लोग अपनी हथेलियों का उत्खनन करते है
और निकाल लाते हैं
पुरातात्विक महत्व की कोई वस्तु
वे चकित होते है अतीत के मटमैलेपन पर
और बिना किसी औजार के कर डालते हैं कार्बन – डेटिंग.
साधारण -सी खुरदरी हथेलियों में
कितना कुछ छिपा है इतिहास
वे पहली बार जानते हैं और चमत्कॄत होते हैं.
हथेलियों में कई तरह की नदियाँ होती हैं
कुछ उफनती
कुछ शान्त – मंथर – स्थिर
और कुछ सूखी रेत से भरपूर.
कभी इन्हीं पर चलती होंगीं पालदार नावें
और सतह पर उतराता होगा सिवार.
हथेलियों के किनार नहीं बसते नगर – महानगर
और न ही लगता है कुम्भ – अर्धकुम्भ या सिंहस्थ
बस समय के थपेड़ों से टूटते हैं कगार
और टीलों की तरह उभर आते हैं घठ्ठे.
हथेलियों का इतिहास
हथेलियों की परिधि में है
बस कभी – कभार छिटक आता है वर्तमान
और सिर उठाने लगता है भविष्य.
हथेलियों का उत्खनन करने वाले बहुत चतुर हैं
वे चाहते हैं कि खुली रहें सबकी हथेलियाँ
चाहे अपने सामने या फिर दूसरों के सामने
हथेलियों का बन्द होकर मुठ्ठियों की तरह तनना
उन्हें नागवार लगता है
लेकिन कब तक
खुली – पसरी रहेंगी घठ्ठों वाली हथेलियाँ ?
***
बालिका वर्ष
खुश हो जा मेरी मेरी बिट्टो !
यह तेरा वर्ष है.
दक्षेस ने तेरे नाम कर दिया है यह वर्ष
पता है तुझे दक्षेस?
समझ ले कि दुनिया के सात देश
इस वर्ष तेरी ही चिन्ता में डूबे हुए हैं.
उन्हें हर हाल में साल रहा है तेरा दु:ख
वे हर तरफ़ से खोज रहे हैं
तेरे लिए खुशी-तेरे लिए सुख.
सात भाइयों की तरह
तुझे चंवर डुला रहे हैं दुनिया के सात देश !
देश किसे कहते हैं
यह मत जान-मत सोच
छोटे-से बाल मस्तिष्क पर
मत डाल इतना गुरुतर बोझ
इस वर्ष तू मुस्कान बिखेरती रह
कैमरे की आंख तेरी तरफ़ है
तेरी ओर टकटकी बांधे देख रहा है
समूचा प्रचारतंत्र , प्रजातंत्र और राजतंत्र.
इस वर्ष तू भूख की बात मत कर
मत रो कि तेरे कपड़े तार-तार हो गए हैं
गुमसुम मत बैठ कि तेरे पास कोई खिलौना नहीं है
तेरे पास एक वर्ष है बिट्टो ! हर्ष कर !
पूरे तीन सौ पैंसठ दिन
तेरे नाम कर दिए गए हैं
हमारे प्रति कृतज्ञ रह और काम कर.
अपने चेहरे की तरह चमका दे घर के सारे बासन
कोयले से मत लिख क ख ग
फ़र्श पर मत फ़ैला गंदगी.
चूल्हे पर अदहन तैयार है
पूरे कुनबे के लिए भात रांध और माड़ पी
यह तेरा वर्ष है -तुझे तंदुरुस्त दीखना है
बचना है हारी-बीमारी से !
राजधानियों में
दीवारों पर चस्पां हैं तेरे पोस्टर
मेजों पर बिखरी पड़ी हैं
तेरी रंगीन पुस्तिकायें
टेलीविजन के पर्दे पर तू उछल-कूद रही है
देख तो इस वर्ष तुझे कितने फ़ुरसत हो गई है.
नन्हें खरगोशों की तरह
तू एक साथ सात देशों की जमीन पर खेल रही है.
वर्ष बीतने पर
क्या तू सचमुच मांद में दुबक जाएगी मेरी बिट्टो !
या एक वर्ष तक हर्ष मनाकर
बिल्कुल थक जाएगी मेरी बिट्टो !
वर्षान्त करीब है
यह तेरा वर्ष है बिट्टो ! तू खुश रह !
