महेन युवा ब्लागर हैं और बैंगलोर में रहते हैं, इससे अधिक मैं उनके बारे कुछ नहीं जानता। उनकी एक पोस्ट से पता चला कि वे मेरे हममुलुक भी हैं। कबाड़ियों के अड्डे अशोक के ब्लॉग कबाड़खाना पर हमारी जान-पहचान हुई और उनके हलंत नामक ब्लॉग से भी परिचय हुआ । उनका ब्लॉग मुझे रोचक लगा और उन्हें मेरा अनुनाद, ऐसे ही शायद हमारे बीच की अदेखी दोस्ती पनपी हो। इधर उनके हलंत में विख्यात कथाकार हेरमेन हेस्से की कुछ कविताएं देखीं, जो मुझे बहुत अच्छी लगीं। मैंने उनसे अनुनाद के लिए भी अनुवाद करने का अनुरोध किया और उन्होंने मेरे अनुरोध की रक्षा की!
परिणामत: प्रस्तुत हैं ये दो कविताएं …
०१.मैं जानता हूँ, तुम जाती हो
अकसर देर रात मैं सड़क पर चलता हूँ
जल्दी-जल्दी
नज़र झुकाए और डर से भरा हुआ
तुम आ सकती हो चुपचाप अचानक मेरे सामने
और मैं चुरा नहीं पाऊँगा तुम्हारी तकलीफ़ों से नज़र
देखना ही पड़ेगा
कैसे तुम मुझसे अपना अभ्यतीत सुख मांगती हो
हर रात तुम जाती हो बाहर
मैं जानता हूँ
झिझकते कदमों से सस्ते भड़कीले कपड़ों में
पैसों के लिये
और दिखती हो बेहद दरिद्र
तुम्हारे जूतों पर चिपकी रहती है
तमाम धूल
भव्य हवा तुम्हारे बालों से अठखेलियाँ करती है
तुम जाती हो और तुम्हें मिलता नहीं घर।
०२.खेतों के पार
ऊपर आकाश में बादल घूमते हैं
खेतों के ऊपर हवा
पार खेतों के घूमती है
मेरी माँ की खो चुकी संतान
सड़क पर उड़ते हैं पत्ते
पेड़ों पर पंछी चहचहाते हैं
दूर कहीं पहाड़ों के पार
ज़रूर मेरा घर होगा।
Shireesh bhai ye shaksh chhupa rustam hai. isne apne dosto ko bhi chaunka diya hai. kisi ko uske is taste ka pata nahi tha. uska ghar pahado.n ke peechhe hi hoga zaror par wo rahta dilli mein tha, chupchap apnee mohabbat ko sadhta hua…ye achha hai ki anuwad vaya angreji nahi hain
अजी महेन जी की बात कुछ और हैं। पहली बार में ही पढते ही इनके लेखन के कायल हो गए थे। इनकी वजह से ही हम तो बाहर के लेखकों से परिचय कर पाए थे। हेरमेन जी की रचनाएं पढकर अच्छा लगा। बल्कि आज की “मैं जानता हूँ तुम जाती हो” दिल को छू गई।