इस बार वाया मंगलेश डबराल
स्त्रेस्नाय चौराहा
स्त्रेस्नाय चौराहे का गिरिजाघर बजाता है चार का गजर
हालांकि चौराहा और गिरिजाघर बहुत पहले उजड़ गए हैं
और उनकी जगह अब तान दिया गया है शहर का सबसे बड़ा सिनेमाघर
और वहाँ मैं मिलता हूँ उन्नीस वर्ष के नौजवान खुद से
उसे पहचान लेता हूँ फौरन बिना किसी अचरज के उसका फोटो तक देखे बग़ैर
हम बढाते हैं अपने हाथ लेकिन वे मिल नहीं पाते
चालीस वर्षों के आरपार
असीम समय – आर्कटिक समुद्र
बर्फ गिरने लगी है यहाँ स्त्रेस्नाय चौराहे पर
जिसका नाम अब पुश्किन चौराहा है
काँप रहा हूँ मैं ठिठुर गए हैं मेरे हाथ-पैर
हालांकि मैं पहने हुए हूँ ऊनी मोज़े और फरदार दस्ताने
बल्कि वही है मोजों और दस्तानों के बग़ैर
जूते फटे हुए चीथड़ों में पैर
उसकी जीभ पर एक खट्टे मांसल सेब की तरह है उम्र
अट्ठारह साल की एक किशोरी के पुष्ट स्तनों पर हैं उसके हाथ
उसकी आंखों में मीलों लंबे गीत हैं
और मृत्यु है बस छः फुट
और उसे नहीं मालूम क्या है उसके भविष्य के भीतर
वह तो मैं ही जानता हूँ उसका भविष्य
क्योंकि मैंने जिए हैं वे सभी विश्वास जिन्हें जियेगा वह
मैं उन शहरों में रह चुका हूँ जहाँ रहेगा वह
मैं उन औरतों से कर चुका हूँ प्रेम जिनसे करेगा वह
मैं सो चुका हूँ उन जेलों में जहाँ सोयेगा वह
मैं झेल चुका हूँ उसकी तमाम बीमारियाँ
उसकी तमाम नींदें सो चुका हूँ
देख चुका हूँ उसके तमाम स्वप्न
आखिरकार वह खो देगा सब कुछ
जो मैंने खोया है जीवन भर !
बहुत अच्छा है पर हल्लू-हल्लू छापो भाई…..
ab halloo halloo chhapunga bade bhai…