कमल जीत चौधरी चर्चित युवा कवि हैं। अनुनाद को दोबारा सक्रिय करते हुए मैंने उनसे हिन्दी कविता में इधर चल रही बहसों पर एक लेख माँगा था। सरकारी नौकरी की व्यस्तता और इधर खड़े हुए महामारी संकट के बीच हमारे इस युवा साथी ने यह तेजस्वी आलेख भेजा है। अननुाद कमल जीत चौधरी को इस आलेख के लिए शुक्रिया कहता है।
साहित्य में राजनीति पर चल रहे लाइव शो के बरअक्स इस युवा कवि का यह लेख पढ़ेंगे तो पाऍंगे कि हिन्दी की ताक़त दरअसल कहीं और है – वह बड़े शहरों और बड़े लोगों की संगत में अपने सत्ताकेंद्र नहीं बना रही है, बल्कि अपने लोगों के घर रह रही है। वह सत्ता नहीं, जनता है। सोचिये कि देश में हिन्दी हर किसी की मातृभाषा ही नहीं है, वह किसी के पसीने का नमक भी है। याद दिलाऊँ कि कमल के कविता संग्रह का नाम ही ‘हिन्दी का नमक’ है, जिसे अनुनाद सम्मान के अन्तर्गत प्रकाशित करना अनुनाद का गौरव रहा है।
इधर शिक्षण संस्थानों के हवा हवाई वेबिनारों की तर्ज़ पर ज़्यादातर हिन्दी कवियों ने फेसबुक लाइव को चुनकर अपने वर्गबोध को स्पष्ट कर दिया। एकाध साल बाद इसका मूल्यांकन ज़रूर होना चाहिए कि इन लाइव का लाभ किसे हुआ। इन्हीं लाइवस में से एक लाइव हिन्दी के वरिष्ठ कवि संजय चतुर्वेदी का भी था, जिनके लाइव के बाद फेसबुक पर एक तूफ़ान आ गया। उन्होंने बीते चार दशकों के हिन्दी कविता परिदृश्य पर बात करते हुए आठवें दशक के कवियों पर गम्भीर आरोप लगाए। समकालीन परिदृश्य को उन्होंने तीन सौ लोगों का गिरोह बताया। उन्होंने आठवें दशक के कुछ कवियों को छंद, भाषा और हिन्दू मनीषा (मैं इसे भारतीय मनीषा समझ रहा हूँ) और परम्पराओं के नुकसान का ज़िम्मेवार ठहराया। उन्होंने कहा कि इन कवियों ने एक निश्चित एजेंडे के तहत अनुवाद की भाषा में कविताएँ लिखीं। उसके बाद से भाषा व छंद को लेकर फेसबुक पर काफी कुछ कहा जा रहा है, जिसे पढ़कर हिन्दी के खूँटों को जाना जा सकता है। कविता पर विचार करते हुए भाव, कल्पना, भाषा, बिंब, प्रतीक, छंद, अलंकार, सौन्दर्य, ध्वनि, वक्रोक्ति आदि पर दर्जनों आलेख लिखे गए हैं। इस पर कुछ मौलिक कहने लिखने के दावे से परे मैं सामान्य भाषा में भाषा और कविता से संबन्धित कुछ सवाल और बातें रख रहा हूँ।
1-कॉपी टू ऑल
प्रिय पाठको,
ऐसा नहीं है कि आप ही मेरे पाठक हैं, मैं भी आपका पाठक हूँ। मैं लगातार आपको पढ़ता हूँ। मैं आपको ठीक भी करता हूँ। आप मुझे दुरुस्त करना भूल गए हैं। कविता की भाषा कैसी हो, इस सवाल का उत्तर इसमें निहित है कि मैं कविता क्यों या किसके लिए लिखता हूँ। आप मुझसे यह सवाल क्यों नहीं करते। मेरा लिखा जिस प्रकार की भाषा में आप तक पहुँचता है, वह भाषा आपकी आत्मा को छू पाती है? यह भी मालूम हो जाए कि आप कविता क्यों पढ़ते या सुनते हैं और आप किसकी कविता पढ़ते अथवा सुनते हैं, तो कविता की भाषा पर दो तरफा बात हो। आपकी भाषा-बोलियों में सदियों का इतिहास, संस्कृतियाँ, मौखिक साहित्य है। आपके कंठ में पीड़ा के महाख्यान और मिट्टी के उत्सव हैं। परम्पराएँ, सामूहिक संघर्ष, त्याग, बलिदान और मानवता आपका अभिन्न हिस्सा हैं। पर देखना यह भी है कि पितृसत्ता, जातिवाद, सांप्रदायिकता, अंधविश्वास, सामंतवाद, भाषा-बोलीवाद, क्षेत्रवाद, रंग भेद किसकी रगों में दौड़ता है? इनसे किसे लाभ मिलता है।
आप श्रोता और दर्शक भी हैं। मान लें कि मैं हनी सिंह हूँ, अमिताभ बच्चन हूँ, टी. वी. पर डिबेट करता कोई धार्मिक गुरु अथवा पत्रकार हूँ, शिक्षक हूँ, प्रधानमंत्री हूँ। इन सभी रूपों में मेरी भाषा कौन सी है यह कम मायने रखता है पर मेरी भाषा कैसी है, यह बहुत कुछ निर्धारित करता है। क्या मेरे कवि रूप का कहन भी दूसरे रूपों जैसा ही है? आप मुझसे एक तरफा मोहब्बत कर रहे हैं या कि मैं भी अपना दिल हथेली पर लेकर आपके सामने खड़ा हूँ। या कि मेरा ही प्यार एक तरफा होता जा रहा है और आप किसी दूसरे के इश्क़ में कैद हो गए हैं?
