अनुनाद

अनुनाद

कू सेंग की कविताएँ

अनुवादक की बात
कोरियाई कवि कू-संग की कविताएँ पहली बार मेरे दोस्त अशोक पांडे को इंटरनेट पर उसकी लगातार यात्राओं के दौरान मिलीं। उसे वो पसन्द आयीं। उसने इनफैंट स्प्लेंडर नाम का एक संकलन डाउनलोड किया लेकिन फिर उसका मन फर्नान्दो पेसोआ, चेस्वावा मीवोष, शिम्बोर्स्का , साइफर्त, नेरूदा, अख़्मातोवा जैसे अधिक चमत्कारी और प्रतिष्ठित नामों में रम गया। मैं खुद उन दिनों हिब्रू कवि येहूदा आमीखाई की कविताओं की ऊबड़खाबड़ धरती पर भटक रहा था और उस बेहद अर्थपूर्ण भटकाव के जादू में लगभग डूबा हुआ था। अशोक ने और मैंने आमीखाई की कविताओं के अनुवाद किए, जिनका संयुक्त रूप से प्रकाशन `संवाद´ ने किया। इस दौरान कू-सेंग कहीं काग़ज़ों के ढेर में गुमनाम रहा। बीच में एक बार मेरा ध्यान उस ओर गया तो चार कविताओं के अनुवाद एक संक्षिप्त टिप्पणी के साथ वरिष्ठ कवि विजेन्द्र की पत्रिका `कृतिओर´ में छपे भी, लेकिन एक निरन्तर काम नहीं हो पाया। अब किसी हद तक यह हुआ है।
2004 में 85 से अधिक के अत्यन्त सर्जनात्मक जीवन के बाद स्वाभाविक मुत्यु प्राप्त करने वाला यह कवि एक ही साथ काफी सहज और काफी विचित्र भी है। उलटबांसी की शैली में कहें तो इसकी विचित्रता ही इसकी सहजता है और यही सहजता ही मानो विचित्रता भी है। अपनी कहन में यह बहुत सपाट और अभिधात्मक है। इस कवि की मूल काव्यभाषा से मेरा कोई परिचय नहीं है और इसका अंग्रेज़ी अनुवाद पूरी तरह गद्यानुवाद ही हैं, लेकिन उसमें भी अपनी ज़मीन, अपने अस्तित्व और अपने समय से जुडे़ सवालों, विपर्ययों और विडम्बनाओं को समर्पित एक खिलन्दड़ी और अद्भुत काव्यात्मा हर कहीं साफ़ झलकती है और कभी-कभी तो बिजली के जैसी कड़कती भी है। मैंने कोशिश की है कि मैं इन कविताओं को समकालीन हिन्दी कविता की भाषा और शिल्प में ढालने की कोशिश करूं, जिससे पाठकों को इन गद्य-कविताओं से अपनापा महसूस करने में कोई कठिनाई न लगे।
मैं रूपान्तरकार या अनुवादक के तौर पर एक और बात साफ़ करना चाहूंगा कि मेरा ख़ुद का वैचारिक धरातल काफी सजग रूप से जीवन के सभी भीड़ और भटकाव भरे रास्तों पर से हमेशा ही बांएं चलने का रहा है और रहेगा। इस बात का उल्लेख इसलिए ज़रूरी लगा क्योंकि यह कवि अपनी मूल संवेदना में काफी धार्मिक और आध्याित्मक भी है, जिसका एक सतही सबूत इस बात से भी मिलता है कि उसकी कविताओं का अंग्रेज़ी अनुवादक ब्रदर एंटोनी नाम का एक फ्रा¡सीसी पादरी है। मुझे इन कविताओं से गुज़रते हुए ऐसा लगा कि धार्मिक और आध्याित्मक होते हुए भी कू-सेंग अपने इन्हीं जीवन-मूल्यों के पार भी जाता है। वह इनसे जुड़े कई विद्रूप उजागर करता है। वह `अपने ही साथ खेलता´ है और `गीले सपने´ भी देखता है। इस तरह के काव्यप्रसंगों में नैतिकता के धरातल पर खुद के साथ इतनी क्रूरता से पेश आने वाला यह कवि इस रूप में हमारे समक्ष खुद को ठीक से जानने-पहचानने की एक अजीब-सी चुनौती भी रखता है। यह जानना भी रोचक होगा कि वह अपने देश में नर्सरी कक्षाओं से लेकर परास्नातक उपाधियों तक पढ़ाया जाता है। कई शोधार्थी उस पर शोध भी करते हैं। यह उसकी कविता की रेंज है। अपने देश और भाषा में कू-सेंग की लोकप्रियता कल्पना से परे है। भारतीय सन्दर्भ में कहूँ तो बिना हिचक कह सकता हूँ कि एक विशिष्ट सामाजिक अर्थ में उसकी कविताएँ कहीं-कहीं निराला और नागार्जुन जैसा बोध भी कराती हैं। मेरा काम फिलहाल इन कविताओं की समीक्षा करना नहीं है। मैं सिर्फ एक पर्दा उठा रहा हूँ और फिर देखते हैं कि समकालीन हिन्दी कविता के पाठकों को इस अटपटे विदेशी कवि में क्या कुछ नज़र आता है?
हिन्दी में कू-सेंग की कविताओं के अनुवाद का ये निश्चित रूप से पहला प्रयास है। इसे अधूरा ही समझा जाए। अंग्रेज़ी में इंटरनेट पर उपलब्ध उनकी तीन पुस्तकों से चुनकर एक बड़ा कविता-संग्रह बनाने का प्रयास मैं ज़रूर करूंगा लेकिन उससे पहले इन कुछ कविताओं पर पाठकीय प्रतिक्रियाओं की मुझे ज़रूरत होगी।
– शिरीष कुमार मौर्य

