढिया है आप ऐसी ही कवितायें प्रस्तुत करते रहिये.कृपया ब्रेख्त की चर्चित कविता "सरकार इस जनता को भंग कर अपने लिये दूसरी जनता चुन ले " का पाठ भी यहाँ प्रस्तुत करें.
प्रिय भाई ,
' दहलीज़ ' के तहत हिन्दी कवियों की कविताएँ जल्द ही पोस्ट की जायेंगी . यह भविष्य के बहुत बड़े कॉलम के तौर पर परिकल्पित है . ज़ाहिर है , इसका कैनवस भी धीरे-धीरे विशाल ही होना है . कृपया 3 प्रस्तुतियों के आधार पर पूरे कॉलम के चरित्र और स्वरुप का विचार मत कीजिये ! अभी कोशिश यह भी है कि प्रायः दुर्लभ चीज़ों को सामने रखा जाय . आगे आपको ' दहलीज़ ' में कुछ बहुत चुने हुए गद्यांश भी पढ़ने को मिलेंगे , सिर्फ़ कविताएँ नहीं . शुरूआती घोषणा में यह बात छूट गयी थी , इसलिए जोड़ रहा
हूँ .
—–पंकज चतुर्वेदी
कानपुर
पंकज जी आपकी बात समझ में आई. शरद कोकस की बात अत्यंत अंहकार पूर्ण है, शरद जी महज एक पुरातत्ववेत्ता के बल पर ऐसे तेवर ठीक नहीं. हम तो पाठक हैं, लेखक नहीं कि बंदरों की तरह एक दूसरे के जुएँ बीनते रहे. हमें जो ठीक लगेगा कहेंगे और हमने तल्ख़ बात शिरीष जी और पंकज जी से कही थी और वो भी पूरे सम्मान के साथ.
तल्ख़ ज़ुबान जी !
शरद जी के प्रति आपका रवैया कुछ ज़्यादा तल्ख़ लग रहा है, मैं आपसे असहमति व्यक्त करता हूँ.
वैसे ब्लॉग की दुनिया में आपका स्वागत है पर इस अनुरोध के साथ कि बिना बात ही ना बरस पड़ें….कोई मुद्दा भी खोजें !
इस कविता के अनुवादक स्वर्गीय मोहन थपलियाल के बारे में कुछ पंक्तियाँ होतीं तो अच्छा रहता.
सुनील
अरे भाई कविता वैसे भी विश्व नागरिक होती है
आप ब्रेश्ट की जगह हिन्दी को क्यूं पढना चाहेंगे?
यह कविता न जाने कितनी बार पढी है और हर बार आकर्षित करती है। पंकज भाई का आभार कि इसे एक बार और पढवाया
सच में अगली क़िस्तों का इंतज़ार रहेगा।