हमारी शिक्षा व्यवस्था से लेकर रसोईघर तक में उत्तर से ही मूल्यांकन करने की वृत्ति पनप गई है। जबकि मूल्यांकन सवाल से भी होना चाहिए। आप सवाल करना क्यों भूल गए हैं। मेरी तरह आप भी एक प्रश्नपत्र बनाकर भेजें, और इसे कॉपी टू ऑल कर दें। देखें कि उत्तर कहाँ-कहाँ से और किस प्रकार के मिलते हैं।
2- शौक़-ए-दीदार है अगर तो…
कविता से लेकर नाटक, मदारी से लेकर सियासत, व्यापार से लेकर धर्म आदि क्षेत्रों में इस्तेमाल होने वाली भाषा पर हमारी ईमानदार नज़र रहनी चाहिए। इसके लिए हमें सब्जी स्वयं खरीदनी चाहिए, दूधवाले से बातें करनी चाहिए, खोमचे पर चाय पीनी चाहिए, बुजुर्गों के पास बैठना चाहिए, पुलियों, ढाबों व बस-ट्रक अड्डों पर ज़रूर रुकना चाहिए, पब्लिक ट्रांसपोर्ट व रेल के आम डिब्बों से यात्रा करनी चाहिए, झोपड़ पट्टियों में जाना चाहिए, गाड़ियों और दीवारों पर लिखे हुए को ध्यान से पढ़ना चाहिए, अपनी खेती न भी हो तो भी दराँती, हल, बैल, मेड़, बुआई, रोपाई आदि से रिश्ता रखना चाहिए, तसले, फावड़े और कुदाल को छूते रहना चाहिए, प्रकृति की गोद में खेलना चाहिए और सबसे बड़ी और अंतिम बात, स्त्रियों की और दूसरे धर्मों व जातियों की दुनिया के भीतर नियमित जाते रहना चाहिए। इन जगहों पर ही मुहावरे, लोकोक्तियाँ, लोकगीत की धुनें, पुरखों की गालियाँ, मिथक, किंवदंतियाँ और तद्भव का सौन्दर्य विद्यमान है। इन जगहों को छूए बिना कोई भी कवि एक अच्छी व प्रामाणिक भाषा अर्जित नहीं कर सकता है। जबकि हममें से ज़्यादातर कवि भीष्म साहनी कृत ‘चीफ की दावत’ के शामनाथ हुए जा रहे हैं। हम भूल रहे हैं कि माँ को छुपा कर आत्मा को भी तरक्की नहीं मिलेगी। साहब के लिए हमारी ‘माँ’ शर्म की बात नहीं है। वह तो हमारी माँ से मिलकर खुश होगा। उसे कमरे से बाहर आने देकर या उसके पास बैठकर ही हम असली भाषा तक पहुँच सकते हैं। कविता लिखने से पहले अनिवार्य रूप से माँ की बनाई फुलकारी या रोटी को याद कर लेना चाहिए।
हिन्दी या कोई अन्य भाषा बोलते हुए मज़दूर, किसान, सिपाही, स्त्री, दलित, अल्पसंख्यक, आदिवासी, थर्ड जेंडर, राजनीतिक कार्यकर्ता आदि के साथ-साथ चाइल्ड लेबर और स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाली पीढ़ी की भाषा एक जैसी नहीं है। मैं सोचता हूँ कि यह किससे प्रभावित हैं, यह भी देखता हूँ कि इनसे कौन प्रभावित हो रहा है। इस पर एक सर्वे अथवा शोध किया जा
सकता है कि अलग- अलग क्षेत्रों के लोगों के पास कितना बड़ा शब्दकोश है। आम आदमी के पास बोलने-बतियाने व रोटी कमाने के लिए कितने शब्द हैं। आम बोलचाल में सबका लहजा एक ही है? यह देखा जाना चाहिए कि भाषा सिर्फ शब्दों का अम्बार लगाने से समृद्ध होती है या कि उसे बरतने का सलीका उसे नया रूप देता है। मेरा निजी मत है कि भाषा को बरतने का सलीका एक आदमी को दूसरे आदमी से अलग करता है। आग, पानी, चाकू, किताब, फूल आदि को इस्तेमाल करने का ढंग ही किसी कवि की काव्य पंक्ति को अलहदा, औसत अथवा निकृष्ट बना सकता है। यानी एक ही भाषा, लगभग एक ही शब्दावली, एक ही प्रदेश अथवा समान पृष्ठभूमि लिए हुए दो कवियों की भाषा भी अलग हो सकती है। क्यों? क्योंकि दोनों के सरोकार उनकी काव्य भाषा व कहन को प्रभावित करते हैं।
कवि को आम आदमी की दुनिया में हस्तक्षेप करने के सार्थक रास्ते तलाश करने होंगे, नई परम्पराएँ स्थापित करनी होंगी, अपनी परम्पराओं व उदात्त मूल्यों को भी आत्मसात करना होगा। और पाठकों को भी साथ जोड़ना होगा। इसके लिए अमीर खुसरो, विद्यापति, तुलसी, कबीर, सूर, जायसी, नानक देव, मीरा, रसखान, घनानन्द, बुल्ले शाह, बारिस शाह, ग़ालिब, निराला, महादेवी वर्मा, त्रिलोचन, केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, मुक्तिबोध, फिराक, नीरज, पाश, शिवकुमार बटालवी, वेणु गोपाल, रघुवीर सहाय, धूमिल, चंद्रकांत देवताले, राजकमल चौधरी, आलोकधन्वा, वीरेन डंगवाल, ओम प्रकाश वाल्मीकि, विद्यारत्न आसी जैसे हिन्दी, उर्दू और पंजाबी कवियों के साथ-साथ गुजराती, मराठी, बंगाली, उड़िया, असमिया, मलयालम, कन्नड़ आदि भाषाओं के अलग-अलग विचारों के अच्छे कवियों को पढ़ना ज़रूरी है। इनकी काव्य भाषा से हम उदात्त व विविधता की ओर बढ़ेंगे।
