अनुनाद

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आलोचना का युवा पक्ष – प्रियम अंकित

नेरूदा ने आलोचना को राजगीर का हाथ, इस्पात की रेखा, और सामाजिक तबकों की धड़्कन कहा था। यह आलोचना की जनपक्षधरता की और महज़ पुस्तकों के पन्नों में कैद करके जीवाश्म बना देने के विरुद्ध इसके रचनात्मक प्रतिरोध की अभिव्यक्ति थी।इस दृष्टि से जब तमाम उथल-पुथल और कशमकश के दौर से गुज़रते हिन्दी जगत के आलोचना परिदृश्य पर निगाह डालेंगेतो पायेंगे वर्तमान में जिन थोड़े से आलोचकों ने जनपक्षधरता के महौल के निर्माण में लंबा संघर्ष किया है, उनमें कई महत्वपूर्ण प्रतिभायें उभर कर सामने आयी हैं।

इस संदर्भ में सबसे जाना पह्चाना नाम वीरेंद्र यादव का है। भूमंडलीकरण की बयार, सोवियत सत्ता के विघटन, ‘इतिहास का अंत’ की घोषणाएं और उत्तर आधुनिक धींगामुश्ती से जूझते कठिन समय में आलोचन की जनोन्मखी दृष्टि को न सिर्फ़ स्थापित करने, बल्कि उसे तमाम स्टीरियो टाइप्स से मुक्त से मक्त करने में वीरेंद्र यादव के लेखन का महत्वपूर्ण योगदान है।उन्होंने हिंदी कथा साहित्य में हाशियों की सार्थक मौजूदगी को तलाशा है।इसीलिये उनके लेखन का रेंज बड़ा है, स्त्री प्रश्न और दलित प्रश्न पूरी व्यापकता के साथ संकीर्णता से संघर्ष करते हुए विकसित होते हैं। ‘तद्भव’ में प्रकाशित अपने लंबे लेखों में उन्होंने प्रेमचंद के उपन्यासों की पड़ताल ‘सबाल्टर्न’ दृष्टि से करते हुए यह स्पष्ट किया है कि प्रेमचंद ब्रह्मणवादी बर्चस्व का काविरोध करने वाली उस देशी धारा के लेखक हैं जिसके अन्य प्रतिनिधि शूद्रक और कबीर हैं। वह पहले महत्वपूर्ण आलोचक हैं, जिन्होंने हिंदी कथा साहित्य मेंअब तक उपेक्षित मुसलमान उपन्यास्कारों की सुध लेने का सार्थक प्रयास किया है। इन उपन्यासकारों ने विभाजन, इस्लामी राष्ट्रवाद और भारतीय मुसलमानों के यथार्थ की जैसी पड़ताल की है, वीरेंद्र उसको समझने के लिये औपन्यासिक विधा की एक नयी समाजशास्त्रीय भूमिका पर ज़ोर देते हैं। यह भूमिका उस सबाल्टर्न दृष्टि पर आधारित है, जिसे वीरेंद्र उत्तर आधुनिक भ्रमजालों में लुप्त होने से रोकते हैं। साथ ही वह समाजशास्त्रीय दृष्टि की उस जड़ता से भी टकराते हैं, जो हिंदी आलोचना में लम्बे समय से काबिज़ रही है। उनके समाज शास्त्रीय उपकरण, जो हालाँकि स्वभाव से ‘क्लासिकीय’ हैं, उस अभिजात आलोचना के ढोंग को उजागर करते हैं जो दलितों, स्त्रियों और मुसलमानों को हाशिये की राह दिखाता जन पक्षधर सरोकारों पर आधारित आलोचना का जो अवकाश हिंदी जगत में आज दिखायी पड़ता है, उसको निर्मित करने मेंवीरेंद्र यादव ने महत्वपूर्ण योग्दान दिया है।