नहाना

मेरी एक ही बिटिया है
लगभग तीस साल की – मेरी सबसे छोटी संतान
उसकी भी एक बिटिया है – नवजात
और ये दोनों फि़लहाल हमारे साथ रहती हैं
गो मेरी बिटिया को आराम की ज़रूरत है
प्रसूति के बाद

मेरे बेटों की कोई संतान नहीं!

इस छोटी गुड़िया की
आँखें हैं अपनी दादी की तरह
नाक है अपनी नानी की तरह
कान पिता के जैसे
और हाथ-पांव मां की तरह
और जब नहलाना शुरू करते ही यक-ब-यक
बंद हो जाता है उसका रोना
तब वह बिल्कुल मेरी तरह है!

मेरे परिवार का दावा है – मैं नहाने का इतना शौकीन रहा
कि इसमें कभी एक दिन का भी नागा नहीं किया
बचपन से ही जब कोई अलग बाथरूम नहीं था
हमारे घर में
मुझे हर रात अपने हाथ-पांव धोकर ही बिस्तर में जाने की आदत थी

लेकिन
इन दिनों जब यह बूढ़ा नाना
पीछे मुड़कर देखता है – अपनी पूरी ज़िंदग़ी के पार
तो पाता है कि उसे एक पछतावा है
तमाम साफ़-सुथरी आदतों के बावज़ूद
उसने अपने दिल को साफ़-सुथरा रखने में कोताही की

हालांकि
पछताने से भी साफ हो जाते हैं दिल
लेकिन अब तक
इस कोताही के कारण
बहुत अंदर तक पैठ चुकी है
धूल
चमड़ी फट चुकी है
और एक खुजलीदार चकत्ता बन चुका है
उसके ऊपर
अब कोई फ़र्क नहीं पड़ता
कि आप इसे कितना रगड़ते-धोते हैं
यह साफ होने से
इनकार कर देता है

इसीलिए
अब इस नाना की यही दिली ख़्वाहिश और उम्मीद है
कि उसकी यह नन्हीं नातिन खूब मज़ा ले नहाने का
लेकिन सीखती जाए
शरीर के साथ-साथ अपने दिल को भी साफ रखना!


अपने ही साथ खेलना

प्राइमरी स्कूल में कदम रखने से थोड़ा पहले
एक दिन
मेरी नातिन ने पूछा मुझसे -“ नाना लोग कहते हैं आप बहुत मशहूर हैं ! ´´
तो फौरन ही पलटकर मैंने पूछा उससे -“ मशहूर होना क्या होता है
तुम जानती हो? ´´
उसने कहा – ” नहीं “
मैंने उसे बताया – “यह कोई अच्छी चीज़ नहीं है बेटी ! “

इस साल
वह मिडिल स्कूल की दूसरी कक्षा में है
और मेरी एक कविता भी है उसकी किताब में
मुझे पता लगा
वह सबसे मुझे जानने का दावा करती है
” तो तुमने अब क्या बताया लोगों को
मेरे बारे में? ´´ – इस बाबत मैंने पूछा उससे
” यही कि आप एक साधारण बूढ़े आदमी हैं
लेकिन उस लड़के की तरह
जो अकेले
बस अपने ही साथ खेलता रहता है ! ´´ — उसने जवाब दिया
मैं बहुत खुश हुआ उसके जवाब से
” बहुत अच्छे बेटी धन्यवाद ! ´´ – मैंने उससे कहा
और फिर मेरा बाक़ी का दिन
काफ़ी मौज से कटा!