3 – मुक्ति के रास्ते अकेले नहीं मिलते
लोगों का व्यवहार किसी भाषा को बचाता या ख़त्म करता है। साहित्य से जुड़कर कम मगर आजीविका से जुड़कर भाषाएँ अधिक प्रसारित होती हैं। कविता आग लगी हमारी दुनिया के बीच चिड़िया के चोंच का पानी है, जो कम है मगर चुप बैठे समुद्र की तरह निरर्थक नहीं है। पाठकों की संख्या घटने या बढ़ने से भाषा या काव्य शैलियाँ प्रभावित होती हैं। समय के साथ कविता की भाषा पीछे छूट जाती है, और कविता चिड़ियों के सामूहिक गान और उनकी चोंच से गिरते पानी की आत्मा में बची रहकर हमें जलने से बचाती रहती है।
दुनिया की महान कविता या कवि भी किसी भाषा को अकेले नहीं बचा सकते। संस्कृत, अवधी, ब्रज आदि भाषाएँ आज किस स्थिति में हैं, जबकि क्लासिक व लोक भाषाओं में लिखा गया साहित्य और इसके कवि अमर हैं। कालिदास, ग़ालिब, शेक्सपीयर, रबीन्द्र नाथ टैगोर आदि आदि मात्र सूचना या वस्तुनिष्ठ प्रश्न बनते जा रहे हैं। इनके नाम को लगभग सभी विद्यार्थी जानते हैं पर लगभग सभी को उनकी काव्यपंक्तियां याद नहीं हैं। फिलहाल उनकी कविता और काव्यभाषा आम मेहनतकश के जीवन में नगण्य भूमिका रखती है। साहित्य की जिस राजनीति और अन्य कारणों ने कविता को परफॉर्मेंस और कवि को परफॉर्मेर बना दिया, उसकी पड़ताल होनी चाहिए। अरुण कमल जी का मानना है कि कविता लिखने पढ़ने वालों की संख्या पहले भी कम थी अब भी कम है और भविष्य में भी कम होगी, परंतु इसे कोई खतरा नहीं है। वे इसे मचान कहते हैं, जहाँ से जीवन की लड़ाई जारी रखी जा सकती है। एकदम। दोस्तो, लेकिन सामूहिक सपनों की लड़ाई को परफॉर्मेंर के रूप में नहीं लड़ा जा सकता। कविता को हमने मचान से मंच बना दिया है।
अपने भाव में कविता असीम है। इसे कोई कवि अपनी विशिष्ट कला, शैली या कहन से पूरा-पूरा अभिव्यक्त नहीं कर सकता। कवि, पाठक, श्रोता और दर्शक एक बड़ी दुनिया की संवेदना को एक भाषा में व्यंजित होते हुए देखते हैं। इस शैली में वे एक दूसरे से मिलते, बतियाते हैं। हँसते और रोते हैं। एक समय के बाद वे इस विश्रामघर से अपनी-अपनी दुनिया में वापस चले जाते हैं। भाषा को बनाने बिगाड़ने का श्रेय और दोष सभी को है, और यह कागज़, मंच और प्रेक्षागृह के बाहर अधिक लिया और दिया जा सकता है।
कवियों को एक ऐसी भाषा अर्जित करनी चाहिए जिससे वे अपनी कविता के बाहर भी बौद्धिक चालाकियों, गिरोह, गुटबंधी या मठ अधीशों की शिनाख़्त कर और करवा सकें। गिरोह, पुरस्कार, निर्णायक समितियाँ, संपादक, प्रकाशक, अनुवाद की चमकती दुनिया की तुलना में सच्ची साहित्यिक दुनिया बहुत बहुत बड़ी है। इसका ध्यान रखते हुए हिन्दी कविता की बड़ी दुनिया को एकजुट करने का प्रयास होना चाहिए। समानांतर सिनेमा की भांति समानांतर साहित्य भी है, उस पर कभी बात नहीं होती। हाशियों पर लिखने, पढ़ने और बोलने वालों को यह ज़रूर सोचना होगा कि सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या ने दर्शकों को क्यों हिला दिया, और कवि प्रकाश की आत्महत्या पर क्यों कोई बात नहीं हुई। दूधनाथ सिंह जी द्वारा प्रस्तुत ‘एक अनाम कवि की कविताएँ‘ पढ़ते हुए कह रहा हूँ कि किसी दशक के मूल्यांकन से ज़्यादा ज़रूरी यह है कि हिन्दी में प्रतिभाओं के क़त्ल पर खुली बात हो। हिन्दी में आए दिन फेसबुक पर युवा कवियों की सूचियाँ बनती हैं। यह कभी भी पाँच दस नामों और तीन चार प्रदेशों से आगे नहीं बढ़ पातीं। क्या हिन्दी और उसकी भाषा का भविष्य इन्हीं सूचियों में है?
