अनुनाद

ये जो नई फसल है..! – युवा कविता पर अरुण आदित्य की टिप्पणी और तीन कविताएं

अरुण आदित्य

1965 में प्रतापगढ़ में जन्म हुआ़। कविता-संग्रह ‘रोज ही होता था यह सब’ 1995 में प्रकाशित। इसी संग्रह के लिए मध्यप्रदेश साहित्य परिषद द्वारा दुष्यंत पुरस्कार से सम्मानित। पहल, हंस, वसुधा, पल-प्रतिपल, वागर्थ, साक्षात्कार, कथादेश, बया आदि पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित। असद जैदी द्वारा संपादित ‘दस बरस’ और कर्मेंदु शिशिर द्वारा संपादित ‘समय की आवाज’ में कविताएं संकलित। कुछ कविताएं पंजाबी, मराठी और अंग्रेजी में अनूदित। उपन्यास ‘उत्तर वनवास’ आधार प्रकाशन से शीघ्र प्रकाश्य। सांस्कृतिक आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी।
संप्रति: अमर उजाला, नोएडा में एसोसिएट एडिटर।

(अरुण जी ने यह टिप्पणी मेरे अनुरोध पर लिखी है और इसे यहाँ ससम्मान और साभार प्रकाशित किया जा रहा है। मेरे लिए यह युवा कविता पर एक स्वस्थ बहस की शुरुआत है। अनिल त्रिपाठी और व्योमेश शुक्ल से भी ऐसी टिप्पणियां मांगीं गई हैं – अब वक्त आ गया है कि वे भी पहल करें ! )

समकालीन युवा कविता पूर्ववर्ती पीढियों की कविता से कितनी अलग है। यह सवाल क्या कुछ ऐसा नहीं लगता है कि इस बार आम की जो फसल आई है, वह पिछले वर्षों में आई फसलों से किस तरह अलग है। आम का स्वाद क्या बदल गया है? क्या उसका रंग बदल गया है? क्या उसकी गंध कुछ नई हो गई है? फिर इसे एक नई फसल क्यों माना जाए? तर्कों की अपनी सत्ता है, मगर इन तमाम तर्कों के बावजूद हकीकत यह है कि वह नई फसल है। कि वैसा ही रूप-रंग-गंध होने के बावजूद वह पिछली फसल से अलग भी है। अलग इसलिए कि उसका समय अलग है। कि उसके बाजार का मिजाज अलग है। कि अपने समय और बाजार और मौसम के साथ उसका रिश्ता वही नहीं है, जो पिछली फसल का था। उसका मूल्यांकन पिछली फसल के मूल्य के आधार पर नहीं किया जा सकता। समय और परिवेश के साथ मिलकर उसका जो संदर्भ बनता है, वही उसे अलग करता है। कविता, जिसके बारे में कहा जाता है कि वह काल से होड़ करती है, उतनी ही सुंदर और सशक्त होती है, जितनी बड़ी चुनौती समय उसके समक्ष पेश करता है। लेकिन इस चुनौती को हमारी आलोचना में बहुप्रयुक्त कठिन समय जैसे रूढ़ हो चुके पद से नहीं समझा जा सकता है।

वास्तव में तो हर दौर के रचनाकार के लिए अपना समय कठिन ही होता है, लेकिन हर नए समय में कुछ नई चुनौतियां, नए अनुभव, नए स्वप्न और नए मोहभंग मिलकर रचना के लिए एक नई स्थिति रच देते हैं। नई स्थिति में पुराने स्वप्न तक से हमारा संबंध बदल जाता है। तीस-चालीस के दशक में आजादी सबसे बड़ा स्वप्न था, पचास-साठ के दशक में आवाज आने लगी कि देश की जनता भूखी है, यह आजादी झूठी है। समाजवाद साहित्य का एक बड़ा सपना तब भी था और आज भी है, लेकिन सोवियत संघ के विघटन के बाद सक्रिय हुई पीढ़ी का इस सपने से संबंध क्या वैसा ही है, जैसा पूर्ववर्तियों का था? बीती सदी के अंतिम दशकों में उदारवाद के मुखौटे में बाजारवाद ने भी युवाओं को खूब सब्जबाग दिखाया। पर आज मंदी की मार ने जरा सा लबादा खींचा तो उदारवाद के क्रूर पंजे पूरी बेशर्मी से बाहर आ गए। सत्यम कंप्यूटर्स में नौकरी पाना कुछ समय पहले तक एक स्वप्न था, आज दुस्वप्न है। आज के युवा-मन और बाजार के रिश्तों में एक नए तरह का जो तनाव पैदा हो रहा है, उसका असर इस दौर की कविता पर भी दिखता है। यह अलग बात है कि उसकी शैली बाजार मुर्दाबाद जैसी मुखर न हो। और जरूरी भी नहीं कि एक राजनीतिक शैली में ही इस तनाव को दर्ज किया जा सकता है। एक प्रेम कविता में शायद ज्यादा प्रभावी तरीके से इस तनाव को अभिव्यक्त किया जा सकता है-

