कुछ नहीं सिर्फ़ प्रेम
(संत ज्ञानेश्वर के `अमृतानुभव´ के स्मरण सहित जिनकी छाया दो अंशों में है)
एक
कितनी छोटी पड़ जाती दुनिया जब हम होते एक
हमें ढूंढनी पड़ती जगह
और समुद्र तक पुरता नहीं
आकाश से बाहर निकल जाते हम
यह कैसा जादू
इसे ही कहते क्या प्रेम की मुक्ति
अथवा समय के पास चमकता हमारे बीच
रात का सूरज
दो
घर पर हो बाहर सिर्फ़ हम दोनो ही तो
और उस वक़्त भी जब मैं सो जाता हूं अमृत होकर
तुम एकटक देखती रहती हो जागती
क्योंकि तुम ही तो मालकिन
तुम्हारा ही पसारा
मेरा घर-संसार
एक हल्की झपकी भी तुम्हारी बुझा देगी
मेरे दिन-रात
तीन
कभी-कभी कितने एक
कितने एक हम कि गर्भ-गृह के बाहर भी
कभी दो नहीं
इतने पास
इतने कि दिपदिपाते असंख्य आईनों के बीच भी
नहीं देख सकते एक-दूसरे को
कितने वसन्त आए-गए
निदाध
बारिश बेमाप
फिर भी अतृप्त हमारी इच्छा
यद्यपि मृत्यु हमारी मित्र
फिर भी भय सदा !
कहीं हम दो तो नहीं?
चार
तुम्हारे एक स्तन से आकाश
दूसरे से समुद्र
आंखों से रोशनी
तुम्हारी वेणी से बहता
वसन्त का प्रपात
जीवन तुम्हारी धड़कनों से
मैं जुगनू
चमकता
तुम्हारी
अँधेरी
नाभि के पास
पाँच
जब मेरे खून के भीतर तैरता सपना
झाँकने लगता तुम्हारी आंखों से
उसी वक़्त मुझे सुनाई पड़ने लगती
तुम्हारे खून की नदी में पंख मारते हंसों की फड़फड़ाहट
हंसध्वनि की लय पर ठिठक जाता महाकाल
दो जलपाखी गोता लगाते गहरे
और प्रेम की हथेली पर मोती के एक नन्हें बच्चे-सा
चमकने लगता समुद्र
छह
अँधेरा प्रगाढ़ और बंद आँखें
पर मैं देख रहा हूँ तुमको
वसन्त की धूप में फरवरी के समुद्र तट पर नहाते
नींद गहरी और सपना भरपूर
फिर भी सुबह पक्का यक़ीन मैं मिलकर आया तुमसे
गंध तुम्हारी मेरे भीतर
मुझ पर निशान तुमसे मिलने के
अस्तित्वहीन अँधेरा हमेशा खुली आँखें
नींद में सतत जागना
छिन्न-भिन्न सपनों का इन्द्रजाल
सब कुछ सम्भव यदि हासिल कर लें हम महारत
देह से बाहर निकलने की
सात
कौन किसका आखेट
इच्छाएं नोचती इच्छाओं को परस्पर
या हम ही एक-दूसरे का आहार
काल का जख़्म सूरज और दो छायाएं
सुलगते जख़्म के नीचे
जन्म-जीवन-मृत्यु का त्यौहार
या दिन-रात की तरह हम दोनों
बनते रहते मरहम-पट्टी
फिर भी दहकता रहता शाश्वत
प्रेम का घाव
आठ
लपटें लपकती फूल पर
शहद के छत्ते पर झपट्टा मारते मौत के घोड़े
एक दिन एक जब नहीं होकर बह जाएगा समुद्र का झाग
तो बिखर जाएगा एकपन हमारा
फिर बचेगा जो आधा नहीं
एक अकेला रह जाएगा
कभी आधा कभी एक
बचेगा ऐसा जो करेगा क्या?
नौ
जो नहीं है सामने
उसको और कितना ढूंढ रहीं तुम
और मैं भी तो सहेज रहा अपने भीतर
छू तक नहीं सकता जिसको
अग्नि-पिंड हो जाए हवा
उसके पहले का उपाय
तुम यह किनारा
मैं वह किनारा
बीच में बहता रहे अनवरत
प्रेम के समय का जल
दस
कुछ नहीं सिर्फ़ प्रेम
चुपचाप निर्वसन नहाते हुए भी
तुम – अश्लीलता के अंधेरे को तहस-नहस करती तलवार
पेड़ तुममें रोशनी का
तुम्हारे भीतर से उड़कर आसमान पाट देते असंख्य परिन्दे
तुम मेरी आधी रात का सूर्योदय
तुममें मैं आग
फफोले उमचाता शब्द
मुझसे तुम आँख
जिससे हम देखते सपने।
***
kehna kya..bas padhaa jaaye..aabhaar..
………………कुछ नही सिर्फ़ प्रेम
देवताले जी की ये कवितायें पहले पढ़ चुका हूँ, लेकिन इन्हे जितनी बार पढो हर बार एक नया आनंद मिलता है। श्रेष्ठ कवितायें पढ़वाने के लिए आभार।
बहुत अच्छी और आवेगभरी कविताएं !
devatleji ki kavitayen adbhut hai.
मैं खुद इन कविताअों को अपने ब्लॉग पर लगाना चाहता था। लेकिन ये यहां हैं। और कितनी अद्भुत हैं। इन कविताअों पर कभी चित्र बनाऊंगा। आप जल्द ही ये ब्लॉग पर देखेंगे।