अनुनाद

तसला

वह मुझे धरती की तरह लगता है
जिसे उठाए
इतने सधे कदमों से चढ़ती-चली जाती हैं बांस के टट्टरों पर
कुछ सांवली और उदास औरतें

उसमें क्या नहीं समा जाता?

एक बार तो अपने दुधमुहें बच्चे को ही
उसमें लिटाए
चली जा रही थी एक ऐसी ही औरत
तब वह उसके हृदय की तरह था

अच्छे से माँज – धोकर आटा भी गूंधा जा सकता है
उसमें
उसी को उल्टा धर आग पर सेंकी जा सकती हैं रोटियां
यह मैंने कल शाम देखा

उसमें औज़ारों की-सी चमक नहीं होती
कोई धार
कोई भारीपन नहीं

बहुत विनम्र होता है वह
औज़ारों में कभी गिना ही नहीं जाता
जबकि उसी पर लदकर आती हैं इमारतें
जब वे खालिस ईंट-गारा होती हैं

उन्हें ढोने वाली औरतें उन्हें ढोती रहती हैं अविराम
चढ़ती जाती है ईंट पर ईंट
गारा भर-भर के उन्हें जोड़ना जारी रहता है
तब तसला
तसला नहीं रहता
एक पक्षी में बदल जाता है
एक काले और भारी पक्षी में
जिसे हम सिरों के ऊपर उड़ता हुआ देखते हैं

कभी अपनी कोई अधूरी इच्छा
ऐसे ही किसी तसले में रखकर देखिए
जैसे वे औरतें रखती हैं अपना बच्चा
या जैसे गूंधा हुआ आटा रख दिया जाता है
या फिर
सुलगा ली जाती है जाड़ों की रात में कोई आग
उसी में धरकर

वो बच्चा एक दिन बड़ा हो जायेगा
मेहनतकश बनेगा
अपने माँ -बाप की तरह
उस आटे की भी रोटियां सिंक जायेंगी
और उस बच्चे का पेट भरेंगी

और वह आग
वह तो तसले में ही नहीं
उस और उस जैसे कई बच्चों के
दिलों में जलेगी

जानना चाहते हैं
तो देखिए-
उस आग की रोशनी में देखिए
क्या आपकी इच्छाएं भी
कभी फलेगी?

० ० ०
‘वसुधा’ और ‘विपाशा’ में प्रकाशित

0 thoughts on “तसला”

  1. वीरेन डंगवाल जी की कविता पंक्ति याद है आपको-
    ‘हम रक्त से भरा हुआ तसला हैं…
    और क्या कहूं .
    बहुत बढिया, वैसे ‘बढ़िया’ शब्द….?
    फ़िर कभी..

  2. गहरे अर्थ हैं और स्‍पष्‍ट भी-
    और वह आग
    वह तो तसले में ही नहीं
    उस और उस जैसे कई बच्चों के
    दिलों में जलेगी

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