कोई चांदी बचाएगा, कोई सोना
मैं निपट अकेला कैसे बचाऊंगा तुम्हारा प्रेम पत्र।
(प्रेमपत्र, बद्रीनारायण)

भारत भूषण पुरस्कार से सम्मानित बद्री की यह कविता अपने समय के साथ समाज, बाजार और मानवीय संवेदना के अंतर्संबंधों को एक सधे हुए शिल्प में प्रस्तुत करती है। लेकिन इसी कविता को आज कोई युवतर कवि लिखेगा तो उसके प्रतीक नए भी हो सकते हैं, क्योंकि उसके पास बाजार के लिए पहले से उपलब्ध सोना-चांदी जैसे प्रतीकों के अलावा शेयर-डिबेंचर जैसे अपेक्षाकृत नए प्रतीक भी हैं, जो वाकई आज के बाजार को डुबोने या उबारने का काम करते हैं। आदि कवि के निषाद से लेकर बद्री के प्रेमपत्र तक प्रेम को बचाने की मूल चिंता समान होते हुए भी कविता का रूप बदलता रहता है। नए समय, नई तकनीक और नए बाजार का प्रभाव हमारे संबंधों, संवेदनाओं और काव्य-युक्तियों पर भी पड़ता है। इसकी एक झलक नीलेश रघुवंशी की कविता रोमिंग की इन पंक्तियों में भी देखी जा सकती है-

मोबाइल पर कहना चाहती हूं बातें अपने सपनों की
करते हैं हम बातें जरूरी काम की
रोमिंग पर हूं कह काटते हो तुम फोन
एक अजीब सा सन्नाटा पसरता है हमारे बीच
जिसे तोडने को होती हूं कि आ जाता है मोबाइल पर मैसेज
अब कुछ दिन ही बाकी हैं दस लाख का सोना जीतने के लिए
एप्लाई करें 1388 पर क‚ल चार्जेज ओनली 15 रुपए
और आप के एकाउंट में मात्र तेरह रुपए
अपने मोबाइल को शीघ्र रिचार्ज कराएं और घर बैठे पाएं
दस लाख का सोना… मैं तुम्हारी याद में बैठी हूं और …

सूचना-क्रांति से आक्रांत इस नए समय में आम आदमी की चिंता में प्रेम के साथ-साथ और भी बहुत कुछ बचाना शामिल होता जा रहा है। प्रेम तो दांव पर था ही, आज तो उसके बच्चे भी दांव पर हैं। निठारी कांड जैसे दुस्वप्न पर युवा कवि कल्लोल चक्रवर्ती ने अपनी कविता दु समय में एक आम आदमी की बेबसी को जिस मार्मिक तरीके से अभिव्यक्त किया है,

उससे लगता है कि समाज की हर टीस और कराह पर युवा कवियों की निगाह है-
मेरे घर के बाहर एन सड़क पर बिना ढक्कन का मेनहोल है
और घर में है मेरी पांच साल की बेटी
मैं निठारी से बहुत दूर नहीं रहता

