पुराने उम्रदराज़ दरख्तों से छिटकती छालें
कब्र पर उगी ताज़ा घास पर गिरती हैं
अतीत चौकड़ी भरते घायल हिरन की तरह
मुझमें से होते भविष्य में छलाँग लगाता है
मैं उजाड़ में एक संग्रहालय हूँ
हिरन की खाल और एक शाही वाद्य को
चमका रही है उतरती हुयी धूप
पुरानी तस्वीरें मुझ पर तोप की तरह तनी है।
भूख की छायायों और चीखों के टुकडों को दबोच कर
नरभक्षी शेर की तरह सजा -धजा बैठा है जीवित इतिहास
कल सुबह स्वतंत्रता दिवस का झंडा फहराने के बाद
जो कुछ भी कहा जायेगा
उसे बर्दाश्त करने की ताक़त मिले सबको
मैं शायद कुछ ऐसा ही बुदबुदा रहा हूँ !
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कल सुबह स्वतंत्रता दिवस का झंडा फहराने के बाद
जो कुछ भी कहा जायेगा
उसे बर्दाश्त करने की ताक़त मिले सबको
मैं शायद कुछ ऐसा ही बुदबुदा रहा हूँ !
-बहुत उम्दा, क्या बात है!
liked the poem very much.
one writes only if one lives the thought very deeply.thankyou for this poem