चुनाव की परम पावन (परम पतित) बेला में पंकज चतुर्वेदी की इस कविता का हाथ लगना सुखद है। हमारी आज की राजनीति मुख्य रूप से जिन तत्वों से संचालित होती है, उनमें प्रमुख है ‘जाति’! आगे अनुनाद के पाठक बताएँगे कि इस कविता की बात उनके भीतर कहाँ तक पहुँची!
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जाति के लिए
ईश्वर सिंह के उपन्यास पर
राजधानी में गोष्ठी हुई
कहते हैं कि बोलनेवालों में
उपन्यास के समर्थक सब सिंह थे
और विरोधी ब्राह्मण
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जाति के लिए
ईश्वर सिंह के उपन्यास पर
राजधानी में गोष्ठी हुई
कहते हैं कि बोलनेवालों में
उपन्यास के समर्थक सब सिंह थे
और विरोधी ब्राह्मण
सुबह उठा तो
अख़बार के मुखपृष्ठ पर
विज्ञापन था :
`अमर सिंह को बचायें´
और यह अपील करनेवाले
सांसद और विधायक क्षत्रिय थे
मैं समझ नहीं पाया
अमर सिंह एक मनुष्य हैं
तो उन्हें क्षत्रिय ही क्यों बचायेंगे ?
दोपहर में
एक पत्रिका ख़रीद लाया
उसमें कायस्थ महासभा के
भव्य सम्मेलन की ख़बर थी
देश के विकास में
कायस्थों के योगदान का ब्योरा
और आरक्षण की माँग
मुझे लगा
योगदान करनेवालों की
जाति मालूम करो
और फिर लड़ो
उनके लिए नहीं
जाति के लिए
शाम को मैं मशहूर कथाकार
गिरिराज किशोर के घर गया
मैंने पूछा : देश का क्या होगा ?
उन्होंने कहा : देश का अब
कुछ नहीं हो सकता
फिर वे बोले : अभी
वैश्य महासभा वाले आये थे
कह रहे थे – आप हमारे
सम्मेलन में चलिए
***
चुनावी परिदृश्य में प्रासंगिक कविता और शायद हर मौसम में भारत के इस सच को बयाँ करती कविता. आजकल हर जाति के अपने अपने देवी देवताओं की जयंतियों पर जुलूस में बढ़ चढ़ कर भाग लेने की होड़ है ताकि सत्ता के केक में अपने हिस्से पर दावा मज़बूत कर सके.
सपाट धरातल पर चलती, बिना लग लपेट बात करती ईमानदार कविता.
priy shirish ji,
ku seng ki ye teenon kavitaayen achchhi hain, lekin teesari kavita bemisaal hai. yah kavita rhetoric ke qhilaaf ek zabardast vaktavya hai, magar kitni shaaista, sanjeeda & convincing hai. jis saadagi, sachaai & marm ki anivaaryata ki baat kavi kar raha hai, us raah ka qhud bhi to anusaran kar raha hai ! teesari kavita se MARX bhi yaad aate hain, jinhone kaha tha ki 'ham bhaashaa mein hi sochate hain.’ kavita ke liye zaroori jis spontaneity ka israar ku seng ne kiya hai, uske baghair kavita mumkin to hai, magar vaise sukhad, vismayjanak & marmsparshi roop mein nahin, jo duniya ki asankhya cheezon & paramparaaon ke beech kavita ko sarvatha naya & vishishta banaata hai. Pahli & doosari kavita aur bhaarateeya darshan ke beech anoothi samaanta hai, is lihaaz se japani & hindi kavita ke antarang sambandha par bhi kaam hona chaahiye—–aisa lagta hai.