तो यह समय, जो हर पीढ़ी के लिए नई तरह से कठिन होता है, हर दौर की कविता को पुरानी कविता से अलग करता है। आज के युवा कवि भी इस नई तरह से कठिन हुए समय को बूझ रहे हैं और उससे जूझ भी रहे हैं। इस समय को दर्ज करने के लिए वे अलग-अलग बिम्बों-युक्तियों का सहारा ले रहे हैं। गीत चतुर्वेदी इसे उखड़ते लोगों और उखड़ती सांसों के रूपक में बांधने की कोशिश करते हैं-

जाने कौन सदी से बह रही है ये हवा
जिसमें ऐसे उखड़ते हैं लोग
जैसे सांस उखड़ती है

एक अन्य युवा कवि तुषार धवल इस कारपोरेट-समय को लिखने के लिए शेयर बाजार की शब्दावली का प्रयोग करते हैं-

फायदे का गणित सीखता
सेंसेक्स की सीढियों पर ही सोता हूं
……
नींद में चलता, सपने में बड़बड़ाता
मैं आदमी हूं नई सदी का

नए समय में मनुष्य की अवस्थिति को समझने की इन काव्य-युक्तियों के बरक्स एक और युवा कवि जितेंद्र श्रीवास्तव इस समय को बूझने के लिए प्रकृति का सहारा लेते हैं-

कांप रहा है दिन
और धूप भी पियराई है
न जाने कौन ऋतु आई है।

ये चंद उदाहरण हैं, इनके अलावा पवन करण, सुंदर चंद ठाकुर, प्रेमरंजन अनिमेष, आशुतोष दुबे, हरिओम राजोरिया, शिरीष मौर्य, हरे प्रकाश उपाध्याय, प्रदीप मिश्र, विशाल श्रीवास्तव, हरि मृदुल, निर्मला पुतुल, रवींद्र स्वप्निल प्रजापति, व्योमेश शुक्ल, प्रमोद रंजन, अजेय से लेकर निशांत तक कविता की युवा पीढ़ी के पास इतने विविध रंग हैं कि इस पीढ़ी का बहुरंगी कैनवास अलग से नजर आता है। फिर भी यह सवाल पूछा जाता है कि आज की युवा कविता पहले से अलग कहां है? इसके जवाब में संजय कुंदन की इन पंक्तियों के अलावा और क्या कहा जा सकता है कि-

बार-बार सुनता हूं ताने की तरह
अपना बचपना कब छोड़ोगे
समझ नहीं पाता कि लोग आखिर चाहते क्या हैं?
वे जब जब ऐसा कहते हैं
जी करता है किसी बच्चे की सीटी में
जाकर बैठ जाऊं और बजूं जोर-जोर से
उनके कान के परदे हिलाकर रख दूं।

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अरुण आदित्य की तीन कविताएं

कागज का आत्म-कथ्य

अपने एकांत की छाया में बैठ
जब कोई लजाधुर लड़की
मेरी पीठ पर लिखती है
अपने प्रिय को प्रेमपत्र
तो गुदगुदी से फरफरा उठता हूँ मैं।

परदेश में बैठे बेटे की चिट्ठी बांचते हुए
जब कांपता है किसी जुलजुल मां का हाथ
तो रेशा-रेशा कांप जाता हूं मैं
और उसकी आंख से कोई आंसू टपकने से पहले
अपने ही आंसुओं से भीग जाता हूं मैं

महाजन की बही में गुस्से से सुलग उठता हूं तब
जब कोई बेबस
अपने ही दुर्भाग्य के दस्तावेज पर लगाता है अंगूठा

मुगालते भी पाल लेता हूं कभी-कभी
मसलन जब उत्तर पुस्तिका की भूमिका में होता हूं
तो इस खुशफहमी में डूबता उतराता हूं
कि मेरे ही हाथ में है नई पीढ़ी का भविष्य

रुपए की भूमिका में भी हो जाती है खुशफहमी
कि मेरे ही दम पर चल रहा है बाजार और व्यवहार
जबकि मुझे अच्छी तरह पता होता है
कि कीमत मेरी नहीं उस चिड़िया की है
जिसे रिजर्व बैंक के गवर्नर ने बिठा दिया है मेरी पीठ पर

