दोस्तों के डेरे पर एक शाम – एक
बहुत कुछ नहीं रहा जब बाक़ी
हमारे जीवन में
हमने टटोली अपनी आत्मा
जैसे आटे का ख़ाली कनस्तर
जैसे घी का सूना बरतन
जैसे पैंट की जेब में छुपा दिन का
आखिरी सिक्का
बहुत कुछ नहीं रहा जब बाक़ी
हमने खंगाला अपना अंतस
जैसे तालाब को खंगाले उसकी लहर
जैसे बादल को खंगाले उसकी गरज
हमने खंगाला खुद को
और फिर
रात और दिन के बीच छटपटाती
उस थोड़ी-सी
धुंधलाई रोशनी में
हमने पाया
कि बाक़ी था अभी
कनस्तर में थोड़ा-सा आटा
बरतन में छौंकने भर का घी
जे़ब में सिगरेट के लिए पैसा
अभी बाक़ी था
बाक़ी था जीवन।
दोस्तों के डेरे पर एक शाम – दो
बहुत कुछ टूटा हमारे भीतर
और बाहर भी
रिश्ते टूटे
रिश्तों के साथ टूटे दिल
दिलों के साथ देह
इच्छाओं की भीत टूटी
खुशियों का वितान
घर टूटे हमारे
घरों के साथ सपने
सपनों के साथ नींद
बहुत कुछ टूटा जीवन में
जागते हुए काटीं हमने अपनी सबसे काली रातें
पर बचे रहे
बचे रहे हम
जैसे आकाश में तारों के निशान
जैसे धरती में जल की तरलता
जैसे चट्टानों में जीवाश्मों के साक्ष्य
बचे रहे
इस दुनियावी उथल-पुथल में
हमेशा के लिए बस गई
हमारी उपस्थिति।
1999
जैसे आटे का ख़ाली कनस्तर
जैसे घी का सूना बरतन
जैसे पैंट की जेब में छुपा दिन का
आखिरी सिक्का
bahut khoobsurat ….dil ko choo liya jaise…..aapne
जैसे आकाश में तारों के निशान
जैसे धरती में जल की तरलता
जैसे चट्टानों में जीवाश्मों के साक्ष्य
well said dost….well said…
दोनों ही कविताऎं बहुत खूब हैं।
और फिर
रात और दिन के बीच छटपटाती
उस थोड़ी-सी
धुंधलाई रोशनी में
हमने पाया
कि बाक़ी था अभी
कनस्तर में थोड़ा-सा आटा
बरतन में छौंकने भर का घी
उम्मीद जगाती है बहुत कुछ टूटते हुए इस समय में।
शुक्रिया अनुराग जी और विजय भाई !
शुक्रिया अनुराग जी और विजय भाई !
घर टूटे हमारे
घरों के साथ सपने
सपनों के साथ नींद
बहुत कुछ टूटा जीवन में
जागते हुए काटीं हमने अपनी सबसे काली रातें
पर बचे रहे
बचे रहे हम
–वाह!!! बेहद गहन!! बहुत उम्दा!
दोनों ही बेहतरीन रचनायें..
मेरी भावना को जैसे यह कविताएँ छू गयीं, सच!
बहुत ही बढि़या
बहुत ही उम्दा
और क्या कहूं-
‘बचे रहे
इस दुनियावी उथल-पुथल में
हमेशा के लिए बस गई
हमारी उपस्थिति।’
बचे रहे जैसे दर्रे पार कर आई सभ्यता का “अनुनाद”? – साभार – मनीष