ये स्मृति है एक अंकुर की जिसे बड़ा पेड बनना था लेकिन अब उसके अंकुराने के कुछ प्रमाण ही शेष हैं। उसके नाम से मुझे, विशाल श्रीवास्तव, हरेप्रकाश उपाध्याय और उमाकांत चौधरी को मिले सम्मान ने हम सभी को युवा कविता में एक मुकाम तक पहुंचाया है। सोचता हूँ काश ये सम्मान न होता, अंकुर खुद होता …… बहरहाल उसकी ये दो कवितायेँ और एक पेटिंग……..
( जन्म 13 जुलाई 1980 – देहान्त 26 अगस्त 2001)
जनम
ईंटों की चट्टानें और उनमें से झांकती खौफनाक खिड़कियाँ
रोज़मर्रा की दहशत
रंडियों की खुली टांगें जो चाहें तो पैदा कर दें धरती, पाताल और
उससे आगे भी
मगर पेड़ों की दरारों में से अब सिर्फ
मकड़े निकल रहे हैं
सूखे पत्तों की नसों को चूस लिया है
दीमकों ने
बारिश, गर्जना, बिजलियां कौंधती
फूलों पर तितलियां
और अंत
और अंत
और मृत्यु
मुझे जन्मना है !
I Don’t Want My Paradise Lost
Nobody calls out to me.
I roam around in the wilderness
of patterns on my bed-sheet.
Someone please call out to me
Iam desperate to be born,
and reborn,
and die and re-die
and
be reborn.
I have metamorphosed into
a wheel with many steel rims.
There has to be a speed-breaker.
Someone, there must be someone,
stretch your hand to me.
Call out, for god’s sake.
Iwill grasp your hand and take you on a journey
through the stars.
Show me Aladdin’s chirag,
show me the flying carpet,
show me the dancing daffodils,
show me the rabbit hole.
I will dig into it,
I will keep digging until I find
Paradise
I don’t want my paradise lost
प्रस्तुति – शिरीष कुमार मौर्य
आँखे नम कर देने वाला भाव है…..काश सच में अंकुर हमारे बीच होता
ha ankur hote to aaj ham thode smridh hote. gajab ki unchai hai unki kavitaon men…
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काश कि….
काश
काश
काश
कैसा अजीब-सा शब्द है ना ये!