‘mat baandho kavita ko/ swaamitva ya swaartha ki lagaam se’—–ku seng ne yah itni badi baat kahi hai ki yah ek zaroori sabaq hai, un tamaam kaviyon ki qhaatir, jo har haal mein kavi bane rahna chaahte hain & is peshevaraana koshish mein kavita ke saath ek qism ki zor-zabardasti karte rahte hain. Ek bahut bade qhatare se ku seng hamen aagaah karte hain ki kavita , kavi ke nitaanta niji iraadon & mahattvakaankshaaon ko saakaar karne ka auzaar bhi banaayi ja sakti hai.
—pankaj chaturvedi
kanpur
ये सच है। अखबारों में सांस्कृतिक हलचल वाले साप्ताहिक फीचर पेजों के दिन तो लद गए।
हद तो तब होती है जब में शांडिल्य साहित्य रत्न, गुर्जरगौड़ प्रतिभाश्री जैसे विशेषणों के साथ विज्ञप्तियां आती हैं और वे चाहते हैं कि इन्हें ज्ञानपीठ या साहित्य अकादेमी जैसी खबरों की तरह लगाया जाए।
उन्हें कौन बताए कि अब तो इन संस्थाओं के दिन भी लद गए।
जब साहित्य में जाति घुस गई तो बाकी मामलों में तो इसका जलवा अनादिकाल से है। सियापा करना बेमानी है। यह सत्य है। इसी तरह होता है दुनिया में 🙂
badhiya.
मेरे एक कवि मित्र,जो एक पत्रिका के सम्पादक भी है, नें एक सच्चा किस्सा सुनाया। उनसे एक कवि जी ने सीधा सवाल किया कि आप का श्री एक्स कवि से किस किस्म का रिश्ता है। संकेत साफ था। वे कहना चाहते थे कि आप दोनों एक ही वर्ण के हैं,यह तो साफ ही है। संदेह तो इसमें भी नहीं कि आप उनके रिश्तेदार होंगे (क्योंकि आप जिस तरह उन्हें अपनी पत्रिका में छापते हैं, वह अन्यथा कैसे सम्भव हो सकता है ?), मैं जानना सिर्फ यह चाहता हूं कि रिश्तेदारी कौन सी है। मेरे कवि मित्र नें जब कसमें खा खा कर उन्हें विश्वास दिलाना चाहा कि श्री एक्स कवि कोई रिश्तेदार नहीं हैं, तो वे सज्जन चकित हुए बिना न रहे। आश्चर्य व्यक्त करते हुए जैसे बदहवासी में वे यही बार बार बुदबुदाते रहे कि यह कैसे हो सकता है कि कोई बिना किसी सम्बन्ध या रिश्तेदारी के किसी को अपनी पत्रिका में इतनी बार छापता रहे हैं!
कहने का मतलब यह कि कुछ लोग इसी तरह सेाचते हैं। वे सबसे पहले यही देखते हैं कि जिसकी रचना पर गोष्ठी है वह किस जाति का है। कोैन कौन आया। आने वालों में कोैन किस जाति का है।कौन क्या बोला। और जो बोला-समर्थन या विरोध में, उसकी जाति कया है, इत्यादि इत्यादि। यदि संयोग से समर्थन करने वाला उस रचनाकार की ही जाति का निकल गया या अन्य किसी भी तरह से जाति का कोई मसला बनता हुआ दिखता है तो उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहता। मजे की बात कि ऐसे सज्जन खुद को जातिवादी नहीं मानते क्योंकि उनके हिसाब से वे तो जातिवादियों की पोल खोलने में लगे रहते हैं। पता नहीं क्यों, मुझे पंकज की चिंता कुछ इसी तरह के जाति-ंिचतकों वाली लगती है। सब कुछ को जाति के दायरे में खींच लेने की व्यग्रता जब बहुत बढ़ जाती है तो ऐसी ही कविताएं लिखी जाती हैं। हिन्दी साहित्य में अगर कुछ लोग कहीं ऐसा कुछ जाति आधारित प्रयास करते भी हों तो क्या ऐसी प्रवृत्ति वालों पर चर्चा के लिए एक भी पल बर्बाद करना उचित है ? मुझे यह कहने में तनिक भी संकोच नही है कि ऐसे जातिवादी प्रसंग उन्हीं की चिंता का विषय बनते हैं जो मनोविज्ञान के किसी सूक्षम धरातल पर स्वयं भी ऐसी ही ग्रंथियों से पीड़ित होते हैं। मैं नहीं जानता कि पंकज की जाति-ग्रंथि क्या और कैसी है। मगर कविता को ऐसे कामों में लगाना मुझे उचित नहीं जान पड़ता।
antim pankti kee marmiktaa hridaywedhak hai.
