अनुनाद

मैं नैनीताल में लखनऊ के पड़ोस मे रहता हूँ

इस कविता का प्रथम प्रकाशन यहाँ हुआ है !

मैं उसे
एक बूढ़ी विधवा पड़ोसन भी कह सकता था
लेकिन मैं उसे सत्तर साल पुरानी देह में बसा एक पुरातन विचार कहूँगा
जो व्यक्त होता रहता है
गाहे-बगाहे
एक साफ़-सुथरी, कोमल और शीरीं ज़बान में
जिसे मैं लखनउआ अवधी कहता हूँ

इस तरह
मैं नैनीताल में लखनऊ के पड़ोस में रहता हूँ

मैं उसे देखता हूँ पूरे लखनऊ की तरह और वो बरसों पहले खप चुकी अपनी माँ को विलापती
रक़ाबगंज से दुगउआँ चली जाती है
और अपनी घोषित पीड़ा से भरी
मोतियाबिंदित
धुँधली आँखों में
एक गंदली झील का उजला अक्स बनाती है

अचानक
किंग्स इंग्लिश बोलने का फ़र्राटेदार अभ्यास करने लगता है
बग़ल के मकान में
शेरवुड से छुट्टी पर आया बारहवीं का एक होनहार छात्र
तो मुझे
फोर्ट विलियम कालेज
जार्ज ग्रियर्सन
और वर्नाक्यूलर जैसे शब्द याद आने लगते हैं

और भला हो भी क्या सकता है
विश्वविद्यालय में हिंदी पढ़ानेवाले एक अध्यापक के लगातार सूखते दिमाग़ में?

पहाड़ी चौमासे के दौरान
रसोई में खड़ी रोटी पकाती वह लगातार गाती है
विरहगीत
तो उसका बेहद साँवला दाग़दार चेहरा मुझे जायसी की तरह लगता है
और मैं खुद को बैठा पाता हूँ
लखनऊ से चली एक लद्धड़ ट्रेन की खुली हवादार खिड़की पर
इलाहाबाद पहुँचने की उम्मीद में
पीछे छूटता जाता है एक छोटा-सा स्टेशन
… अमेठी

झरते पत्तों वाले पेड़ के साये में मूर्च्छित-सी पड़ी दीखती है
एक उजड़ती मज़ार

उसके पड़ोस में होने से लगातार प्रभावित होता है मेरा देशकाल
हर मंगलवार
ज़माने भर को पुकारती और कुछ अदेखे शत्रुओं को धिक्कारती हुई
वह पढ़ती है सुन्दरकांड
और मैं बिठाता हूँ
बनारसी विद्वजनों के सताए तुलसी को अपने अनगढ़ घर की सबसे आरामदेह कुर्सी पर
पिलाता हूँ नींबू की चाय
जैसे पिलाता था पन्द्रह बरस पहले नागार्जुन को किसी और शहर में
जब तक ख़त्म हो पड़ोस में चलता उनका कर्मकाण्ड
मैं गपियाता हूँ तुलसी बाबा से
जिनकी आँखों में दुनिया-जहान से ठुकराये जाने का ग़म है
और आवाज़ में
एक अजब-सी कड़क विनम्रता
ठीक वही
त्रिलोचन वाली

चौंककर देखता हूँ मैं
कहीं ये दाढ़ी-मूँछ मुँडाए त्रिलोचन ही तो नहीं !

क्यों?
क्यों इस तरह एक आदमी बदल जाता है दूसरे ‘आदमी’ में ?
एक काल बदल जाता है दूसरे ‘काल’ में?
एक लोक बदल जाता है दूसरे ‘लोक’ में?

यहाँ तक कि नैनीताल की इस ढलवाँ पहाड़ी पर बहुत तेज़ी से अपने अंत की तरफ़ बढ़ती
वह औरत भी बदल जाती है
एक
समूचे
सुन्दर
अनोखे
और अड़ियल अवध में

उसके इस कायान्तरण को जब-तब अपनी ठेठ कुमाऊँनी में दर्ज़ करती रहती है
मेरी पत्नी
और मैं भी पहचान ही जाता हूँ जिसे
अपने मूल इलाक़े को जानने-समझने के
आधे-अधूरे
सद्यःविकसित
होशंगाबादी किंवा* बुन्देली जोश में !

