अनुनाद

एक मध्यप्रदेशीय सामन्ती क़स्बे के आकाश पर…

चित्रकृति : शिवकुमार गांधी(प्रतिलिपि से साभार)

वहाँ फ़िलहाल कुछ लड़कियों के कपड़े टंगे हैं सूखने को
और सपने भी
जिन्हें वे रात के अंधेरे में देखती और दिन के उजाले में छुपाती हैं

उनके घरों में एक छोटा-सा आँगन होता है जहाँ माँ माँ की तरह पेश आती है
और पिता पिता की तरह

भाई भाई की तरह नज़र आते हैं वहाँ

इस आँगन के बाहर दुनिया बदली हुई होती है
कुछ लड़के होते हैं जो उनमें रुचि रखते हैं जिसे प्रेम कहना जल्दबाजी होगी अभी

वे रुचि रखते हैं कुछ जवान होते शरीरों में
और उनमें अपने जवान होते शरीरों को मिलाते वे कुछ ऐसी रुचि रखते हैं
जिसमें पसीने की गंध और नमक का स्वाद होता है

रुचि का परिष्कार भी हो सकता है कभी

कभी हम कह सकते हैं प्रेम
और जिसे प्रेम कहते ही खलबली मच जाती है उस आँगन में जहाँ माँ माँ की तरह पेश आती थी
और पिता पिता की तरह

भाइयों की दुनिया में चाकू की तरह प्रवेश करता है
बहन का प्रेम
जिसे वे उनके और उनके प्रेमियों के हृदय में गहरे तक उतार
अपने आँगन और उसके ऊपर के टुकड़ा भर आकाश की लाज बचाना चाहते हैं

जबकि
वे खुद झांकते रहते हैं दूसरों के आँगनों में
कुछ जवान
कपड़ों
सपनों
और शरीरों की तलाश में

महीने में एक बार तो गूँज ही उठता है बाज़ार देसी कट्टे से चली गोलियों की
धाँय धाँय से
क़त्ल का मक़सद मालूम ही रहता है
जिसे अमूमन अपने रोज़नामचे में नामालूम लिखती है पुलिस

इस तरह इक्कीसवीं सदी में भी
हमारा इस तथाकथित नागरिक सभ्यता में प्रवेश हर बार कुछ कबीलाई निषेधों के साथ होता है

जैसे कि
जब मैं लिख रहा होता हूँ ऐसी ही कुछ पंक्तियाँ और कविता करने का भरम पालता हूँ
तब कौवो के कुछ झुंड मँडराते आते हैं
उस मध्यप्रदेशीय सामंती कस्बे के आकाश से
और काँव काँव करते उतर जाते हैं
सुदूर उत्तर में मेरे झील वाले पहाड़ी पर्यटक शहर की बेहद साफ़-सुथरी सड़कों पर
अपने हिस्से का कचरा माँगते

लोग कहते हैं –
अशुभ है यों कचरा खंगालते कौवों का आगमन जीवन में
अशुभ है हज़ारों किलोमीटर दूर तक आती उनकी आवाज़

यों शुभ या अशुभ के बारे में नहीं सोचता हुआ मैं गोलियों और चाकुओं के बारे में भी नहीं सोचता

पर सोचता हूँ –
शायद उन्हें चलाने वाले सोचते हों मेरे बारे में कभी !
______________________________________
(यशवंत सिंह जैवार, उनके प्यार और हम तीनों के ‘पिपरिया’ के लिए)

0 thoughts on “एक मध्यप्रदेशीय सामन्ती क़स्बे के आकाश पर…”

  1. “जिन्हें वे रात के अँधेरे में देखती हैं और दिन के उजाले में छुपाती /माँ माँ की तरह पेश आती है” … सामान्य सी बात जिन्हें लोग नज़रंदाज़ करते /आप उन्ही से खूबसूरत चित्र उकेरते /कविता की शुरूआत ही बाँध लेती है — TOO GOOD

  2. शिरीष भाई वाकई बहुत सुंदर कविता है। त्वरित टिप्पणी के तौर पर तो इतना ही। बधाई।

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