इतने दिनों में याद जो तेरी, आई भी तो आई क्या
मैं भी तन्हा तुम भी तन्हा दिन तन्हा रातें तनहा
सब कुछ तन्हा तन्हा सा है, इतनी भी तन्हाई क्या
खिंचते चले आते हैं सफीने देख के उसके रंगों को
तुमने एक गुमनाम इमारत साहिल पर बनवाई क्या
सारे परिंदे सारे पत्ते जब शाखों को छोड़ गए
उस मौसम में याद से तेरी हमने राहत पाई क्या
कांच पे जब भी धूल जमी, हमने तेरा नाम लिखा
कागज़ पर ही ख़त लिखने की तुमने रस्म बनाई क्या
आ अब उस मंजिल पर पहुंचें जिस मंजिल के बाद हमें
छू न सके दुनिया की बातें , शोहरत क्या रुसवाई क्या
दो
उसके पांवों की मिटटी ढलानों की है
चाह फ़िर भी उसे आसमानों की है
हर तरफ़ एक अजब शोर बरपा किया
ये ही साजिश यहाँ बेज़ुबानों की है
कोई आहट न, न साया, न किलकारियां
आज कैसी ये हालत मकानों की है
उसको क़ीमत लगा के न सस्ता करो
उसकी हस्ती पुराने ख़जानों की है
आप हमसे मिलें तो ज़मीं पर मिलें
ये तक़ल्लुफ़ की दुनिया मचानों की है
वाह , बहुत वजनी और दमदार ग़ज़ल हैं दोनो शिरीष भाई , बहुत बधाई हो
मुझे भी इस से एक बड़ा अच्छा सा मुक्तक याद आ गया देखिए
” भूख के एहसास को शेरो – सुखन तक ले चलो
या अदब को मुफ़लिसी के अंजुमन तक ले चलो
जो ग़ज़ल माशूक के जलवे से वाकिफ़ हो गयी
उसको अब बेवा के माथे की शिकन तक ले चलो “
संजय जी आपसे परिचय होना अच्छा रहा
समय मिले तो कभी मेरे ब्लॉब पे भी कृपा दृष्टि करें
डॉ.उदय ‘मणि’कौशिक
http://mainsamayhun.blogspot.com
क्या बात है लल्लाहिरी!
दिल में पता नहीं क्या-क्या उठा दिया तैने. हरजीत … मेरा यार … मेरा सुख़नवर … मेरा आवारा शराबी दरवेश …
ख़ैर
“कांच पे जब भी धूल जमी” को हरजीत ने किताब छपने के बाद “कांच पे धूल जमी देखी तो” कर दिया था. मेरी किसी डायरी में उसकी हस्तलिपि में यह शेर रखा हुआ है.
बाकी हरजीत को याद करने और आज इतवार को मुझे उसे लगातार याद करते रहने के महबूब काम में लगा देने का थैंक्यू.
मुझे पता था अशोक दा कि तुम्हारे दिल में एक तूफान-सा उठेगा. क्योंकि कितनी ही बातें हैं, जो केवल तुम जानते हो. मेरा हरजीत जी से परिचय मेरे दिल्ली वाले चाचा यानी खानचाचा सहारावाले के जरिये था। ये दोनो हमप्याला-हमनिवाला थे. दोनो दोस्त एक ही जगह इश्क में भी मुिब्तला थे. कभी विस्तार से चर्चा होगी आपसे. दोनों में इस बात पर झगड़ा भी हुआ लेकिन फिर दोनो ने ही धोखा खाया और आपस दोस्ती कर ली !
अब हरजीत नहीं हैं। बहुत दुख होता है ये लिखते हुए कि वे नहीं हैं। इसलिए भी मैंने कोई परिचय नहीं लगाया!
हरजीत को खूब याद किया। उसकी मासूमियत और उसकी पियक्क्ड़ी, दोनों खूब याद आते हैं।
राजीव लोचन साह
वाह – बहुत बढ़िया – मनीष
मेरे यार हरजीत की शायरी पर अनेक पहलुओं से मैंने लेख लिखे हैं लेकिन वह तो आसमान की तरह खुलता ही जा रहा है।
मेरे यार हरजीत की शायरी पर अनेक पहलुओं से मैंने लेख लिखे हैं लेकिन वह तो आसमान की तरह खुलता ही जा रहा है।