अनुनाद

इन्दौर वाया भोपाल – एक निजी यात्रा-वृत्तान्त

नीचे तस्वीर में है भोपाल की विख्यात ताजुल मस्जिद

यह एक पुरानी स्मृति है। इसे 2005 के शुरू में रायपुर से निकलने वाली देशबंधु समूह की पत्रिका “अक्षर पर्व ने छापा था । पत्रिका के सम्पादक श्री ललित सुरजन है।

भोपाल से गुज़रा तो शानी याद आए
गो वे नहीं हैं
और उनकी यादों का भोपाल भी अब नहीं है
मस्जिदें तो बरक़रार हैं
लेकिन उनके होने या न होने का
अर्थ बदल रहा है
इस शहर का पानी
किसी बड़े चोर दरवाजे़ से
बाहर निकल रहा है
ऊंची-नीची ज़मीन पर
बदस्तूर उतरती-चढ़ती दीखती हैं सड़कें
पर पुराना अब पीछे छूट गया है
खुल रहे हैं नए-नए शापिंग काम्प्लेक्स
टंग रही हैं जगह-जगह
`यहाँ क्रेडिट कार्ड लिए जाते हैं´ की शुभ सूचनाएं
बैंकों के ए0टी0एम0
मोबाइल की पॉलिफोनिक घंटियां
पहले से ज़्यादा सुन्दर चित्ताकर्षक स्त्रियां
उदार पोशाकें
पुरुष भी ज़्यादा सजे-संवरे
ज़्यादा लालची
बच्चे कम
होगे तो कहीं स्कूलों या घरों में
अपनी कम्प्यूटर करामातों में व्यस्त
ज़ुबान बदली हुई
भोपाल अब नहीं रहा भोपाल
मेट्रो हो चला है
और अचानक ही दीख पड़ा `भारत-भवन´ भी
भव्य-विशाल
साहित्य और संस्कृति का मुर्दाघर

फिलहाल किसी आई0पी0एस0 के अधीन है
याद आए
वाजपेयी जी चतुर-सुजान
—˜˜˜
इन्दौर जाने को मिली
एक सजीली इंडिका-`टैक्सी रूपेण संस्थिता´
सहयात्री भी तीन

एक व्यापारी बात करता निरन्तर
झलमलाते मोबाइल फोन पर
हीरक-अंगूठी धारे

किसी दवा-कम्पनी का स्वयंसिद्ध प्रतिनिधि एक
और बिना बात ताव खाता एक छात्र
शायद बिजनेस मैनेजमेंट जैसे किसी भविष्यदृष्टा कोर्स का

हम एक दूसरे को देखते थे रह-रहकर
पर बोलते नहीं थे
ऐसे ही बिताए हमने साढ़े तीन घंटे सफ़र के

रास्ते में रुके भी एक बार कुछ जलपान करने को
सोन कच्छ में एक ढाबा शायद किन्हीं चड्ढा जी का
और ढाबा भी कैसा चमचमाता
पोहे-समोसे से लेकर केक-पेस्ट्री औेर आइसक्रीम तक
सब कुछ उपलब्ध कराता

बस आपको मांगना होता प्लास्टिक का एक मूल्यांकित टोकन
कांच के काउण्टर के पीछे खड़ी
उस खुशमिजाज़ युवती से
जो इस ढाबे को आप ही का बताती थी
फिर कोशिश भर लजाती थी
˜˜˜
इन्दौर से थोड़ा पहले था देवास
मराठा अवशेषों का शहर इन्दौर की तरह
गुज़रता कपड़ा-उद्योग के वैभव से
तथाकथित आधुनिकता की ओर
बहुत तेज़ी से बढ़ता किसी सजीले वृद्ध सरीखा
लगता था

यहीं कहीं रहते थे कुमार गंधर्व
मालवा की मिट्टी और अपनी व्यक्तित्व के खरेपन से
रचते हुए अपने प्रश्नाकुल राग

और अब तो यह भी गत-विगत की बात हुई
˜˜˜
देवास से निकलते ही एक बार फिर सड़क थी एकदम काली चमकीली और शानदार
जाने की अलग आने की अलग
और उनमें भी तीन-तीन लेन रफ़्तार के मुताबिक

ये इन्दौर का रास्ता था
और बीच में जुड़ती थी `ए.0बी0´
`आगरा-बॉम्बे रोड´
जिसे वक़्त के हिसाब से अब `ए0एम0´ हो जाना था
इस पर दौड़ते थे विशाल कंटेनर ट्रक
डरावनी आवाज़ वाली वातानुकूलित बसें और छोटी गाड़ियाँ तो
एक से बढ़कर एक
बेशुमार
—˜˜˜
धूल और धुंए से भरा था इन्दौर का आसमान
यों रवायतन उसमें थोड़ी धूप भी थी
जो नवम्बर की आती शाम में
बुरी नहीं लगती थी
पलासिया
जी0पी0ओ0 नौलखा
रेजीडेंसी
और मेरा गंतव्य आज़ाद नगर पूर्व
रमज़ान के इस मुक़द्दस महीने में
रोजे़दारों की
सरगर्मियों से भरा

