शालिनी सिंह की कविताएं 90 के दशक से साहित्य में उद्भूत स्त्री-अस्मिता की ओर इशारा करती हैं, किन्तु ये अपने कथ्य और कहन में बिल्कुल नए कलेवर की कविताएं हैं। ये कविताएं हर उस स्त्री के मन की बात को कहती हैं, जिन्होंने कभी न कभी, कहीं न कहीं इस धोखे, आडंबर, छल-छद्म और पीड़ा को महसूस किया है। लोक-भाषा के शब्दों का प्रयोग संवेदनाओं को और भी गहराता जाता है। अनुनाद पर यह कवि का प्रथम प्रकाशन है, उनका यहाँ स्वागत है।
– अनुनाद
नवरातों में औरत
अप्रेम के सूखते जल में
जब डूबना तय था
उन्होंने प्रार्थनाओं की पवित्र उंगलियों को थाम लिया
प्रेमी सदा से संदेहास्पद रहे
उन पर भरोसा करतीं तो बचना सम्भव न था
मन की टूटन में देह के दुखते पोर
अनदेखे रह जाते हैं
मन की कथनी कौन सुने भला
देवी के सामने अचरा पसार
मन की कह देने का आसरा असरकारक था
जहाँ कम से कम सुने जाने की संभावना पूरी रही
नवरातों के दिनों में उपवास से भूखी वे औरतें
देवी गीतों को पूरे जांगड से गाते हुए
एक अलग लोक रच लेती
पचरा गाते-गाते बेसुध हो जाती
ढोलक की ताल के साथ
झूमते हुए गिर-गिर पड़तीं
देवी के सामने पीड़ा के बन्द में बिंधे
गीतों को गाते हुए
मन की सारी कथा कह देतीं
मन पर पड़ा, मन भर बोझ
इन गीतों के कंधों पर धरकर
सुस्ता लेती कुछ समय
केश के बंद खुल जाते
वह किसी जोगन सी गीतों में लीन हो जाती
उसके गीतों और हृदय की पीर एक..
आत्मा का परमात्मा में मिलन इसे ही बताया होगा कबीर ने
वह कुछ पलों के लिये
मानो देवी सी नज़र आने लगती
जयघोष होने लगता
कि देवी उतर आई हैं
जो औरतें छटाँक भर
प्रेम न उड़ेलती उन पर कभी
वे पाँवों में लोटने लगतीं
मान मनौती करने लगतीं
जब तक देवी वापस न लौट जातीं
जब तक वह एक सामान्य औरत रही
नेह के कानों से किसी ने नहीं सुना उन्हें
पर देवी का रूप चढ़ते ही
चारों ओर से नेह, मेह बन झरने लगा
देवी का विदा होना उनके जीवन में
आये सुखों का लौट जाना है
उनकी सतरँगी दुनिया का फिर रंगहीन हो जाना है
वह फिर अगले नवरातों
की प्रतीक्षा में हैं
उसकी देह में फिर तितलियाँ उमड़ रही हैं
अब वह ईश्वर की नहीं प्रेम की तलबगार है
***
प्रेमिकाएं
हमारी स्मृतियों मे जितनी भी
प्रेम कहानियां विचरती हैं
जाने क्यों प्रेम में बिसूरती हुई
स्त्रियां ही अधिक नज़र आती हैं
प्रेमियों संग ब्याहने के बाद भी
और प्रेमियों से बिछोह के बाद भी
स्त्रियों के जीवन में प्रेम की हर तान को उस्तादों ने इतना बेसुरा
मान लिया
कि चौखट भीतर भी उन्हे प्रेम की हिस्सेदारी से
लगभग बेदख़ल किया जाता रहा
और वे तलाशती रहीं
एक कंधा, एक मन, एक स्पर्श
जहाँ वे सुबह की दूब से भीगे मन को सहला सकें
उपेक्षाओं की मार से कलपती लड़कियाँ
सपनों में बसे नायकों से सपनों में ही मन जोड़ती
रहीं
गीतों में उन्हें सदाएं देतीं
स्वप्नों में उन्हें बार बार बुलातीं
और तभी तुम मौसम के सबसे चमकते दिनों में