पंख

जीवन में पहली बार
जब मैंने लड़खड़ाते हुए चलना शुरू किया
तो पाया
कि मेरे हाथ-पैर मेरे क़ाबू में नहीं हैं
वे ऐसा कुछ नहीं कर पा रहे हैं
जैसा मैं
उनसे करवाना चाहता हूं

और अब मैं
सत्तर के आसपास हूं
और एक बार फिर
मेरे हाथ-पैर मेरे काबू में नहीं हैं
वे ऐसा कुछ नहीं कर पाएंगे
जैसा मैं
उनसे करवाना चाहता हूं

कभी मैं लपकता था
लड़खड़ाता हुए भी
अपनी मां के बढ़े हुए हाथों की तरफ़
और अब मैं जीता हूं
सांस-दर-सांस
झुका हुआ सहारे के लिए
किन्हीं
अदृश्य हाथों की तरफ़

अब मुझे जो चीज़ चाहिए
वह कोई जेट हवाई जहाज या अंतरिक्ष यान नहीं
बस पंख उगा सकने के सुख की इच्छा है छोटी-सी
उस इल्ली की तरह
जो आखिरकार बदल जाती है एक तितली में
और चल देती है फरिश्तों के साथ
उड़ने और उड़ने और बस उड़ते ही रहने को
मेरे इस बगीचे की-सी पूरी आकाशगंगा में!


सपने

पिछली रात
मुझे एक गीला सपना आया –
मेरी हमबिस्तर थी एक फूल-सी नाजुक नौजवान औरत
जो मेरी पत्नी हरगिज़ नहीं थी
तो इस तरह यह सब बेवफ़ाई जैसा कुछ था
और जागने पर
मुझे अपराध-बोध हुआ

कुछ ही दिन पहले ही
मैंने सपने में देखा कि मैं कोरिया का सी0आई0ए0 प्रमुख़ बन गया हूं!
रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में
यों भी मुझसे अकसर कहते ही रहते हैं मेरे मिलने वाले –
” तुम्हें समाज में एक ऊंची हैसियत पाने की कोिशश करनी चाहिए “
और कभी-कभी
मज़ाक में
मैं भी जवाब दे देता उन्हें-
“हो सकता है कि मैं सी0आई0ए0 प्रमुख बन जाऊं”
लेकिन
यह एक बेहूदी बात है

अब मैं सत्तर का होने को हूं
और इस बात पर यक़ीन करता हूं कि हमारी इन मछली-सी गंधाती
देहों से अलग होने के बाद भी
(जैसे समुद्र तटों पर मिलते हैं सीपियां और शंख)
लहरों से दूर
जारी रहेगा हमारा जीवन
लेकिन
कुल मिलाकर यह सब सपने जैसा ही है –
निरा बचपना !

या फिर
इस बात का संकेत
कि कितनी गहराई तक जड़ें जमा चुके हैं मेरे गुनाह
मेरे भीतर
मुझे हैरानी होगी अगर मैं कभी मुक्त हो पाया
इन फंतासियों से
जागते या सपना देखते हुए !


बूढ़े बच्चे
(कविता से कुछ हटकर)

अपनी पिछली कविता में
मैंने सपने में कोरिया का सी0आई0ए0 प्रमुख बन बैटने का जो बखान किया था
उसे मेरे एक मित्र ने
बूढ़े बच्चों के हमारे समूह की एक बैठक में
मुद्दा बना दिया

इस बारे में सबके पास कुछ न कुछ था
कहने को

– “क्या तुमने बेकसूर जेल जाने के लिए बिना कुछ सोचे-समझे ही
यह सब लिखा है?´´

– “प्यारे क्या तुम इतना चुक गए हो कि ऐसी बकवास पर उतर आए?´´

– “एक कवि और सी0आई0ए0 प्रमुख?
अच्छा विचार है !´´

– “अगर यह सिर्फ सपना है तब भी निहायत ही बेहूदा है!´´

– “इसे इस तरह कविता में लिखना – शर्म आनी चाहिए तुम्हें!´´

– “ तथाकथित कवि !
दरअसल यही अंत है तुम्हारा !
तुम भी अब इतना उलझ गए हो?´´

– “इसका यह मतलब तो नहीं
कि ऐसा संसार असंतोषजनक है?´´

इतनी अलग-अलग प्रतिक्रियाओं से गुज़रते हुए भी
मैं सिर्फ हंस ही सकता था
उस बच्चे की तरह
जिसे बहुत मज़ा आ रहा है
क्योंकि
एक तरकीब थी जो काम कर गयी
और लोग फंस गए थे उसमें!


0 thoughts on “कू सेंग की कविताएँ”

  1. वाह भाई साहब आपने बेहतर कविताओं से परिचय करवाया है। इस पर विस्तृत टिप्पणी करने का मन है लेकिन अग्रिम बधाई देते हुए मुझ से रुका नहीं गया। अच्छी कविताएं पढ़वाने के लिए आपका आभार

  2. बहुत अच्छा चयन है और उतना ही अच्छा अनुवाद भी। नहाना कविता तो दिल को गहरे तक छू गई। आशा है, जल्द ही इस कड़ी और कविताएं पढ़ने को मिलेंगी। आपको बधाई।

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