अपने जन्म को कोसता हूं
जब लिखी जाती है कोई काली इबारत या घटिया किताब
पर सार्थक लगता है अपना होना
जब बनता हूं किसी अच्छी और सच्ची रचना का बिछौना

बोर हो जाता हूं
जब पुस्तकालयों में धूल खाता हूं
पर जैसे ही किसी बच्चे का मिलता है साथ
मैं पतंग हो जाता हूं

मेरे बारे में और भी बहुत सी बातें हैं
पर आप तो जानते हैं
हम जो कुछ कहना चाहते हैं
उसे पूरा-पूरा कहां कह पाते हैं

जो कुछ अनकहा रह जाता है
उसे फिर-फिर कहता हूं
और फिर-फिर कहने के लिए
कोरा बचा रहता हूं।

श्लेष-यमक

बहुत पहुंची हुई कलाकार है वह
बहुत आग है उसके भीतर
इतनी अधिक कि कभी बुझती ही नहीं

जितना पानी डालो उतनी ही भड़कती है
और न डालो तो बुझने का सवाल ही नहीं
कहते हैं और हंस देते हैं बुद्धिजीवी

उनकी बात में श्लेष है
और हंसी में चमक नहीं यमक
उनके हंसते ही प्रकट हो जाता है
श्लेष में छिपा द्वेष
और हंसना का अर्थ डंसना हो जाता है।

डर

किसी उदास दोपहर में बिल्कुल बुझे मन के साथ हम
बोर हो रहे होते हैं थोक में आए ग्रीटिंग कार्ड्स को देखकर
कि अचानक हमारे हाथ में आता है एक ऐसा कार्ड
जिसे देखने के बाद हम ठीक वही नहीं रह पाते
जो इसे देखने से पहले थे।

कितना अद्भुत है यह कार्ड
कि एक अच्छे ब्ल‚टिंग पेपर की तरह
सोख लेता है सारी ऊब और उदासी

इसमें छपे फूलों की खुशबू
कार्ड से बाहर निकल तैरने लगती है हवा में
शिशिर ऋतु में अचानक आ जाता है बसंत
हम भूल जाते हैं सारी चिड़चिड़ाहट
आ जाती है इतनी उदारता
कि अपनी गलती न होने के बावजूद
माफी मांग लेते हैं कुछ देर पहले झगड़ चुके सहकर्मी से

इतना विशाल हो जाता है ह्रदय
कि वाकई क्षुद्र लगने लगती है अपनी क्षुद्रताएं
इतना कुछ बदल जाता है अचानक
कि ग्रीटिंग कार्ड भेजने की औपचारिकता का
मुखर विरोधी मैं, सोचने लगता हूँ
कि दुनिया के हर आदमी को
मिलना ही चाहिए एक ऐसा कार्ड

सोचता हूँ और अपने इस सोच पर डर जाता हूं
कि कार्ड बनाने वाली कोई कंपनी
मेरी कविता की इन पंक्तिओं को
अपने विज्ञापन का स्लोगन न बना ले
और मैं बाद में सफाई देता फिरूं
कि कार्ड बेचने वाले की नहीं
भेजने वाले की खुसूसियत
बयान करना चाहता था मैं।

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  1. आलेख छोटा है लेकिन महत्वपूर्ण है। शिरीष जी यह एक अच्छा काम होगा कि कविताओं पर बात होगी। आगे आलेख पढने का मन रहेगा। अनिल त्रिपाठी और व्योमेश के आलेखों का इंतजार रहेगा।

  2. बोधिसत्व जी, विजय शंकर जी, विजय गौड़ जी, विनय , रागिनी , एस बी सिंह, नवनीत, प्रदीप कान्त, वर्षा और शिरीष जी आप सब के प्रति हार्दिक आभार।

  3. बहुत बढ़िया आलेख। कविता की समकालीनता को सही तरीके से समझाता हुआ। खास कर लेख का अंत संजय कुन्दन की जिन पंक्तियों से हुआ, वो बहुत प्यारी लगीं। हमारे दौर में इतना अच्छा लिखने वाले कवि हैं तो कविता को निराश होने की कोई ज़रूरत नहीं लगती।

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