प्रेमी का रूप धर कर मदमस्त चाल से आये
और भर लिया अंकवार उन्हें
अपने प्रेम का दाँव दिखाकर
तुम तो ठहरे सभ्यता के पुराने धुरंधर
प्रेम की गोटी फेंकने में माहिर
तुम्हें सीखने की ज़रूरत नहीं
तुम्हारी देह अभ्यस्त है
प्रेम के दांव-पेंच और झांसों की गमक से
लड़कियाँ बाहें फैलाकर तुम्हारे हौसले को बल देती रहीं
उनकी समझ के दायरे से बाहर था
कि प्रेम छल के घोड़े पर सवार होकर भी आता है
प्रेम करता देखकर भृकुटि तानने वाली आँखों ने लड़कियों को फिर फिर
देखा
पर छल के खारे समंदर से सकुशल बाहर निकाल कर
लाने की जुगत सिखाने की चेष्टा नहीं की
उनके आसपास अंधेरे की ऐसी कालकोठरी थी
कि प्रेम से प्रेम को बिसरा कर
जीवन से दो चार होने की पड़ताल
सिखाती धूप भी उन तक न पहुँच सकी
लिखे गए तमाम ग्रन्थों में भी
प्रेम की सुपठित व्याख्या तुमने ऐसी लिपि में
लिखी कि जिसे उन जैसी दोयम दर्जे की स्त्रियाँ पढ़ नहीं पाईं
जब कि लिखे जाने चाहिए थे
बहुत से ऐसे आख्यान
जहाँ पहले पाठ में ही लिखी होतीं
कुछ सूक्तियाँ–
सावधान प्रेम की यात्रा शुरू करने से पहले
लड़कियां अपनी देह उतार कर यात्रा में शामिल हों
प्रिय के सुख के लिये
सत्य को असत्य से ढाँप कर जाते समय एक बार पुनः
स्वयं को जांच लें
दुनिया की तमाम प्रेमिकाएं जब इन आख्यानों को पढ़ें
तो लगा दें मोहर अपने समर्थन की
और करवा लें समय की ज़मीन में अपने इस एलान की
रजिस्ट्री
कि प्रेमियों अब तुमसे हमारा निबाह तभी होगा
जब तुम प्रेम को
संवेदना की स्याही से
लिखना सीख जाओगे
भले समय पर उनकी अर्जी़ अस्वीकृत कर दी जाए
पर वे मौसमों के हिसाब से प्रेम के थान पर
मजबूती से अपने पाँव जमाये रखना सीख जाएंगी
कि फिर उसी दिशा में नहीं चलेगा पंडितों के दिशाशूल का चातुर्य
वहीं उपजेगा प्रेम और जीवन
हाथ थामे
समानांतर चलते हुए
और फिर तिलमिला कर
लिखेगा फै़सला कोई न्यायाधीश
तोड़ देगा कलम की निब
और लगा देगा मुहर तुम्हारे प्रेम के हक़ में
***
विदा की बेला
विदा की बेला में एक दूसरे को देर तक देखते रहे
धरती पर जैसे मेह उतर आया
वैसे आँखों में उतर आया मोह
कि बारिशों का मौसम
मन के आवेग के अबाध बह
जाने के लिये होता है
उन्हें इस सदी के सबसे हारे हुए प्रेमियों में अपना नाम दर्ज़ नहीं
कराना है
कि वे प्रेम की नदी में
आत्माओं की कश्ती चलाकर आये हैं
जब कि प्रेम करना अभी भी एक वर्जना पर कुठाराघात करना है
वे क्षुद्र मानसिकताओं के दौर में प्रेम को बचा
लेने की
उम्मीद के प्रेमी हैं
प्रेम में प्रेम को बचा लेने की दुनिया के
साझीदार
कि ये बारिशें भले उनके प्रेम के हिस्से न आ पाई
हों
उनके मन के एक हिस्से में बनी रहेगी बारिशों की
मनचीती प्रतीक्षा
कि टूटते मन को बचा लेगा स्मृतियों का मीठा
आह्लाद
भींच कर गले लगा लेगा कोई स्पर्श
तो ताप कम हो जाएगा प्रतीक्षाओं का
उन्हें ईश्वर ने प्रेम के अभेद्य किले में