4 – संख्याबल
कवि साथियो, आप अपने विवेक और ईमानदारी पर भरोसा रखें। ऐसा न हो कि आप किसी का नेपकिन बन जाएँ। कवि को हमेशा समूह की आँख होना चाहिए। झुंड कभी भी लोकतान्त्रिक नहीं होते। आप चुपचाप अपने गाँव, कस्बे, शहर, महानगर को उसके अच्छे, बुरे भावों अनुसार लिखते रहें। कंटेन्ट अपनी भाषा शैली स्वयं चुन लेता है। पाठकों का संख्या बल देखकर किसी भाषा अथवा कविता भाषा की पैरवी नहीं की जानी चाहिए। पर यह ज़रूर देखा जाना चाहिए कि किसी कवि का पाठक कहाँ से आता है। कवि पाठक, शोधार्थी पाठक, मित्र पाठक, गुरूभाई पाठक, शिष्य पाठक, मठ-भाई पाठक, समीक्षक-आलोचक-पाठक और बधाई-पाठक के बाद बचा हुआ पाठक ज़्यादा प्रामाणिक पाठक होता है। सभी कवि आत्ममंथन अवश्य करें कि उनके पास अपने कितने और किस कोटि के पाठक हैं। और वे पाठक किस तरह की भाषा को अधिक पसन्द करते हैं, पाठकों के बीच से ही हमें उदात्त भाषा और उत्कृष्ट काव्य के प्रचार प्रसार की संभावनाएँ और अवसर तलाशने हैं। संख्याबल किसी चुनाव को भले प्रभावित करता रहे पर हमें पाठकों को नित नए पाठ देते रहना है। हमें त्वरित प्रतिक्रिया देने वाली भीड़ की भाषा को बदलने के लिए प्रयासरत रहना है। एक न एक दिन थोड़ा ही सही मगर संख्याबल ज़रूर बदलेगा।
5 – अनुवाद और कविता की भाषा
प्रचारित भले की जाए पर कोई भाषा ग्लोबल नहीं हो सकती। एक भाषा बोली से एक प्रदेश भी पूरी तरह अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता। भले अनुवाद मूल के साथ पूरा न्याय न करता हो, पर यह छोटी भाषाओं के साहित्य को बचाने का बड़ा ज़रिया बन सकता है। अगर किसी छोटी भाषा में अच्छा लिखने वाला लेखक अनिवार्य रूप से बड़ी भाषाओं में अनूदित व सम्मानित हो, तो नई पीढ़ी अपनी मातृभाषा को लेखन और अन्य कलात्मक कार्यों के लिए चुनने की प्रेरणा पाएगी। अन्यथा सच्चाई यह है कि इस दौर में ज़्यादातर हिन्दी लेखकों के बच्चे भी लेखन और व्यवहार के लिए अंग्रेज़ी अपनाते हैं।
हिन्दी में आ रहे अनुवाद की स्थिति अच्छी नहीं है। बंगला, मराठी, गुजराती, मलयालम, उड़िया, अंग्रेज़ी आदि में किए जा रहे अनुवाद की स्थिति वहाँ के कवि अनुवादक बता सकते हैं, मैं डोगरी से हिन्दी और हिन्दी से डोगरी में अनूदित अनुवाद का साक्षी हूँ। अपवाद को छोड़कर अधिकांश काम बहुत ख़राब है। संभवत: यही स्थिति अन्य भाषाओं की भी हो। ज़्यादातर हिंदीतर कवि अनुवादक हमारे चालाक (चालक) हिन्दी कवियों को महान समझ लेते हैं। यह अनुवादक हिन्दी की खराब कविताओं को अपनी भाषा में ले जाकर दोनों इलाकों के परिदृश्य को प्रभावित करते हैं। इससे यह वृत्ती पनपी है कि कवि मूल से अधिक अनूदित होकर छपना चाहता है। विदेशी भाषाओं में अनूदित हुए हमारे कवि अपने सीने पर हाथ रखकर सोचें कि क्या वे अकेले भारत का प्रतिनिधित्व करने की पात्रता रखते हैं। सामूहिक सपनों का नारा देने वाले बताएँ कि विदेश में जाने वाला यह अनूदित कार्य सामूहिक क्यों नहीं है? इसमें हर पीढ़ी और क्षेत्र को शामिल किए बिना इसे भारत या हिन्दी कविता का प्रतिनिधि बताना ग़ौर अनैतिक और फ़रेब है। यह ऐसे ही है जैसे अग्निशेखर, महाराज कृष्ण संतोषी, निदा नवाज़, योगिता यादव (या मैं ) यह कहें कि हिन्दी लेखक के रूप में हम ही जम्मू-कश्मीर के प्रतिनिधि हैं। जबकि सच यह है कि यहाँ दर्जनभर अच्छे कवि अपने रास्ते पर ईमानदारी से चल रहे हैं। यही बात अन्य भाषा के कवियों पर भी लागू होती है। इसलिए यह आवश्यक है कि सभी भाषाओं में समय समय पर स्तरीय सामूहिक प्रयास होते रहने चाहिए। क्षेत्रीय भाषाओं से हिन्दी में होने वाले अनुवाद को बढ़ावा देने के साथ-साथ इसके स्तर की ओर भी विशेष ध्यान देना होगा। इन भाषाओं के अनुवाद से हिन्दी भाषा समृद्ध होगी, नई भाषा शैलियों का विकास भी होगा।