aapne jo kuchh bhi likhaa hai yah sachchaaee hai ki log kitane bhi padh likh jaaye par jaati moh se bahar nahi aa pate hai …….aapane sahi likha hai …..shayad logo ki mansikataa me kuchh pariwartan aaye!
प्रभाकरण जी !
आप पंकज की इस कविता को सही दिशा में नहीं पकड़ पाए! ये कविता ना सिर्फ़ जातिगत राजनीति के खिलाफ है, बल्कि जाति की अवधारणा और अस्तित्व के भी खिलाफ है. आपसे निवेदन है एक बार इस दिशा में कविता को फिर से पढ़कर देखें ! कविता को समाज की सफाई के लिए हर ऐसा काम करना पड़ेगा, वरना वो सिर्फ़ कला की या शोकेस की वस्तु बन कर रह जाएगी.
प्रभाकरण जी नाहक नाराज हो गए हैं….
(कवि कुमार अंबुज से माफी के साथ )
तुम्हारी जाति क्या है पंकज चतुर्वेदी
बताओ वरना
कौन मानेगा कवि
कौन आलोचक
कौन कहेगा लिखते हो कूड़ा…
क्यों करते हो ऐसी सीधी बात
वो भी दिल से,
नाराज हैं भैया प्रभाकरण
बताओ..बताओ पंकज चतुर्वेदी
ऐलान करो अपनी जाति का जल्दी
वरना अगली परशुराम जयंती पर
कानपुर ब्राह्मण सभा करेगी,
अपहरण तुम्हारा
तुम्हें सम्मानित करने के लिए
और तुम्हारी कविता संग्रह के पन्नों पर रखकर
बंटेगा समोसा और धनिया की चटनी।
हाय.. हाय.. कैसा होगा
मनुष्यों का वो संसार
जहां नहीं होगी जाति
कहां से आएंगे वैज्ञानिक
जिनके झोले में होगी साबुन की
जातिविनाशक बट्टी।
शिरीष जी, पंकज की कविता में न समझ में आने वाली कोई चीज है ही नहीं। मेरी आपत्ति ही यह है कि जाति की राजनीति के सारे अर्थ और संदर्भ पहले से ही इतने उजागर हो चुके हैं कि अब उसमें ऐसा बचा ही क्या है जिस पर व्यंग्य किया जाय ? यह तो मै भी जानता हूं कि इस कविता में जाति की राजनीति पर व्यंग्य किया गया है। मगर इसका व्यंग्य हमारे समाज में व्याप्त जाति-ग्रंथि के किस अजाने पक्ष पर से पर्दा हटाता है ? जाति के दायरों में सोचने वालों पर व्यंग्य करने के लिए लिखी गई पंकज की कविता का हास्य यह है कि इसमें जाति-ग्रंथि को उसी धरातल पर देखा गया है जिस धरातल पर यह हमारे समाजों में अभिव्यक्ति पाती रही है। मैं कहना यह चाहता था कि यदि कविता में भी इतना ही बताना है तो इस खुल्लमखुला सचाई की आलोचना करने या इस पर दुख जताने का दौर बीत चुका है। अब यह कविता का विषय नहीं रहा। ऐसे में, जब कोई इस तरह की घिसी पिटी बुराई की बुराई करता है या ऐसी बुराइयों के प्रति बहुत संवेदनशील दिखता है तो मन में संदेह होता हेै कि इस बेमतलब की बात को वह इतना महत्व क्यों दे रहा है जातिवादियों का इतना हिसाब किताब क्यांे रखता है ? ऐसा करने वाले कई बार इस बुराई को एक दुर्निवार सत्य मान लेते हैं और स्वयं भी उसी तरह के विश्वासों में जीने लगते हैं। मैने अपनी टिप्पणी में जिन कवि मित्रों का जिक्र किया था वे इसी तरह का नमूना हैं। खैर। आप की