अनुनाद

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हरजीत की ग़ज़लें – अशोक के लिए :2

शोक का एक दिन पूरा हुआ और मैं सिलसिले को वहीँ से उठा रहा हूँ जहाँ से ये टूटा था – यानी अशोक पांडे से ! पहले भी मैंने हरजीत की ग़ज़लें अशोक के नाम लगाई थीं। हरजीत कई उम्रों की दोस्ती के शख्स थे और अशोक से उनकी काफी आत्मीयता रही, इसलिए एक फ़िर यही कर रहा हूँ।

“उसको क़ीमत लगा के न सस्ता करो,
उसकी हस्ती पुराने खज़ानों की है। “

एक
क्या सुनायें कहानियां अपनी
पेड़़ अपने हैं आंधियां अपनी

अब समंदर उदास लगता है
बांध लीं सबने किश्तयां अपनी

तू जो बिछड़ा तो इक मुसिव्वर ने
रह्न रख दी है उंगलियां अपनी

मेरे कमरे में कोई छोड़ गया
चंद यादों की चूड़ियां अपनी

उसके आंगन के नाम भेजी हैं
मैंने लफ्ज़ों की तितलियां अपनी

आंख कहती है अब तो सो जाओ
बोझ लगती है पुतलियां अपनी

दो

उसके पांवों में मिट्टी ढलानों की है
चाह फिर भी उसे आसमानों की है

हर तरफ़ इक अजब शोर बरपा किया
ये ही साजिश यहां बेज़बानों की हैं

कोई आहट, न साया, न किलकारियां
आज कैसी ये हालत मकानों की है

उसको क़ीमत लगा के न सस्ता करो
उसकी हस्ती पुराने खज़ानों की है

आप हमसे मिलें तो ज़मीं पर मिलें
ये तक़ल्लुफ़ की दुनिया मचानों की है

उसकी नाकामियों पर मुझे नाज़ है
जिसकी कोशिश मुसलसल उड़ानों की है

0 thoughts on “हरजीत की ग़ज़लें – अशोक के लिए :2”

  1. उडानों की निरंतर कोशिश करने वालों की नाकामियों पर नाज़ करके ही हौसला अफजाई की जा सकती है.

  2. हरजीत हमारा आत्मीय और प्यारा दोस्त था, इससे ज्यादा क्या कहूं। हरजीत को देखकर अच्छा लगा।

  3. इतनी बेहतर ग़ज़ल की तारीफ कौन नहीं करेगा। मैं तो कायल हो गया
    वाह हरजीत भाई वाह।

  4. हरजीत को देख कर तबीयत खुश हुई.वह अगर आज होता तो ब्लोग की ज़िन्दगी और खुश्नुमा होती.
    वह गर्व से कहता था कि उर्दू के उस्ताद तीन से ज्यादा बिरहमन को साथ नही ला पाये. वह चार को एक साथ शामिल कर गया
    ये शामे-मयकशी भी शामो मे शाम है इक
    नासेह, शेख,वाहिद,जाहिद है हमप्याला

  5. मेरे कमरे में कोई छोड़ गया
    चाँद यादों की चूडियाँ अपनी
    आँख कहती है अब तो सो जाओ
    बोझ लगती हैं पुतलियाँ अपनी
    ****
    कोई आहट ना साया ना किलकारियां
    आज कैसी ये हालत मकानों की है
    उसकी नाकामियों पर मुझे नाज है
    जिसकी कोशिश मुसलसल उडानो की है
    ऐसे बेहतरीन और लाजवाब ग़ज़लों के शायर को मेरा सलाम….क्या खूब लिखा है…आप से गुजारिश है की इनका लिखा और भी पढ़वाएं …
    नीरज

  6. हरजीत की गजलें पढ कर मन भर आया .बहुत सहज भाषा में लिखी गजलें हमारे जीवन के बहुत करीब लगती है.दिल्ली के पुस्तक मेले में एक मुक्तशर सी मुलाकात याद है.उन्होने मुझे अपनी किताब दी थी .फिर अगले साल वे जुदा ही हो गये.आपने उन्हे याद कर बहुत अच्छा काम किया. जाने वालों को याद करने वाले लोग कम होते जा रहे हैं.

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