6 – सत्ता, जनता और कविता की भाषा
सत्ता की कोई एक भाषा नहीं होती। भाषा उसके लिए अभिव्यक्ति का साधन नहीं बल्कि एक हथियार है। कोई भी सत्ता जन भाषा को भी इस्तेमाल कर सकती है और किसी विदेशी भाषा को भी। कवि को सचेत होकर इसे रेखांकित करते रहना चाहिए। हिन्दी में भी ऐसी कविताओं का अलग से स्वागत करना चाहिए जो भाषाई हीन भावना या आभिजात मानसिकता को दर्शाती हैं। कविता लिखते हुए हमारी प्राथमिकता कोई भाषा न होकर भाषा के माध्यम से अभिव्यक्त हो रही जन संवेदना, अधिकाधिक समता और मानव आत्मा हो। संकुचित अर्थों से ऊपर उठकर जो भी भाषा अथवा शैली मानव हित की बात करेगी, उसका स्वागत किया जाना चाहिए। हिन्दी या कोई भी भाषा अथवा उसका कहन बिलकुल निर्दोष नहीं हो सकता। जन भाषा में सरकारें बनती आईं हैं और जन भाषी भूख से मरते आए हैं। फिलहाल इस देश का सत्य यही है कि रोज़गार के प्रलोभनों के बीच अंग्रेज़ी का धंधा खूब फल-फूल रहा है, और बेरोज़गारी बढ़ती जा रही है। अंग्रेज़ी बोलने वाले को बुद्धिमान समझा जाता है। हिन्दी कवियों के पास ऐसी भाषा और कहन का होना अति आवश्यक है जो पाठक को इस मानसिकता से उभार सके।
दुनिया के बड़े शासक प्रेम, हिंसा और शांति को प्रभावित करते आए हैं। वे प्रेम को हिंसा, हिंसा को प्रेम और शांति को प्रेम का शत्रु और शत्रु को सज्जन प्रमाणित करते आए हैं। वे शांति के लिए युद्ध घोषित करते रहे हैं। इस बीच कविता की भूमिका क्या रही, क्या हो? उसकी भाषा कैसी हो? प्रेम, युद्ध और शांति को ठीक ठीक अभिव्यक्त करने के लिए कवि को सतत नई भाषा व कहन ढूँढ़ने होंगे। प्रेम में यह पीढ़ी ‘हे मेरी तुम’ से ‘बाबू, शोना, बेबी’ पर पहुँच चुकी है और विद्रोह, विरोध, प्रतिरोध, क्रांति और विमर्श में यह ‘मी टू’, ‘सल्ट वॉक’ आदि से भी आगे निकल गई है। जब विष्णु नागर जी लिखते हैं-‘ दो प्रेमी आमने सामने बैठे एक दूसरे की आँखों के बजाय अपने-अपने मोबाइल में डूबें होते हैं।‘ तो इसमें कविता की और भाषा की कोई भूमिका हो सकती है या नहीं। अगर हम इस पर बात करें तो यह छोटी बात नहीं होगी। इमोजी और कॉपी पेस्ट से आगे क्या होगा? वीडियो-ऑडियो से आगे क्या होगा? वर्चुअल वर्ल्ड में काव्य भाषा और कविता का स्वरूप कितना बदलेगा, यह सब हमने सत्ता के हवाले कर दिया है। मुझे हैरानगी है कि कवि भी इस आपदा को अवसर में तब्दील करने में अभूतपूर्व योगदान दे रहे हैं। मैं इससे आक्रांत व त्रस्त हूँ। मेरा शरीर और दिमाग आलोकतांत्रिक टैग्स, इनबॉक्स और वाहट्सएप सूचनाओं के रूप में आ रही कविता को स्वीकार नहीं कर पा रहा। क्या इस सबको हमारी भाषा कोई चुनौती दे पाएगी? लेखक का काम लिखना होता है, वह भी एक वक्ता बनता जा रहा है। मेरी जानकारी में वक्ताओं ने दुनिया में कोई बहुत बड़ा योगदान न दिया है न दे सकते हैं।7 – भैया जी, यह देश बहुत बड़ा है