भारतीय परंपरा में वर्णाश्रम धर्म पर आधारित पुरुषवादी बर्चस्व की प्रवृत्ति तथा दलितों एवं स्त्रियों के विद्रोही तेवर को अभिव्यक्त करने वाली धारा के बीच संघर्ष का जैसा रेखांकन हमारे साहित्य में हुआ है, वह महज़ कथावस्तु तक ही सीमित नहीं रहा है। उसकी व्यप्ति कलारूपों और विधाओं में भी रही है। इस दृष्टि से देखा जाए तो पंकज चतुर्वेदी की पुस्तक ‘आत्मकथा की संस्कृति’ ने वर्तमान हिंदी आलोचना को एक नया आयाम दिया है। यह अपने में एक अनूठा और अकेला प्रयास है। आज जब राजनीति में मूलतत्ववादी शक्तियां सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का जाप करते हुए जनतंत्र का गला घोंट रही हैं, ऐसे में पंकज का आत्मकथा जैसी अछूत क़रार दी गयी विधा की सुध लेना एक खा़स अहमियत रखता है। पंकज सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के विमर्श में सूराख करते हुए यह स्पष्ट करते हैं कि सामान्य भार्तीय संस्कृतिक ढाँचा व्यक्ति को आत्मकथा कहने की इज़ाजत नहीं देता। वह ‘आत्म’ को नश्वर और महत्वहीन मानता है।दूसरी तरफ़ आज आत्मबद्धता और आत्ममुग्धता का बोलबाला है। बकौल पंकज आत्मकथा में आत्म तो अपना होता है मगर कथा सबकी। यही विषेशता उसे एक जनतांत्रिक स्वरूप प्रदान करती है। मगर हमारे जड़ संस्कारों में यह नैतिक साहस नहीं होता जो आत्म के सच को उघाड़ कर रख सके।इसीलिये जब पंकज आत्मकथा को इतिहास का मर्म कहते हैं, तो वह इतिहास्विरोधी शक्तियों द्वारा संचालित यथास्थितिवाद पर घातक प्रहार करते हैं। पंकज ने ‘वागर्थ’ में नियमित रूप से समकालीन कविता पर सार्थक टिप्पणियाँ की हैं। उनकी गंभीर और सजग दृष्टि युवा कवियों की नवता को परखने के नये मानदंडों को स्थापित करती है। कविता के स्वभाव पर पंकज ने यह सारगर्भित टिप्पणी की है कि किसी भी उत्कृष्ट कविता का कवि के सौंदर्यबोध से ही नहीं, संवेदन तंत्र से भी उतना ही अहम रिश्ता होता है।सौंदर्यबोध और संवेदन तंत्र दोन्द के बीच कविता के समीकरण को देख पाना जनपक्षधरता के आयामों को नया विस्तार देते पंकज की आलोचना दृष्टि का एक नमूना भर है।

सौंदर्य और संवेदना के आपसी रिश्तों पर बात जब चल निकली है तो अरविंद त्रिपाठी का उल्लेख करना यहां अभीष्ट होगा। अपनी पुस्तक ‘कवियों की पृथ्वी’ में कविता के विकास, उसकी दशा और दिशा पर सार्थक दृष्टि दालते हुए उन्होंने कविता की आलोचना को एक नयी चेतना प्रदान की है। अरविंद स्पष्ट करते हैं कि आज की कविता का सच्चा नायक वह साधारण मनुष्य है जो सदियों से दृश्य से बाहर खड़ा है। आज की कविता सच्चे अर्थों मे जनतांत्रिक, लोकधर्मी और संस्कृतिक बहुलता की पक्षधर है तथा इस देश की जनता के साथ व्यवस्था के विरुद्ध सीधे प्रतिपक्ष में तनकर खड़ी है। अरविंद की स्थापना है कि आज मुख्य धारा की कविता लोकजीवन के उभार की है और शहरी कविताएं अपदस्थ हो चुकी हैं।इस पुस्तक मे अरविंद ने काव्यालोचना की मुश्किलों की भी चर्चा की है।

