कू सेंग का जन्म सीओल में 1919 में हुआ और वहीं 11 मई 2004 में उनका देहान्त हुआ। उनके शैशवकाल में ही उनका परिवार देश के उत्तरपूर्वी शहर वॉनसेन में आकर बस गया, जहाँ वे बड़े हुए। उनका परिवार परम्परा से कैथोलिक आस्थाओं को मानने वाला था और उनका एक बड़ा भाई कैथोलिक पादरी भी बना। कू सेंग ने जापान में उच्चशिक्षा पायी, जहाँ `धर्म के दर्शनशास्त्र´ की पढाई करते हुए उनकी आस्था कुछ समय के लिए डगमगाई भी लेकिन बाद में वे धीरे-धीरे अपनी पारिवारिक आस्थाओं की ओर लौट आए। कू सेंग ने पढ़ाई के बाद कोरिया के उत्तरी हिस्से में अपनी वापसी के साथ ही पत्रकारिता और लेखन का पेशा अपना लिया। 1945 में आज़ादी के बाद अपनी कविताओं की पहली पुस्तक छपवाने के प्रयास में जब उनसे साम्यवादी मानदंडों के अधीन लिखने को कहा गया तो वे असहमति प्रकट करते हुए दक्षिण कोरिया चले गए। कू-सेंग ने कई वर्ष पत्रकारिता की और वे एक प्रतिष्ठित कोरियाई समाचार-पत्र के सम्पादक-मंडल में भी रहे। जापान में अपने छात्र-जीवन के दौरान ही उन्होंने अपनी पहली कविता लिखी। इसके बाद वे कोरियाई साहित्य के शिखर तक पहुंचे। इंटरनेट पर प्राप्त ब्यौरों के अनुसार दुनिया के कुछ चुनिन्दा कवि ही अपनी भाषा और समाज में इतनी लोकप्रियता अर्जित कर सके हैं, जितनी कू सेंग ने अपने जीवन-काल में की। उनकी कविता पर कई साहित्यिक और दार्शनिक शोध भी हुए। इन सभी शोधकार्यों और अपार लोकप्रियता के बावजूद कोरियाई साहित्य-संसार इस बात को स्वीकारता है कि एक महान मानवतावादी कवि के रूप में कू-सेंग का सम्यक मूल्यांकन होना अभी बाक़ी है।
Wasteland of Fire, Christopher’s River, Infant Splendor, Rivers and Field आदि उनके प्रमुख कविता संग्रह हैं, जिनका अनुवाद अंग्रेज़ी, जर्मन, इतालवी और जापानी भाषाओं में हो चुका है।
मेरे बरामदे में रखे एक गमले में
जिसका पौधा पहले ही मर चुका था
एक जंगली पौधा उग आया खुद-ब-खुद
और फिर उसमें सफेद धूल जैसे
कुछ फूल लगे
यह छोटा-सा अकेला पौधा –
नित्य में अपने लिए एक पल घेरता हुआ
बनाता हुआ जगह इस अनंत में
और चूंकि फूल भी आ चुके हैं इसमें
मैं इसके बारे में आगे तक सोच सकता हूँ
यह मुझे अनुमान से ज़्यादा रहस्यमय लगता है
और वो चीज़ भी जो मैं खुद हूँ
नित्य में एक पल और अनंत में एक जगह
घेरता हुआ
सच तो यही है
कि मैं फिलहाल इन जंगली फूलों के मुक़ाबिल हूँ
और मैं जितना ही सोचता जाता हूँ
इनके बारे में
यह सब मुझे अनुमान से ज्यादा
रहस्यमय लगता है
और अंत में
इन सब चीज़ों पर सोचते हुए
मैं भागने लगता हूँ
उस चीज़ से जो मैं खुद हूँ
जैसे कि
नित्य और अनंत की एक अभिव्यक्ति
जैसे कि
नित्य और अनंत का एक हिस्सा
जैसे कि
नित्य और अनंत का एक प्रेम
अभी मौजूद है यहाँ ……
चू-पंग दर्रा
चू-पंग दर्रे की तीखी ढलान पर
ढेर सारे फूल
मेरी निगाह में आते हैं
जिन्हें मैं कोई नाम नहीं दे सकता
मेरी बगल में
कोरियाई पोशाक में एक प्यारी स्त्री
गर्मजोशी से कहती है – ‘ इन फूलों को देखो
क्या ये प्यारे नहीं हैं? ‘
मेरी सलेटी दाढ़ी से टकराती हुई
उसकी गहरी साँसों में
जैसे लेडी सूरो की सांसें सुनाई पड़ती हैं और मैं तेरह सौ साल पहले के
उस बूढ़े की छवि का आह्वान करता हूँ
पूर्वी सागर के पहाड़ों के ढलानों की उसकी अपनी जगह से
तेरह सौ साल बाद
आज इस जगह पर
तेरह सौ साल पहले की तरह उसकी छवि के आह्वान ने
जगा दिया है खुद मेरी छवि को
आज
तेज़ी से भागती इस बस के भीतर
अकेले मैं दुखी होता हूँ
और अकेले ही मुस्कुराता हूँ
मीठी मुस्कान!
dono kavitaayen achchhi hain. pahli is maha-jeevan ki amarta ka ek ‘micro’-aakhyaan rachti hai, to doosari kavita mein jis viral vaatsalya ka snigdha izhaar hai, usse hindi ke vayovriddha saahityakaaron ko bahut-kuchh seekhna darkaar hai. shukriya, SHIRISH JI !
—–PANKAJ CHATURVEDI
kanpur
कवितायें तो सुन्दर हैं ही, अशोक कबाड़ीवाला का गायन बहुत ही मोहक है.