अनुनाद

बिना माँ के बड़ी होने वाली लड़कियां

अनुनाद मेरा ब्लॉग है और शायद मुझे पूरा अधिकार है कि इसमें अपनी कविताएं लगाऊं, लेकिन एक वरिष्ठ तथा मेरे प्रिय कवि ने फोन पर बताया कि एक सज्जन ने उनसे कहा है कि शिरीष अपनी पूरी रचनात्मक ऊर्जा ब्लॉग पर आत्मप्रचार में नष्ट कर रहा है। सभी पाठक जानते हैं कि अनुनाद पर मेरे अलावा भी बहुत कुछ छपता है।
मैं आज अपनी एक कविता लगा रहा हूं, लेकिन किंचित दु:ख के साथ ….. यह कविता गोरखपुर से छपने वाली पत्रिका प्रस्थान के नए अंक में छपी है, जो मुझ पर केंद्रित है !


बिना माँ के बड़ी होने वाली लड़कियां

इतने
कठोर शीर्षक का मैं
विरोध करता हूँ
लेकिन
इसे शायद ऐसा ही होना है
क्योंकि ये जीवन है कितनी ही लड़कियों का
जिन्हें बड़ा होना होता है
बिना किसी सहारे
ख़ुद के ही दम पर
पार पाना होता है दुनिया से
और ख़ुद से भी

उनके कुछ शुरूआती क़दमों तक
वे माएँ उनके साथ रही
फिर खो गईं
किसी ऐसे बहुत बड़े अंधेरे में
जिसे पारिभाषिक रूप से हम मृत्यु भी कह सकते हैं
वे छोड़ गई पीछे
अपनी ही कोख से जन्मे
डगमगाते पाँव
जिन्हें धरती को इस्तेमाल करना भी नहीं आता था

वे छोड़ गईं उन्हें
जैसे अचानक ही तेज़ हवा चलने पर
आँगन में
अधूरी छोड़नी पड़ जाती है
कोई रंगोली

जो पीछे रह गईं वे कुछ कोंपलें थी
धूप और हवा में हिलती हुई पूरे उत्साह से
हर किसी को लुभाती
कभी-कभी तो अचानक ही उन्हें चरने चले आते
मवेशी
अपना मजबूत जबड़ा हिलाते

वे भय से काँप कर
अपने आपसपास की बड़ी पत्तियों के पीछे
सिमट जातीं

अपने पहले स्त्राव से घबरायी
दौड़ती जातीं
पड़ोस की किसी बुआ या चाची के घर
मदद के वास्ते
तो ऐलान हो जाता
मुहल्ले भर की औरतों में ही
कि बड़ी हो गईं हैं अब अमुक घर की बछेिड़यां भरपूर
और उनके पीछे तो कोई लगाम भी नहीं

क्या वे सिर्फ़ लगाम ही बन सकती थीं
जो चली गईं
असमय ही छोड़कर
और जो बची रहीं वे भी आख़िर क्या बन पायीं?

बहुत कठोर लेकिन आसान है यह कल्पना
एक दिन
ये लड़कियां भी माँ बनेंगी
और उसी राह चलेंगी
दुनिया में रहते या न रहते हुए भी
बहुत अलग नहीं होगा इनका भी जीवन

इतने कठोर अन्त का भी
मैं विरोध करता हूँ
लेकिन इस प्रार्थना के साथ –

मेरी कविता में उजाला बनकर आयें
वे हमेशा
वैसी ही खिलखिलाती
शरारती
और बदनाम

और मैं उजागर करता रहूँ जीवन
उनके लिए
लेकिन
अपनी किसी अनहुई बेटी की तरह
हमेशा ही
दिल की गहराइयों में कहीं
सोचकर रखूं
उनके लिए एक नाम!


0 thoughts on “बिना माँ के बड़ी होने वाली लड़कियां”

  1. सुंदर कविता. कविता कम ही पढ़ता हूँ, कवियों से वितृष्णा के इस दौर में कवि होना साहस का काम है लेकिन अक्सर लोग साहस नहीं, दुस्साहस दिखाते हैं. ब्लॉग पर कविता कभी पढ़ लेता हूं तो वह आप ही हैं, अन्यथा इक्का-दुक्का व्यक्तिगत कारण हैं. वैसे आप बेफ़िक्र होकर कविताएँ लिखें, पढ़ने वाले हैं. बाक़ी कवि या अकवि क्या कहते हैं, इससे फ़ैसला नहीं होगा. वागार्थ पर छपे या ब्लॉग पर बात एक ही है, कविता भी पढ़ने के लिए है, ब्लॉग पर आत्मप्रचार तो अलाव के अंक में क्या? बात कुछ समझ में नहीं आई. आप जारी रहें.

  2. बहुत सुन्दर ! कैसे बड़ी होतीं होंगी वे लड़कियाँ ,सोचकर ही सिहर जाती हूँ ।
    घुघूती बासूती

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