अनुनाद

लाल्टू की कविताएँ

लाल्टू को मैं उनके पहले संग्रह `एक झील थी बर्फ़ की´ से जानता हूं। मुझे वे कविताएं अच्छी लगीं और इधर नेट पर उनका दूसरा संकलन `डायरी में तेईस अक्टूबर ´ नाम से मिला।

लाल्टू हमारे विराट संसार में घट रही तरह-तरह की घटनाओं और लगातार मर और पैदा हो रही कुछ छोटी लेकिन महत्वपूर्ण मानवीय इच्छाओं के कवि हैं। सबसे बड़ी बात यह कि इन घटनाओं और इच्छाओं में एक स्पष्ट राजनीति भी है, जो हिंदी कविता के निरन्तर राजनीतिविहीन और ख़ाली होते ह्रदय में मुझे कहीं बहुत गहरे तक आश्वस्त करती है।

इस बड़े भाई के काव्य सामर्थ्य को मेरा सलाम।

डायरी में तेईस अक्टूबर

उस दिन जन्म हुआ औरंगज़ेब का
लेनिन ने सशस्त्र संघर्ष का प्रस्ताव रखा उस दिन
उस दिन किया जंग का एलान बर्तानिया के खिलाफ़ आज़ाद हिंद सरकार ने

उस दिन हम लोग सोच रहे थे अपने विभाजित व्यक्तित्वों के बारे में
रोटी और सपनों की गड़बड़ के बारे में
बहस छिड़ी थी विकास पर
भविष्य की आस पर

सूरज डूबने पर गाए गीत हमने हाथों में हाथ रख
बात चली उस दिन देर रात तक
जमा हो रहा था धीरे-धीरे बहुत-सा प्यार
पूर्णिमा को बीते हो चुके थे पांच दिन

चांद का मुंह देखते ही हवा बह चली थी अचानक
गहरी उस रात पहली बार स्तब्ध खड़े थे हम

डायरी में तेईस अक्टूबर का अवसान हुआ बस यहीं पर!
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पुनश्च

हां नेपाल में जीते हैं कम्युनिस्ट
जब डिकिंस बना था न्यूयार्क का पहला काला मेयर
हम लोगों ने हरदा में बैठकर गीत गाए थे
आज तुम तक जब यह खत पहुंचेगा काडमांडों में
आसमान लाल होगा
ऐसे झूम रही होगी हवा जैसे अड़सठ में कलकत्ता

(डिकिंस भी गया
अड़सठ की हवा में पुराने तालाब के दलदल-सी कैसी गंध आ गई
हम हो गए दूर
चढ़ गए बसों पर जाने कितने लोग
कहते हैं इतिहास बदल गया
सुखराज जाली पासपोर्ट लेकर आइसक्रीम बेचता है अमरीका में
वहीं-कहीं)

चोली के पीछे है माइकल जैक्सन

बहरहाल, तुम आओगी तो बैठेंगे, हालांकि अब बढ़ चुका है बेसुरापन
बस पर चढ़ने से बची होगी कविता
हो सकता है नेपाल के पहाड़ लाल सूरज जैसे तमतमाते रहें

सच तो यह है अड़सठ ज़ि़ंदा है हमारे बेसुरे गीतों में!
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