एक कल्पना
मैं यहाँ हूँ
बैठा हुआ अमिताभ हर्मिटेज़ के लकड़ी के इस बरामदे में
तीन सौ साल पुरानी है यह इमारत
इसके खंभे और दीवारें
मानो बैठे हुए हैं पहाड़ की सबसे बाहरी कगारों के ढलान पर
बीचों-बीच
यहाँ कोई नहीं है – सिर्फ़ हवा की आवाज़
सिर्फ बहते हुए पानी की आवाज़
सिर्फ चिड़ियों की आवाज़
कहीं कोई भी नहीं है पास
कभी-कभार
एक गिलहरी आ जाती है यहाँ बागीचे से निकलकर
और चट्टानों की अजनबी आकृतियों को
या सुदूर पूर्वी सागर को
या फिर आसमान में तैरते बादलों को
घूरती हुई
बैठी रहती है आधा-आधा दिन मेरे साथ
और फिर
अचानक नीचे बागीचे में उतर जाती है
क्या यहाँ कोई प्रेत तो नहीं?
सुदूर उत्तर में
जब मैंने अपना घर छोड़ा
मेरी माँ उम्र के चालीसवें साल में थी
अब वह ज़रूर मर चुकी होगी
उसे
किस तरह विदा किया गया होगा
कहाँ और कैसा बनाया गया उसका मक़बरा
मैं कुछ भी नहीं जानता
मुझे लगा
कि मेरी माँ वहाँ है – शिखरों को ढाँप रहे हरे-भरे पेड़ों के ऊपर
आसमान में कहीं
बिल्कुल वर्जिन मेरी की तरह
लिपटी हुई
अपने ही प्रभामंडल में
और यह रूप बहुत जीवंत था
आंसू पोंछते हुए
मैंने अपनी आंखों को मला और कुछ कदम आगे बढ़ा
लेकिन ओह !
ग़ायब हो चुकी थी वहाँ से भी वह
मेरी माँ !
अब बच्चा
अब
बच्चा कुछ देख रहा है
कुछ सुन रहा है
कुछ सोच रहा है
क्या वह देख रहा है उस तरह की चीज़ों को
जैसी देखी थीं
मोहम्मद ने एक पहाड़ी गुफ़ा में
ख़ुदा के इलहाम के बाद?
क्या वह सुन रहा है
उन आवाज़ों को जिन्हें नाज़रेथ के जीसस ने
अपने सिर के ऊपर बजते सुना था
जब उसका बपतिस्मा हुआ था
जार्डन के किनारे?
क्या वह खोया है विचारों में
जैसे शाक्यमुनि खोये थे बोधिवृक्ष के नीचे?
नहीं!
बच्चा इसमें से कुछ भी नहीं
देख
सुन
और सोच रहा है
यह तो
देख
सुन
और सोच रहा है
ऐसा कुछ
जिसे कोई दूसरा देख
सुन और सोच नहीं सकता
कुछ ऐसा
कि मानो एक शांत ओर अनोखा आदमी होने के नाते
ये अकेला ही
ले आएगा बहार इस दुनिया में
सिर्फ अपने ही दम पर
तभी तो यह मुस्करा रहा है
एक प्यारी-सी मुस्कान !
बहुत सुन्दर रचनाएं प्रेषित की हैं।आभार।
सुंदर कविता कर्म – जिसमें अनुवाद भी शामिल
खुदा करे ये सिलसिला यूँ ही जारी रहे ! मेरी भी माँ नहीं है और पहली कविता ने लगभग रुला ही दिया ! अब रुलाने के लिए शुक्रिया कैसे कहूँ !
अच्छी कविताएं.. आभार