विभिन्न कवियों की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि, परिवेश, मातृभाषा, विचारधारा, वर्ग, जाति, प्रांत, धर्म, पेशा, निजी पसन्द-नपसन्द, महत्त्व आकांक्षाएँ इन्हें एक दूसरे से अलगाती हैं। ऐसे अनेक कवियों को उनकी भाषा से पहचाना जा सकता है। और भाषा से उनके सरोकार पहचाने जा सकते हैं। ऐसे कवि हिन्दी भाषा की अच्छी बुरी विविधता और अनेकरूपता को बचाए हुए हैं। सिर्फ मंगलेश डबराल और संजय चतुर्वेदी हिन्दी कविता में भाषा के प्रतिनिधि नहीं हो सकते। जम्मू-कश्मीर, हिमाचल, पंजाब, गुजरात, कलकत्ता, झारखंड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, बंगाल, महाराष्ट्र आदि आदि प्रदेशों के कवियों ने भी हिन्दी कविता की भाषा और इन प्रदेशों के लोगों ने हिन्दी भाषा को समृद्ध किया है, नए मुहावरे गढ़े हैं। सिर्फ उत्तराखंड, उत्तरप्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश और राजस्थान ही हिन्दी के प्रतिनिधि नहीं हो सकते। मैं साहित्य में किसी आरक्षण का समर्थन नहीं करता, पर यह ज़रूर कहूँगा कि हिन्दी भाषियों की यह ज़िम्मेवारी बनती है कि वे हिंदीतर जगहों से आने वाले कवियों से संवाद स्थापित करें। इस क्रम में दक्षिण भारत के हिन्दी कवियों को अलग से रेखांकित किया जाना चाहिए। ऐसा क्यों है कि हमारे वरिष्ठ कवि हिंदीतर राज्यों के हिन्दी कवियों की अपेक्षा अनुवादकों से अधिक संवाद रखते हैं। दूसरा पक्ष देखें- सच यह है कि कुमार विश्वास लोगों को मुख्यधारा के कवियों से अधिक प्रभावित करते हैं। सुरेन्द्र शर्मा, सम्पत सरल आदि आदि भी इस देश की जनता द्वारा
हिन्दी के कवि माने जाते हैं। हिन्दी के अच्छे समझे जाने वाले कवियों को भी लोग इन कवियों की अपेक्षा कम ही जानते हैं।इसलिए मंचीय कवियों की भाषा पर भी बात होनी चाहिए। वे भाषा को बनाने या बिगाड़ने के अधिक ज़िम्मेवार हैं। हिन्दी के शिक्षकों पर भी बात हो। यह देखा जाए कि हिन्दी कविता पढ़ाने वाले बाहर किस तरह की हिन्दी लिखते-बोलते और पढ़ते हैं। अख़बारों की भाषा और न्यूज़ चैनलों की रिपोर्टिंग ने भी हिन्दी कविता की भाषा को प्रभावित किया है। हमें मूल्यांकन करना होगा कि इनमें से कौन-कौन किसी निश्चित एजेंडे पर कार्य कर रहे हैं। शिक्षा को क्यों बेचा जा रहा है, वर्चुअल वर्ल्ड को कौन बढ़ावा दे रहा है। निजता कौन ख़त्म कर रहा है। उदात्त मूल्यों की परिभाषाएँ बदल देने की ताकत किसने हासिल कर ली है। शिक्षा हमें स्वार्थी क्यों बना रही है, सामूहिकता की जगह झुंड ने कैसे ले ली है। दुनिया में बढ़ती हिंसा, तनाव, सांप्रदायिकता, नस्लवाद, धार्मिक कट्टरता, जातिवाद, ताकत का वर्चस्व क्यों बढ़ता जा रहा है। हमारी ‘भारतीयता’, ‘जातीयता’, ‘विश्वबंधुत्व’ और ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ के आदर्श को कौन नुकसान पहुँचा रहा है। भाषाएँ, नदियां, पहाड़, जंगल, जीव जंतुओं की प्रजातियाँ मर रही हैं, क्या इसके लिए सिर्फ तथाकथित मुख्य धारा के कवि, अनुवादक और अनुवाद की भाषा में साहित्य रचने वाले ही ज़िम्मेवार हैं। या कि भारतीय मनीषा व मूल्यों को उपभोगतावादियों ने चुपचाप दो के साथ एक मुफ्त ले लेकर, और किसी ने भाषण दे देकर भी नुकसान पहुंचाया है?
