बोधिसत्व की ये कविता उनके पहले संकलन से है और आप देख सकते हैं कि वैश्विक स्तर पर आज कितनी प्रासंगिक है। ऐसी ही कुछ कविताओं के लिए मैं इस कवि का आदर करता हूं और प्यार भी…………….
यहां हूं
मैं यहां हूं
नाइजर में खे रहा हूं डोंगी
मेरे डांड की छप्प छप्प
सुन रही हैं रावी में नहा रही
लड़कियां
मैं यहां हूं
तिब्बत में
`तिब्बत हूं………. तिब्बत हूं´
का अन्नोर मचाता हुआ
मेरे पैरों के निशान
कालाहारी के रेगिस्तान में खोजता
थेंथर हो रहा है कोई
मैं यहां हूं
चाड का नुनखार पानी
अकसर मुझमें झांक कर
चुप रहती है
कोई झांवर पड़ रही औरत
परूसाल उसका सरबस खो गया था
यहीं
इसी पहाड़ के पीछे
मैं यहां हूं
बनारस के भिखारी रामपुर में
लगा रहा हूं
अपने खेत में गमकउवा धान
पूरे ताल पर ओनइ आया है मेघ
गिर रहा है महीन कना
महकती हुई फुहार
पड़ रही है
अदीस-अबाबा में !
***
यहां हूं
मैं यहां हूं
नाइजर में खे रहा हूं डोंगी
मेरे डांड की छप्प छप्प
सुन रही हैं रावी में नहा रही
लड़कियां
मैं यहां हूं
तिब्बत में
`तिब्बत हूं………. तिब्बत हूं´
का अन्नोर मचाता हुआ
मेरे पैरों के निशान
कालाहारी के रेगिस्तान में खोजता
थेंथर हो रहा है कोई
मैं यहां हूं
चाड का नुनखार पानी
अकसर मुझमें झांक कर
चुप रहती है
कोई झांवर पड़ रही औरत
परूसाल उसका सरबस खो गया था
यहीं
इसी पहाड़ के पीछे
मैं यहां हूं
बनारस के भिखारी रामपुर में
लगा रहा हूं
अपने खेत में गमकउवा धान
पूरे ताल पर ओनइ आया है मेघ
गिर रहा है महीन कना
महकती हुई फुहार
पड़ रही है
अदीस-अबाबा में !
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प्रासंगिक ही नही बल्कि सार्वकालिक है यह !!
शुक्रिया!!
धन्यवाद शिरीष जी – अच्छी कविता पढ़वाने का – कितनी सरलता से कितना कुछ पार कर जाती है एका; ये भी “अनुनाद” वाली कविता रही; – मनीष
अनुनाद में खुद को पाकर अच्छा लगा…
achchha kiya aapne…bodhistv ji kvita di…mujhe bhi psnd hai yh
सुन्दर!