कथा सहित्य के सजग आलोचक के रूप में कृष्ण मोहन की उपस्थिति आलोचना में एक नया ध्रुवीकरण उत्पन्न करती है। सांप्रदायिकता और उपभोक्तावाद के मार से जूझते वर्तमान मे मनुष्यता के सामने मूल्यों का जैसा संकट उत्पन्न हुआ है, उसने समकालीन कथा साहित्य में एक नयी संवेदना के उभार को संभव बनाया है।यह नयी संवेदना अपनी परख के लिये एक नयी दृष्टि की माँग करती है। कृष्णमोहन की आलोचना दृष्टि इस माँग को पूरा करती है। अपनी पुस्तक ‘मुक्तिबोध: स्वप्न और संघर्ष’ में उन्होंने मुक्तिबोध की रचनादृष्टि को नयी रौशनी में व्याख्यायित किया है।

आलोचना को संकीर्ण दायरे से मुक्त करके उसे एक व्यापक धरातल पर प्रतिष्ठित करने में आलोचक आशुतोष कुमार के प्रयासों को नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता। वह आलोचना की जिस युवा शक्ति के प्रतिनिधि हैं, वह अनुभव की उस कंडीशनिंग या अनुकूलन से आज़ाद है जो, आशुतोष के ही शब्दों में समाज की स्थापित संस्थाओं, परंपराओं और मूल्य पद्धतियों द्वारा रची जाती हैं।प्रभु वर्गों का स्वार्थ साधने वाली विचारधारा क विरोध करना और इसके लिये बाह्य व आंतरिक संघर्ष की ज़रूरत पर बल देना और समाज को बुढ़ापे की केंचुल से मुक्त कर निरंतर नवीकृत करने वाली मौलिकता को प्रतिष्ठित करना ही आशुतोष कुमार की आलोचना दृष्टि के प्रमुख सरोकार हैं।

आलोचना की जो परंपरा हमने विरासत में प्राप्त की है, उसने साहित्य के पाठकों को अपने लेखकों से सही प्रश्न पूछने को प्रेरित किया हो, ऐसा ऎसा बहुत कम हुआ है। सरोकारों से कटा आलोचना का सुविधाजनक रास्ता या तो कलावाद की तरफ़ जाता है या फिर यांत्रिक जनवाद की तरफ़। प्रणय कृष्ण की पुस्तक, ‘अज्ञेय का काव्य: प्रेम और मृत्यु’, इस आलोचनात्मक छ्द्म को उजागर करती है। प्रणय ही वह पहले आलोचक हैं जिन्होंने अज्ञेय जैसे कवि से सही सवाल पूछे हैं। अज्ञेय का हमारा अब तक का मूल्यांकन पश्चिमी आधुनिकतावादी अवधारणाओं से ग्रस्त रहा है। इन अवधारणाओं ने रूमानियत और आधुनिकता के बीच शाश्वत विरोध के मिथक को जन्म दिया है। इस पुस्तक की सबसे बड़ी खासियत अज्ञेय के संदर्भ में इस मिथक द्वारा प्रचारित भ्रमों का निराकरण करना है। साथ ही प्रणय इस बात पर भी ज़ोर देते हैं कि सामाजिक यथार्थवाद के प्रेक्षणबिंदु से प्रश्न खड़ा करके अज्ञेय की रचनाधर्मिता को सिर्फ़ खारिज ही किया जा सकता है। अत: प्रणय समस्त एकांगी प्रवृत्तियों का अतिक्रमण करके अज्ञेय के कवि व्यक्तित्व में अंतर्गुम्फ़ित विरोधाभासों की सार्थक पड़्ताल करते हैं। नि:संदेह प्रणय द्वारा अज्ञेय की कविताओं का विवेचन, वह भी उसे खारिज़ करने के लिये नहीं, बल्कि उससे उत्तर प्राप्त करने के लिये आलोचना के वर्तमान परिदृश्य में आये एक सकारात्मक बदलाव को अभिव्यक्त करता है।

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