हिन्दी के कवि माने जाते हैं। हिन्दी के अच्छे समझे जाने वाले कवियों को भी लोग इन कवियों की अपेक्षा कम ही जानते हैं।इसलिए मंचीय कवियों की भाषा पर भी बात होनी चाहिए। वे भाषा को बनाने या बिगाड़ने के अधिक ज़िम्मेवार हैं। हिन्दी के शिक्षकों पर भी बात हो। यह देखा जाए कि हिन्दी कविता पढ़ाने वाले बाहर किस तरह की हिन्दी लिखते-बोलते और पढ़ते हैं। अख़बारों की भाषा और न्यूज़ चैनलों की रिपोर्टिंग ने भी हिन्दी कविता की भाषा को प्रभावित किया है। हमें मूल्यांकन करना होगा कि इनमें से कौन-कौन किसी निश्चित एजेंडे पर कार्य कर रहे हैं। शिक्षा को क्यों बेचा जा रहा है, वर्चुअल वर्ल्ड को कौन बढ़ावा दे रहा है। निजता कौन ख़त्म कर रहा है। उदात्त मूल्यों की परिभाषाएँ बदल देने की ताकत किसने हासिल कर ली है। शिक्षा हमें स्वार्थी क्यों बना रही है, सामूहिकता की जगह झुंड ने कैसे ले ली है। दुनिया में बढ़ती हिंसा, तनाव, सांप्रदायिकता, नस्लवाद, धार्मिक कट्टरता, जातिवाद, ताकत का वर्चस्व क्यों बढ़ता जा रहा है। हमारी ‘भारतीयता’, ‘जातीयता’, ‘विश्वबंधुत्व’ और ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ के आदर्श को कौन नुकसान पहुँचा रहा है। भाषाएँ, नदियां, पहाड़, जंगल, जीव जंतुओं की प्रजातियाँ मर रही हैं, क्या इसके लिए सिर्फ तथाकथित मुख्य धारा के कवि, अनुवादक और अनुवाद की भाषा में साहित्य रचने वाले ही ज़िम्मेवार हैं। या कि भारतीय मनीषा व मूल्यों को उपभोगतावादियों ने चुपचाप दो के साथ एक मुफ्त ले लेकर, और किसी ने भाषण दे देकर भी नुकसान पहुंचाया है?
यह देश बहुत बड़ा है। हमारे पास सैकड़ों बोलियाँ – भाषाएँ हैं, इस कारण हम कविता की कोई एक मानक भाषा अथवा शैली की वकालत नहीं कर सकते। परंतु यह भी सच है कि अपनी अपनी स्थानिकता, ढब और सांस्कृतिक विविधता बची रहे। हर कवि की काव्य भाषा में समान न्यूनतम मयार अपेक्षित होता है, होना ही चाहिए। अपने स्तर में एक कविता को कविता ही होना चाहिए। इस मेयार की वकालत की जानी चाहिए न कि किसी विशेष भाषा, कहन, परम्परा अथवा प्रकार की। इस मेयार को परिभाषित करके इसमें विश्व कविता को भी रखकर देखा सकता है।
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सम्पर्क:
काली बड़ी, साम्बा, जम्मू
कश्मीर
दूरभाष- 9419274403
मेल आई. डी. – kamal.j.choudhary@gmail.com
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एक बेहतरीन लेख पढ़कर आनंदित हुआ। बहुत सही बात है कि हिंदी चंद सत्ता केंद्रों की भाषा नहीं, उसकी शक्ति उसकी विविधता और क्षेत्रीय दृष्टियों में है।
कमलजीत जी , आपका बहुत धन्यवाद कि आपने पाठकों को कविता के आधुनिक दौर का परिचय भी करवाया और उसकी गहराइयों में उतार वहाँ सतही लहरों एवं गहरे निश्चिल पानी का अंतर भी स्थापित किया है । बहुत से प्रश्न जोकि परेशानी का स्त्रोत भी हैं , आपने इस लेख में उभारे हैं और रेखांकित भी किये है ।
इनके जवाब तलाशने ही होंगे। ,प्रश्न स्वंय मुँह बाये खड़े हैं जवाब की बाट में ।
आभार
यह एक ज़रूरी और संवाद की मांग करता प्रासांगिक आलेख है।
ऐसे आलेख कम या जानबूझ कर कम लिखे गए हैं।एक बार फिर कमल ने प्रभावित किया।अनुनाद को साधुवाद।
एक युवा कवि के इस सर्जनात्मक हस्तक्षेप ने आश्वस्त किया। ये टिप्पणियाँ रचनात्मक आवेग और विवेक के संतुलन का भी परिचय हैं। इनसे सार्थक विमर्श संभव है।
Kamal Jeet Choudhary भाई। बहुत धारदार लिखा है। सच में, कवियों ने कविता के मचान को मंच बना दिया है। आपकी हरेक पंक्ति में आपकी वाजिब चिंता और सवाल बेचैनी के साथ झलकते हैं। ये सवाल मुझे भी बेचैन करते हैं। यह लेख पढकर, आपसे कुछ दिनों पहले घंटे भर से भी अधिक लंबी बातचीत शिद्दत से याद आ गई…
बहुत मुकम्मल और मानीखेज लेख। दस्तावेजी और ऐतिहासिक भी। इस धारदार, शानदार लेख के लिए आपको और अनुनाद को बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएँ। मुझे अपनी चिंता में शरीक समझें।
-राहुल राजेश
मुंबई
कमलजीत जी ने बहुत जरूरी प्रश्न उठाएँ हैं। हिन्दी साहित्य में इस तरह की गम्भीर बातों पर गहराई से चर्चा होनी चाहिए कि भाषा के गत्यात्मक स्वरूप में स्थानीयता और विविधता का स्थान कहाँ है?