अध्यापक होने के नाते
मैं देखने गया देवी अहिल्या बाई होलकर विश्वविद्यालय
कला विज्ञान वाणिज्य और प्रबन्धन संस्थान
बक़ौल एक छात्र
विश्वविद्यालय के भीतर ही क्रमश: इन्दौर दिल्ली बम्बई और
पेरिस थे
—˜˜˜
मेरे दिमाग़ में एक पुराना पता था संवादनगर मुहल्ले का
स्मृतियों को टटोलते मैं जा सकता था वहां
हम सबके गुरू जी विष्णु चिंचालकर
जो अब दुनिया में नहीं हैं

पर उनके बारे में मेरे भीतर कितनी ही यादें हैं
90-91 की
उनका सिखाया समझाया हुआ थोड़ा कुछ मेरे साथ है
अभी बिल्कुल नज़दीक में
वहीं
चन्द्रकान्त देवताले रहते हैं
बहुत बड़े कवि और मनुष्य भरपूर
बडे मशहूर
कुछ महीने पहले ही दिल्ली में मिले थे पहली बार
एक मंच से मेरे बारे में दो शब्द भी बोले थे

राह में मिली एक स्त्री ने बताया
वहां कोने पर आगे उन्नीस नम्बर में रहते हैं
दोपहर में लौटे हैं उज्जैन से
और अभी हाल जूनी कसेरा बाखल से

घर में घुसा तो मोबाइल पर गपियाते मिले
दिन के सबसे बड़े आश्चर्य की तरह
फोन रक्खा तो मुझे गले लगाया
बोले – तुम बैठो आराम से मैं एक गिलास पानी लाता हूं
मना मत करना
तुम्हारे लिए पानी लाना मुझे अच्छा लगेगा

फिर अपना मोबाइल थमाया
पूछा इसे बन्द कहां से करते हैं
कनु ने खरीदवा दिया था
इसी साल मई में
पर इसकी गति मैं अब तक पकड़ नहीं पाया
पिछली बार तो
सारे पैसे चुक गए थे एक ही कॉल में

मैं उन्हें कहना चाहता था कि आप जितना दिखते हैं
उससे कहीं ज़्यादा प्यारे हैं देवताले जी
लेकिन मैं बस दूसरी बार ही
उनसे मिला था
कुछ कह नहीं पाया
अपनी फ़ोन-बुक से एक नम्बर दिया मैंने उन्हें
जिस पर फोन कर उन्होंने कहा-
`मैं चन्दकान बातमारे बोलतऊं वीरेन!
सलाम पेश करतऊं !!´

यह एक ऐसी दुनिया थी
जिसका
इतना सरल होना लगभग अविश्वसनीय था
मेरे लिए
—˜˜˜
अगले रोज़ सुबह एक दोस्त मिली पुरानी
सत्रह-अठारह की उमर के
ज़माने की
उसने कुछ ताने दिए
हैरत जतायी कि हज़ारहा इनकार के बाद भी
मैंने प्रेम किया
बसाया अपना घर-बार
और मुड़कर तक नहीं देखा दुबारा पुराने दोस्तों को
—˜˜˜
दोपहर मैं फिर देवताले जी के पास था
वे मध्य प्रदेश दुग्ध संघ `सांची´ का
बढ़िया छांछ लाए थे मेरे लिए
और कवि राजेश जोशी को भी बुलाया था अपने घर
यों मुझे उनसे मिलना भी नसीब हुआ

हम मिले
हमने आमीखाई मीवोश पॉज़ अख़्मातोवा
वगैरह की बातें की

और देवताले जी दरअसल
इस बीच
बना लाए थे एक कप बढ़िया-सी चाय जोशी जी के लिए

जूठे बरतन रसोई तक वापस ले जाने में भी वे तत्पर दिखे
मुझे शर्मिन्दा करते हुए

जोशी जी ने मुझे नहीं मिले एक पुरस्कार
के बारे में पूछा
उन्हें इसके और मेरे सम्बन्धों को लेकर कुछ भ्रम था

देवताले जी ने पूछा दुर्दान्त अशोक पाण्डे के बारे में
जो इन दिनों अपनी पत्नी के मुलुक आस्ट्रिया विराजता है

मेरे मोबाइल की `बेडू पाको बारामासा´ की टोन भी
उन्हें बहुत भायी थी
उन्हें इससे मोहन उप्रेती की याद आती थी
और वे खुशी से लगभग चिल्ला ही पड़े
जब मैंने यही टोन उनके फोन में भी डालकर बजा दी