प्रतिटिप्पणी से इतना तो मैं समझ ही गया कि इस कविता के बहाने से मैं जाति-ग्रंथि को जिन उलझावों में पकड़ने चाहता हूं वह आप की पकड़ से छूट गया। इसे मैं अपनी असफलता मानता हूु। मगर साथ में यह भी कहना चाहता हूं कि आप मि़त्र-रक्षा के जज्बे से बचते हुए मेरी बात समझने की कोशिश करते तो कितना अच्छा होता। आप इस कविता से जो आशय ग्रहण करने की वकालत कर रहे हैं वह इस कविता के फलक में समा ही नहीं सकता। मुझे यह कहने में अफसोस हो रहा है कि जाति के मौजूदा संदर्भ को ही आप जाति की अवधारणा का दर्जा दे कर उस अवधारणा पर ही हमला बोल देना चाहते है जबकि जाति की अवधारणा का ऐतिहासिक औदात्य इतने सतही संदर्भो से आलोचित करना अपनी अज्ञानता से इतिहास को तहस नहस करना है। मेरा दुख है तो यही कि हमारा कवि जाति की उस गहरी अवधारणा को को भूल चुका है। इस कदर भूल चुका है कि आप को वह मूल अवधारणा ही खतरनाक लगती है।
वेैसे मैं बता दूं कि अपने प्रकल्पित आशयों का आरोपण करके किसी मामूली कविता को भी महान बनाने की कला मैं भी जानता हूं। इस मामूली सी कविता को जाति की अवधारणा के खिलाफ खड़ी महान कविता के बतौर आप ही देख सकते हैं। आखिर पंकज जी आप के मित्र जो ठहरे।
prabhakaran ji
kavitaa to kavitaa hai , aapne jo gadya likhaa hai , wah bhee kam uljhaauu nahi hai. mai ise smajhane kee koshish kar raha hu.
kyaa aap yah kahnaa chahte hain ki jaati kaa maujoodaa sandarbh , choonki jaati ke aitihaasik audaatya kee ek vikriti matr hai, isliye maujooda jati-vimarsh me ulajhane kee jagah , uske kisi aitihaasik udatt roop kee khoj aur punarsthapnaa karnee chahiye?
agar maine theek samjaa hai to aap kee is sthapanaa me bhee nayaa kyaa hai?
gandhee jee bhee kuchh aisee hee baat kiyaa karte the. ab to ye bahas bahut puraanee huyi. jati sambandhi gandheewadee vicharon kkee aalochanaa ambedkar aur bhagat singh se hotee huyee kanhaa se kahnaa pahunch chukee hai.
jaati vyawasthaa mool roop me to mahaan ya udatt thee. use to mare musalmano ya kristano ya naye dalitvaadiyon ne kharaab kiyaa hai. ab aisee baate to bahut kathuaaye huye hindu rashtavaadee hee kar paate hain.
nishchit hee aap un me se ek n honge.shayad main aap kee baat theek nahi samajh paayaa.
is liye , please, jati ke aitihaasik audatty ko tanik aur spashat keejiye. taki ham moorakh bhee kuchh samajh saken.
pankaj kee kavitaa jaisee bhee ho us ne kuchh gahree granthiyon ko chhed diya hai.
shireesh jee , achha ho ki aap is bahas ko swatantr roop se prakaashit kar den , taki us ka daayra aur chaudaa ho sake.