कविता के वर्तमान को समक्ष रखते हुए बेहद जरूरी प्रश्न।इन प्रश्नों के उत्तर तलाशने में प्रश्नों की गाम्भीर्यता पर विचार किआ जाना बहुत जरूरी।भाषा और विचार कविता का मूल तत्व है।आज लोकजीवन की भाषाओं वाली विविध वर्णी काव्यभाषा की आवश्यकता है कविता को बचाने के लिए।कमलजीत सर की चिंताएं पूरे काव्य जगत की चिंताएं हैं। सार्थक आलेख के लिए कवि को धन्यवाद और अनुनाद को आभार।
Bahoot khoob….. appreciable
दुनिया इसलिए इतनी सुंदर है कि उसमें विविधता है, नदियाँ ,पहाड़ , मैदान , पठार, पेड़ – पौधे , फल- फूल , नाना प्रकार के कीट पतंग और प्राणी ।
सोच के ही भयभीत हो उठता हूँ कि अगर सबकुछ एक ही साँचे में ढला हुआ होता तो यह यह दुनिया कैसी बदरंग और मनहूस होती ।
कविता हमारे समस्त भावों को व्यक्त करने का माध्यम है और भाव परिस्थितियों के अनुरूप बदलते रहते हैं ।
इसलिए कविता को किसी एक खाँचे – साँचे विशेष में रखने का आग्रह कविता को कविता नहीं रहने देगा ।।।।
आपका आलेख बहुत बढ़िया और सार्थक है ।ऐसे ही बिना लाग लपेट के खरा-खरा लिखते रहिए ।
कमल जीत चौधरी सर ने वर्तमान समय में पलने वाले प्रश्नों को अभिव्यक्ति दी। यह मुख्य प्रश्न है इन प्रश्नों पर चर्चा ज़रूरी। साहित्य की दुनिया में भी एक अलग सी दौड़ लगी है, किस सुख प्राप्ति हेतु? यह दौड़ने बाला भीतर से सब जानता है। 'कविता को हमने मंचान से मंच बना दिया है।' सच में योगदान तो है । 'अपने स्तर में एक कविता को कविता ही होना चाहिए।'। सार्थक आलेख हेतु कमल जीत चौधरी और अनुनाद को बहुत बधाई और शुकामनाएं।
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बलवान सिंह , जम्मू
कमल जीत का यह जरूरी लेख है। कमल ने बिना किसी दबाव के अपनी बात रखी है जिस पर बहस होनी चाहिए। इस शानदार लेख के लिए कमल और अनुनाद का धन्यवाद।
जो एक और अहम बात कमल ने उठाई है वह है प्रतिभाओं का कत्ल। सुशांत के बहाने ही सही, हिंदी में प्रतिभाओं के कत्लआ पर बात की गई है। मेरा पत्रकारिता का काल ऐसी ही कुछ प्रतिभाओं के कत्ल का साक्षी रहा है। वह चाहे तथाकथित स्थापित काव्य गुरूओं की झूठी आलोचना, झूठी प्रशंसा हो या अकादमियों, रेडियो स्टेीशन और दूरदर्शन पर कब्जा किए कुछ लोग हों या साहित्य जगत के कुछ संगठन जो गिरोह की तरह काम करते हैं की चालें, सब ने प्रतिभाओं का कत्ल किया है। इसके साथ शराब की पार्टियां या देसी विदेशी दौरों की चमक, झूठे सपने दिखाने की कला आदि सभी ने मिल कर प्रतिभाओं के लिए कत्लगाहों का काम किया है। बाकी कमल ने गैर हिंदी भाषी राज्यों के हिंदी में लिखने वालों की अनदेखी को भी अहम तरीके से रखा है। इस पर हिंदी प्रदेश वालों को मंथन जरूर करना चाहिए।
धन्यवाद और आभार
बेहद ज़रूरी लेख।बधाई।
कमलजीत जितनी तन्मयता और बोधिकता से कविता कहता है उसी सार्थकता से कविता पे बात भी करता है ये उसका कमाल है ।
लेख महत्वपूर्ण है जिसपर चर्चा होना उतना ही आवश्यक है जितना इसका लिखा जाना !पहले भी कई लेख कविता और भाषा को लेकर लिखे गए हैं लेकिन आज के प्रीद्र्श्य में सोचे हुए बोहत विलम्ब हो चुका है !आज के WhatsApp युग में कविता के ऊपर बात करना पहले से अधिक उपयोगी है !मैं यह भी स्पष्ट करता चलूँ की ऐसे लेखों पर राष्ट्रीय स्तर पर बात होनी चाहिए जिसका दायित्व लेख को छापने वालों पर भी है !मुख्यधारा के कवियों और आलोचकों का भी दायित्व है कि कविता और भाषा को आज के सन्दर्भ में परिभाषित करें ।
इस भागदौड़ में तो हर कोई चिंता में सोच ही रहा है… कुछ ठहराव और चिंतन के साथ सोचने के लिए कहता है आपका यह लेख… सकारात्मक और आवश्यक प्रश्न चर्चा के लिए हार्दिक धन्यवाद…
सर हमें ऐसा लेख पढ़ने को मिला इसके लिए हम आपके आभारी हैं। मुझे अभी साहित्य की समझ कम है इसलिए मैं इस पर कोई टिप्पणी नहीं कर सकता मगर इतना जरूर कहूंगा कि यह लेख पढ़ना मेरा सौभाग्य है।