धातुएंसूर्य से अलग होकर पृथ्वी का घूमना शुरू हुआ
शुरू हुआ चुंबकत्व
धातुओं की भूमिका शुरू हुई
धातु युग से पहले भी था धातु युग
धातु युग से पहले भी है धातु युग
कौन कहता है कि धातुएं फलती-फूलती नहीं हैं
इन दिनों
फलों और फूलों में वे सबसे ज़्यादा मिलती हैं
पानी के बाद
मछलियों और पक्षियों में होती हुई
वे आकाश-पाताल एक कर रही हैं
दफ़्तर जाते हुए या बाज़ार
या घर लौटते हुए वे हमें घेर लेती हैं धुंए में
और ख़ून में घुलने लगती हैं
चिंतित हैं धातुविज्ञानी
कि असंतुलित हो रहे हैं धरती पर धातु के भंडार
कि वे उनके जिगर में, गुर्दों में, नाखूनों में,
त्वचा में, बालों की जड़ों में जमती जा रही हैं
अभी वे विचारों में फैल रही हैं लेकिन
एक दिन वे बैठी मिलेंगी
हमारी आत्मा में
फिर क्या होगा
गर्मी में गर्म और सर्दी में ठंडी
खींचो तो खिंचती चली जायेंगी
पीटो तो पिटती चली जायेंगी
ऐसा भी नहीं है
कि इससे पूरी तरह बेख़बर हैं लोग
मुझसे तो कई बार पूछ चुके हैं मेरे दोस्त
कि यार नरेश
तुम किस धातु के बने हो !
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(16 जनवरी 1939 को ग्वालियर में जन्मे नरेश सक्सेना हिंदी कविता के उन चुनिन्दा ख़ामोश लेकिन समर्पित कार्यकर्ताओं की अग्रिम पंक्ति में हैं, जिनके बिना समकालीन हिंदी कविता का वृत्त पूरा नहीं होता। वे विलक्षण कवि हैं और कविताओं की गहन पड़ताल में विश्वास रखते हैं, इसका एक सबूत ये है कि 2001 में वे `समुद्र पर हो रही है बारिश´ के साथ पहली बार साहिबे-किताब बने और 70 की उम्र में अब तक उनके नाम पर बस वही एक किताब दर्ज़ है – इस पहलू से देखें तो वे आलोकधन्वा और मनमोहन की बिरादरी में खड़े नज़र आयेंगे। वे पेशे से इंजीनियर रहे और विज्ञान तथा तकनीक की ये पढ़ाई उनकी कविता में भी समाई दीखती है। वे अपनी कविता में लगातार राजनीतिक बयान देते हैं और अपने तौर पर लगातार एक साम्यवादी सत्य खोजने का प्रयास करते हैं। कविता के लिए उनकी बेहद ईमानदार चिन्ता और वैचारिक उधेड़बुन का ही परिणाम है कि कई पत्रिकाओं के सम्पादक पत्रिका के लिए सार्थक कविताओं की खोज का काम उन्हें सौंपते हैं। कविता के अलावा उनकी सक्रियता के अनेक क्षेत्र हैं। उन्होंने टेलीविज़न और रंगमंच के लिए लेखन किया है। उनका एक नाटक `आदमी का आ´ देश की कई भाषाओं में पांच हज़ार से ज़्यादा बार प्रदर्शित हुआ है। साहित्य के लिए उन्हें 2000 का पहल सम्मान मिला तथा निर्देशन के लिए 1992 में राष्ट्रीय फि़ल्म पुरस्कार।)
वाकई नरेश जी किस धातु के बने हैं इसकी पडताल होनी चाहिए। इस उम्र में भी उनकी ऊर्जा और उनका उत्साह तो हम अपने में पाते नहीं। पिछले दिनों देहरादून में थे तो निकट से देखना हुआ।
बहुत गहरी बात कह गए आप इस रचना के माध्यम से
good poem. please extend my feelings to the poet. your blog is always on my watch. I also like it for your concern about hindi poetry. my best wishes.
बढ़िया कवितायें पढ़ा रहे हैं ! गिरिराज जी की टिप्पणी के बाद भी आप "साम्यवादी सच" की बात कर रहे हैं? उनकी बात जैसे हाई लाइट किए हैं, उससे लगता है दोस्ती भी है उनसे और इस पोस्ट में फिर "साम्यवाद" का मतलब असहमति भी है ! ये ग़ज़ब का रिश्ता है ! खींचतान चलती रहे – मज़ा आ रहा है! अंत में कोई ठोस निष्कर्ष भी निकलेगा ज़रूर.
धातुएं अपनी तन्यता के गुण के कारण जहां मनुष्य के कोमल भाव को बचा पाती है वहीं उसका ठोसपन मनुष्य को लिजलिजेपन के खिलाफ खडा करता है.इस कविता को हम तक लाने के लिए आभार.
धन्यवाद शिरीष ,नरेश जी पिछले दिसम्बर मे नरेश चन्द्रकर के सम्मान के अवसर पर छिन्दवाडा मे भेंट हुई थी इस उम्र में भी उनका पाठ उर्जा से भरपूर है.विजय ने ठीक कहा है.धातुएँ उनके भीतर रच-बस गई हैं.
aaj ki kavita.
sachchi kavita !
शुक्रिया दोस्तो !
किशोर जी आपने गिरिराज से मेरे रिश्तों को भाँपने- आँकने की कोशिश की – वो मेरा प्रिय मित्र है और मित्रता में खींचतान ना हो तो काहे की मित्रता ! समकालीन परिदृश्य में गिरि जैसा अध्ययन और सूझ बूझ रखने वाले कम लोग हैं. रहा साम्यवाद, तो मेरे लिए अपनी जगह वो भी अटल है और अब भी बहस का मुद्दा बना हुआ है, यह उसकी सफलता है!
SHIREESH Bhai, vakaii bahut achhi kavita hai.
………kavita ki aakhiri panktiya dhatuo ki dhadkan suna jati hai……….
नरेश जी को पढऩा हमेशा सुखद होता है, सुनना उससे भी सुखद. उनकी तो हर बात में कविता होती है. एक बार फिर से आनंद की अनुभूति!
mere priy kavi……sukhad laga.
अभी पिछले दिनों ही नरेश जी से गुवाहाटी में मिलना हुआ था, उन्हें सुनना अच्छा लगता है।