बहुत कम चीज़ें थीं हमारे पास
रोशनी बहुत थोड़ी-सी
थोड़ी-सी कविताएँ
और होश
उनसे भी थोड़ा
हम किसी चक्रवात में फंसकर
लौटे थे
देख आए थे
अपना टूटता-बिखरता जहान
हमारी आवाज़ में
कंपकंपी थी
हमारे हाथों में
और हमारे पूरे वजूद में
हम दे सकते थे
एक-दूसरे को थोड़ा-सा दिलासा
थपथपा सकते थे
एक-दूसरे की कांपती -थरथराती देह
पकड़ सकते थे
एक-दूसरे का हाथ
हम बहुत कायर थे
वीरेन दा
उस एक पल
और बहुत बहादुर भी
मैं थोड़ा जवान था
तुम थोड़े बूढ़े
हमारी काली रात में गड्ड – मड्ड हो गयी थी
आलोक धन्वा की सफे़द रात
वो पागल कवि लाजवाब
गड्ड – मड्ड हो गया था
थोड़ा तुममें
थोड़ा मुझमें
अक्सर ही आती है यह रात
हमारे जीवन में
पर हम साथ नहीं होते या फिर होते हैं
किसी दूसरे के साथ
सचमुच
क्षुद्रताओं से नहीं बनता जीवन
और न ही वह बनता है
महानताओं से
पर कभी-कभी क्षुद्रताओं से बनती है महानता
अकसर ही कोई न कोई क्षुद्रता
क्षुद्रताओं से नहीं बनता जीवन
और न ही वह बनता है
महानताओं से
पर कभी-कभी क्षुद्रताओं से बनती है महानता
और महानताओं से
अकसर ही कोई न कोई क्षुद्रता
बहुत ही सुंदर ।
अक्सर ही आती है यह रात
हमारे जीवन में
पर हम साथ नहीं होते या फिर होते हैं
किसी दूसरे के साथ
बहुत सुंदर कविता।
वस्तुतः क्षुद्रता व महानता दोनों में एक विशेष सम्बन्ध है । दोनों दूर होते हुए भी बहुत पास होते हैं ।
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति