देवी भाई की कुछ लम्बी कविताएं पिछले दिनों आलोचना और पहल में देखी गई हैं, जिनमें पूर्वी उत्तर प्रदेश के आमजन का हाहाकर दर्ज है। लेकिन उन्हें जितनी तवज्जो की दरकार थी, वो नहीं मिली। सोचता हूं नहीं मिली तो क्या ? आलोक धन्वा के शब्दों में “मैं जानता हूं कुलीनता की हिंसा !” हिंदी में उपेक्षा की यह हिंसक राजनीति कितनी प्रभावी है, कहने की ज़रूरत नहीं। देवी भाई के नए रचनाकर्म पर कभी विस्तार से पोस्टियाऊगा ! फिलहाल यहां मैं जो लगाने जा रहा हूं, उससे पता लगता है कि लगभग 15 से 20 बरस पहले उन्होंने वर्तमान से जुड़े अपने एक विशिष्ट इतिहासबोध के साथ कविता की शुरूआत कैसे की थी !
ये कविताएँ उनके जिस संकलन से हैं , उसकी तस्वीर भी यहां लगा रहा हूं – दूसरे संकलन की कामना के साथ !
आपके गणतंत्र की एक स्त्री की प्रेमकथाएक स्त्री प्यार करना चाहती थी
लेकिन प्यार करने से चरित्र नष्ट होता है
स्त्री प्यार करना चाहती थी
किंतु चरित्र नहीं नष्ट करना चाहती थी
एक स्त्री इस तरह प्यार करना चाहती थी
कि प्यार बना रहे! चरित्र बना रहे!
स्त्री जितना प्यार के हाथों मजबूर थी
उतना ही चरित्र की जलवायु से परेशान
स्त्री इसलिए चरित्रवान होना चाहती थी
क्योंकि स्त्रियां चरित्रवान होती हैं
क्योंकि चरित्रवान होना स्त्री के लिए अनिवार्य है
क्योंकि गणतंत्र में स्त्री का काम ही क्या
सिवाय इसके कि स्त्री अपना चरित्र बनाये रखे
स्त्री स्त्री थी
स्त्री बार-बार भूल जाती थी
और प्यार कर बैठती थी
जी हां सामाजिको !
उसके बाद चरित्रवान होने की हाय हाय और
हाय हाय चरित्र की हाय हाय
नागरिको !
वह स्त्री जो मुझसे प्यार करती थी चरित्रवान होने के लिए
आपके गणतंत्र की ओर लौट रही है
आप उसे संभालें और उसे अपना भरपूर
वृद्ध, सिद्धहस्त, विदूषक और निर्वीय प्यार दें !
***
नगरवधू
नगर में एक नगरवधू थी
अंधेरा होते ही नगरप्रमुख आता था
नगरप्रमुख चला जाता था तो
नगरश्रेष्ठि आता था
जो भी आता था
मुंह छिपाकर आता था
जो भी जाता था
मुंह छिपाकर जाता था
नगर में एक नगरवधू थी
जैसे नगरप्रमुख था
जैसे नगरश्रेष्ठि था
वैसे ही वैसे ही
नगरवधू थी
एक शरीर कितने ही शरीरों में उपस्थित था
एक शरीर कितने ही शरीरों में सुगंधित था
एक शरीर कितनी ही मेधाओं में प्रविष्ट था
जिन्होंने नगरवधू को नहीं देखा था वे भी
नगरवधू के शरीर से परिचित होते जाते थे
एक शरीर से लथपथ था पूरा नगर
नगर की नागरिक संहिता
नगर में नगरश्रेष्ठि हो
नगर में एक नगरवधू हो
नगर की एक मां भी हो
यह किसी ने नहीं सोचा !
***
बहुत सुंदर कविताएं। कवि का संपर्क दें सकेंगे क्या…
बहुत खूब. भाई कमाल की कवितायें. कमाल की सोच.
नामवर सिंह का नाम देना ज़रूरी था क्या? देवीप्रसाद बहुत अच्छे कवि हैं और तैने सलेक्शन भी ठीक लगाया है पर जे क्या बात कि निखट्टू नामवर न होते तो देवी प्रसाद को खोजा नहीं जा सकता. हिन्दी से परे निकल मेरे भाई! फंज्जागा वरना.
कीचड में ढेला फेंकना कोई तुक की बात नहीं है फिर भी फेंककर अपने कपडे ख़राब कर रहा हूँ, नामवर पर तो कोई फर्क पड़ता नहीं. अगर किसी पुरस्कार से ही कोई बड़ा बन जाता हो, तो नामवर के सारे चेले बड़े बन जाते. घटिया लोगों की पूरी फौज इस आदमी ने विश्विद्यालयों में भर दी, क्या वे सब बड़े हो गए. हाँ हिंदी समाज का और ज्यादा भट्टा बैठ गया. हाँ जो बड़े थे, मसलन रघुवीर सहाय जैसे लोग, नामवर और केदार (नाथ जी) के तमाम प्रयासों के बावजूद अपनी जगह हैं.
मतलब ये कि देवीप्रसाद जी अछे कवि हैं, इसमें क्या शक.
शिरीष भाई, हिंदी में लगभग भुला दिए गए इस अच्छे कवि की बेहतरीन कविताएं लगाने के क्या आभार व्यक्त करूं?
pahalii kavitaa…badaa /chuupa sach…bahut acchhey padhvaiye aur
भैये, असोक दद्दा की ये टिप्पणी आणी थी यो का अंदाज़ा तो नामवर नाम्ना नामी गिरामी का नाम पढ़ते ही हो गया था।
कविताएँ कितनी अच्छी हैं मेरे कहने से क्या फ़रक पड़ेगा? देवी साहब का संपर्कसूत्र???
बेहतरीन
धन्यवाद दोस्तो!
शायदा जी और महेन भाई देवीप्रसाद मिश्र की इस किताब के अलावा और सम्पर्क सूत्र नहीं मेरे पास ! दिल्ली में रहते हैं कहीं, कहां? पता नही !
devi ji ka fan hoon.gat varsh jab dilli me tha, phone baat hui, lekin chah kar bhi un se mil nahi saka. kavitayen behad sunder hain.
unki jitni kavitayen padhi, mano mere manki hi baaten hti, jo me keh nahi paata…..
ye sangrah padhna chhoonga
devi ji ka fan hoon.gat varsh jab dilli me tha, phone baat hui, lekin chah kar bhi un se mil nahi saka. kavitayen behad sunder hain.
unki jitni kavitayen padhi, mano mere manki hi baaten hti, jo me keh nahi paata…..
ye sangrah padhna chhoonga