घुसकर सुरक्षित साथ बाहर निकलने की कला में
पारंगत करके भेजा है
समय पर मौसमों की चाह से वे भले चूक जाएं
पर प्रेम में एक दूसरे के प्रति समर्पण बचा लेगा उनके प्रेम को
कि वे प्रेम से रिक्त होती धरती पर
प्रेम के उपजाऊ बीज रोपने आये हैं
***
भरोसा
उन्होंने ही किया सर्वाधिक दोहन भरोसे का
जिनकी शिराओं में सभ्यताओं की रसोई का नमक घुला
था
पुरखों की कही ये सूक्ति स्मरण करती हूँ बार बार
पर उतार नहीं पाती इसका अंश भर भी जीवन में
उम्र के इस पड़ाव पर जब हाथ खाली हैं
और मन भरा तब सोंचती हूँ कि
अपने समय का कितना हिस्सा अनगिन बार
उन हित साधकों के लिये रसोई बनाने में गुज़ार
दिया
जो केवल अपने हित संधान के लिये आये थे
जिनके चेहरे पर उमग आई
विपन्नता
को ठौर देकर
उलझने अपने लिये ही बड़ाईं
पर आश्वस्त रहा मन का हर कोना हमेशा
लकदक
भरोसे के जल से
सींचती रही हित साधकों के हित
मन के भीतर की छठी इन्द्रिय भी
ऐसे अवसरों पर सदा सुप्त रही
जो सूंघ सकती हित साधने आये मीठी मुस्कान धारकों
को
हित साधकों के पृष्ठ में छिपी मंशा को
भाँपने का चातुर्य हर किसी में नहीं होता
स्वार्थ साधते लोग अपनी नम बोली
मीठी मुस्कान से जमाते रहे पाँव अपने
उन्हें खड़ा करने की जद्दोजहद में निष्ठा के साथ
खड़ी रही
और वो स्वावलंबी हो
मेरे ही पाँव के नीचे से जड़े काटने लगे
ईश्वर के दिये इतने समय में से
उम्र का एक मनचीता हिस्सा चला गया इन हितसाधकों
के हिस्से
जिन पलों में हित साधकों के हित साधने का जरिया बनी रही
ठीक उन्हीं पलों में कर सकती थी सृजन
मन के भीतर और बाहर के आह्लाद से
या
बेफ़िक्री की एक लंबी नींद
को बुला सकती थी आँखों में
***
बीतना
जीवन के समूचे परिदृश्य में
न जाने कौन बहरूपिया
आता है
चहल कदमी करता है
कंधों पर चुपके से थोड़े से दुख और डाल जाता है
कुछ सुख आप चले जाते हैं उसके साथ
तैरना नहीं आता
सुख की कामना करते हुए
दुख की नदी को हाथ पाँव मारते हुए पार तो कर
लेती हूं
पर देह और मन जगह जगह से छिल जाता है
न याद करने वाली स्मृतियों की बाड़ इतनी गझिन है
कि सुख के बीते पलों के प्रवेश के लिये राह ही
नहीं बचती
कह देने से मन हलका नहीं होता
बल्कि और भर जाता है
आंसुओं के जमे हिमखंड भरभराकर फूट पड़ते हैं
मन की मुंडेर पर एक पाँव से देर तक टिका नहीं
रहा जा सकता
दुख की तीखी धूप में कोस कोस भर पैदल चलते हुए सुख की छाँव की आस पर
बीत रहा है जीवन
धीरे धीरे बीत रही हूं मैं भी समय की धार को काटते हुए
***
परिचय: शालिनी सिंह
जन्म स्थान : लखनऊ
शिक्षा: एम ए, एम फ़िल, पी–एच. डी. (हिन्दी)
प्रकाशन: विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशन
लखनऊ से साहित्यिक संस्था सुख़न चौखट का संचालन
बधाई। बहुत अच्छी कविताएं शालिनी।
अति सुंदर सृजन
हर कविता गहन वैचारिक भाव को समेटे मन को उद्वेलित करती हुई, साधुवाद
– डॉ जया आनंद