इसी को हिंदी पट्टी कहते हैं शायद
जिसमें रहते हुए हम इतनी आसानी से
नैनीताल में रहकर भी
रह सकते हैं
दूर किसी लखनऊ के पड़ोस में !
____________________________
* किंवा का ऐसा प्रयोग हमारे अग्रज श्री वीरेन डंगवाल की बोलचाल से मुझ तक तक पहुंचा है, इसके लिए उनका आभार.

0 thoughts on “मैं नैनीताल में लखनऊ के पड़ोस मे रहता हूँ”

  1. wah! “isee ko hindi patti kahte hain shayad”. hindi patti- is pad ke tragi-comic aashayon ko kitnee nafaast se uker gaye hain aap. jaayasee , tulsee, trilochan , naagarjun, lakhnau, ilaahaabaad, amethee, naineetal- itihaas ,bhoogol , kavitaa, kalaa- kitne aayamon me khul gayee hai ye kavita.
    is kavitaa kee prishthbhomi me door kahin vajid alee shah bhee jhankate deekhte hain mujhe!
    mubaarkan.

  2. priy shirish ji,
    achchhi kavita likhi hai aapne, badhaai ho ! "aawaaz mein ek ajab-si kadak vinamrata ", jo aapne tulsi & trilochan donon ki samaan visheshata ke taur par lakshya ki hai ; wah adbhut hai. us-se mujhe trilochan ki hi ye kavya-panktiyaan barbas yaad aayin—
    "tulsi & trilochan mein jo antar jhalke/ ve sab kaalaantar ke kaaran hain."
    filhaal itna hi.
    —pankaj chaturvedi
    kanpur

  3. बहुत बढ़िया कविता….

    किंवा का इस्तेमाल मराठी में आम होता है। हिन्दी के संस्कृतनिष्ठ संस्कारोवाले लोग भी किंवा का सही इस्तेमाल करते रहे हैं,मगर बोलचाल की हिन्दी में यह दुर्लभ है। सामान्य अभिव्यक्ति वाली मराठी में भी किंवा साधारणतः बोला जाता है।

  4. भाई तुमने कभी पूछा नहीं और मैंने भी कहा नहीं की मैंने तुम्हारी कविताओं का चुनाव कैसे किया. प्रतिलिपि के लिए तुम्हारी कविताओं का चयन करते हुए सबसे पहले और सबसे अधिक इसी कविता पर अटक गया था. जिन कारणों से यह कविता मुझे बहुत पसंद आयी होगी लगभग वे सब आशुतोष कुमार ने बयान कर दिए हैं. एक को छोड़कर यह कविता ‘देश’ के अर्थों से भी बहुत क्रीडा करती है. खासकर ‘देश-काल’ के जुड़वे में जो देश होता है उसके.

  5. मैं इस कविता पर दूसरे कमेंट्स का इंतज़ार कर रही थी. मैं कुछ से कहने डर भी रही थी और अब भी डर रही हूँ. गिरिराज जी की सुंदर ई पत्रिका प्रतिलिपि में इस कविता को पहली बार पढ़ा और सोचा कि इस कविता में क्या है पूछ्ना ग़लत होगा, पूछा जाए कि क्या नहीं है! हिन्दी पट्टी शब्द का इस तरह प्रयोग मैने पहली बार देखा. विलियम फ़ोर्ट कालेज और जार्ज ग्रियरसन की खोज में मैने नेट सर्च किया और कुछ दिन पहले ही नागार्जुन जी और त्रिलोचन जी की प्रतिनिधि कविताओ की किताब हासिल की. आशुतोष कुमार जी ने शानदार और तथ्यपूर्ण टिप्पणी की है. मैं कैसे और किन शब्दों में कहूँ की इस कविता ने एक नई लिखने- पढ़ने वाली लड़की के साहित्य अनुभव और जानकारी को कितना समृद्ध किया है. उस औरत (अम्मा जी) को मेरा प्रणाम जो इस कविता की धुरी बनीं. कवि को शुक्रिया चाहिए क्या?

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