बात अभी चुकी नहीं थी
`आग हर चीज़ में बतायी गयी थी´ की एक प्रति
देवताले जी ने मुझे दी
दरअसल वे इस पर पहले किसी और का नाम लिख चुके थे
लेकिन `हाज़िर को हुज्जत´ नहीं के सिद्धान्त पर
अमल करते थे
सो ब्लेड का सहारा लिया और वह नाम काट दिया
मुझसे पूछा
तुम्हें `मित्र´ लिख सकता हूं क्या
और मेरा नाम आंक दिया

सचमुच ऐसी चीज़ होती है
कविता भी
जिसे किसी भी समय आप कर सकते हैं
किसी के भी नाम
—˜˜˜
रात मुझे जाना था वैष्णव विद्यालय के अहाते में
जहां पण्डित भीमसेन जोशी का
गाना था

अपनी किशोरावस्था के प्रिय कवि केदार की भाषा में सोचा मैंने
हे ईश्वर यह कितना अद्भुत है,
कि मैं भी ठीक आज की रात इंदौर में उपस्थित हूं !

हज़ारों लोगों के सामने एक खुले मंच पर
सबके हृदय की धुकधुकियों को भांपते बादलों जैसे स्वर में
गाया उन्होंने `यमन-कल्याण´

`ईश्वर शायद ऐसे ही कंठ से बोलता है´ –
बाजू में बैठे एक मराठी बुजुर्ग ने
कहा मुझसे

खूब तारों भरी रात
नवम्बर के खूब खुले आकाश में दूसरी सभी आवाज़ों को
पीछे छोड़ जाती थी
हर जगह मंडराती थी वही एक आवाज़
—˜˜˜
और अब मैं वापस लौटता हूं
समेटता हुआ हर कहीं से खुद को
बांधता हुआ
जगह-जगह बिखरा अपना सामान

अब ये आखिरी फेरा है मेरा
बाज़ार का
और देश की बहुत सारी चीज़ों की तरह
दंगों में उजड़ चुका राजबाड़ा देखता है मुझे
मानो कहता हुआ
कि जो कुछ उजड़ जाता है वह भी साथ आता है
भले ही संग्रहालय बनकर

अब वापस लौटता हूं
और देखता हूं कि मैं कुछ भी छोड़ जाने के लिए
तैयार नहीं हूं
और सब कुछ ले जा पाने में असमर्थ

मैं चन्द्रकान्त देवताले को छोड़ आया हूं
लेकिन उनकी कविता ले आया हूं

मैं भीमसेन जोशी को छोड़ आया हूँ
लेकिन उनका राग ले आया हूँ

मैं खुद को भी छोड़ आया हूँ वहीँ
संवाद नगर आज़ादनगर पलासिया जूनी कसेरा बाखल
और वैष्णव विद्यालय प्रांगण में कहीं

लेकिन थोड़ा-सा इन्दौर ले आया हूं।

5 से 7 नवम्बर, 2004

0 thoughts on “इन्दौर वाया भोपाल – एक निजी यात्रा-वृत्तान्त”

  1. तो ये कविता आपकी है….पहले पढ़ी थी…आपके नाम से दिमाग़ में दर्ज नहीं हो पाई थी…
    भई वाह, सचमुच ब्लाग बड़ी अनोखी जगह है। फिर से पढ़वाने का शुक्रिया ….
    न जाने कब फिर पढ़ने को मिलती….

  2. आपके पास कितनी लम्बी कविताएं हैं? क्या आप इतनी लम्बी कविता लिखते हुए वाकई इतने सहज बने रहते हैं जितना कविता में दिखते हैं? मैंने बनारस से निकला हुआ आदमी पहल में पढ़ी है। अंग्रेज औरतों वाले जिक्र पर मैं हैरान थी कि लेखक इतनी सहजता से इसे कैसे लिख गया। हो सके तो उस कविता को भी अपने ब्लाग पर लगाएं।

  3. दस साल पहले जिस इंदौर को छोड़ आया था, आपने उसकी फिर से याद दिला दी। और चंद्रकांत देवताले जी… उन्हीं के नेतृत्व में लेखकों संस्कृतिकर्मियों का एक बड़ा हुजूम मुझे विदा करने के लिए रेलवे स्टेशन पर मौजूद था। वे दिन भी याद आ गए जब ए बी रोड पर प्रेस कांप्लेक्स के पास चाय की गुमटी पर रवींद्र व्यास, मैं और देवताले जी घंटों बातें करते। इंदौर से चंडीगढ़ पहुंचने पर मुझे पहला पत्र भी देवताले जी का ही मिला था और उसमें उन्होंने बाकायदा दावा भी किया था कि नए पते पर यह पहली चिट्ठी होगी। पत्र में लिखी एक लाइन अब भी मेरी स्मृति में टंकी है- हवा में हिलते हुए हाथ सिर्फ हवा में ही नहीं हिलते। धन्यवाद शिरीष जी, उन दिनों की याद दिलाने के लिए।

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