अनुनाद

लीलाधर जगूड़ी

सबसे पहले ये कविता कबाड़खाना पर अशोक ने लगाई। मैंने इसे पढ़ा और फिर जगूड़ी जी से फोन पर बात हुई। इसे अनुनाद पर लगाने का लोभ मैं संवरण नहीं कर सकता !



अध:पतन
इतने बड़े अध:पतन की ख़ुशी
उन आंखों में देखी जा सकती है
जो टंगी हुई हैं झरने पर
ऊंचाई हासिल करके झरने की तरह गिरना हो सके तो हो जाए
गिरना और मरना भी नदी हो जाए
जीवन फिर चल पड़े
मज़ा आ जाए

जितना मैं निम्नगा* होऊंगा
और और नीचे वालों की ओर चलता चला जाऊंगा
उतना मैं अन्त में समुद्र के पास होऊंगा
जनसमुद्र के पास

एक दिन मैं अपार समुद्र से उठता बादल होऊंगा
बरसता पहाड़ों पर, मैदानों में
तब मैं अपनी कोई ऊंचाई पा सकूंगा
उजली गिरावट वाली दुर्लभ ऊंचाई

कोई गिरना, गिरने को भी इतना उज्ज्वल बना दे
जैसे झरना पानी को दूधिया बना देता है.

***

0 thoughts on “लीलाधर जगूड़ी”

  1. लीलाधर जगूड़ी की कविता तो शानदार है ही, आपका स्थाई भाव भी कम खौफनाक नहीं है। पहली बार आपकी गली में आया। ऐसे स्थाई भाव से डराया तो मत कीजिए। थोड़ा-सा तो मुस्कराइए।

  2. कविता निश्चित ही अच्छी है. “निम्नगा” – नदी के बहाने जो बात आयी है, सुन्दर है. कविता पहले भी पढ चुका था. दुबारा पढ्ते हुए भी वही ताजगी है.

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