***
हथिया नक्षत्र
हथिया इस बार भी नहीं बरसा
टकटकी लगाए देखते रहे
खेतों के प्यासे-पपड़ाए होंठ।
मोतियाबिंद से धुँधलाई आँखों से
खाली-खाली आकाश ताक रहे हैं जवाहिर चा’
और बुदबुदा रहे हैं-
हथिया इस बार भी नहीं बरसा।
लगता है आसमान में कहीं अटक गया है
जैसे भटक जाते हैं गाँव के लड़के
दिल्ली, बंबई, कलकत्ता, जाकर।
-ये कयामत के आसार हैं मियाँ
बात में लग्गी लगाते हैं सुलेमान खाँ
हथया का न बरसना मामूली बात नहीं है जनाब!
अब तो गोया आसमान से बरसेगी आग
और धरती से सूख जाएगी हरियर दूब।
हथिया का न बरसना
सिर्फ़ जवाहिर चा’
और सुलेमान खाँ की चिंता नहीं है
हथिया का न बरसना
भूख के इतिहास की सबसे बड़ी घटना है।
जवाहिर चा और सुलेमान खाँ नहीं जानते हैं
कि हथिया एक नक्षत्र है
बाकी छब्बीस नक्षत्रों की तरह
जिनकी गणना
पंडित रामजी तिवारी की पोथियों में बंद है।
हथिया मनमौजी है
वह कोई बंदिश नहीं मानता
दुनिया के रंगबिरंगे नक्शे में
नहीं पहचानता है हिंदुस्तान,
बर्मा या पाकिस्तान
वह नहीं देखता है
हिंदू, सिक्ख, क्रिस्तान या मुसलमान
वह बरसता है तो सबपर
चाहे वह उसर हो या उपजाऊ धनखर।
वह लेखपाल की खसरा-खतौनी की
धज्जियाँ उड़ा देता है
न ही वह डरता है
बी.डी.ओ. और तहसीलदार की
गुर्राती हुई जीप से।
कभी फ़ुर्सत मिले तो देखना
बिल्कुल मस्ताए हाथी की तरह दीखता है
मूसलाधार बरसता हुआ हथिया नक्षत्र।
जवाहिर चा’ और सुलेमान खाँ को
प्रभावित नहीं कर सकता है
मेरा यह काव्यात्मक हथिया नक्षत्र
वे अच्छी तरह जानते हैं
हथिया के न बरसने का वास्तविक अर्थ।
हथिया के न बरसने का अर्थ है-
धान की लहलहाती फसल की अकाल मृत्यु
हथिया के न बरसने का अर्थ है-
कोठार और कुनबे का खाली पेट
हथिया के न बरसने का अर्थ है-
जीवन और जगत का अर्थहीन हो जाना।
विद्वतजन!
मुझे क्षमा करें
मैं सही शब्दों को ग़लत दिशा में मोड़ रहा हूँ
मुझे हथिया नक्षत्र पर नहीं
बटलोई में पकते हुए भात पर
कविता लिखनी चाहिए।
पीढ़ी प्रलाप
मैं एक साथ कई काम करता हूं
अच्छा लगता है
एक साथ कई कामों को निपटाना.
किताबों की दुकान पर
एक ही दिन
‘वर्तमान साहित्य’,’डेबोनेयर’,’इंडिया टुडे’और ‘रोजगार समाचार’ खरीदते
कोई संकोच-कोई आश्चर्य नहीं होता.
लोकसेवा आयोग के आवेदन पत्रों पर
अपना फोटो चिपकाते हुए
पत्र-पत्रिकाओं से काटता रहता हूं
नेताओं,भिखारियों और औरतों की तस्वीरें
ताकि ‘माई लाइफ’ शीर्षक कोलाज बना सकूं.
फिल्म देखते हुए
नाटक के बारे में सोचता हूं
और नाटक करते हुए
जिन्दगी के बारे में – दार्शनिक की तरह.
कमरे का उखड़ता हुआ पलस्तर
गारा-मिट्टी ढ़ोने वाले मजदूरों की तस्वीर नहीं उकेर पाता
और न ही आंखों में चुभती हैं
देर रात गए तक
मेस की किचन में बरतन साफ करने वाले
पहाड़ी किशोर की ठंडी उंगलियां.
बलात्कार की शिकार औरतों की सहानुभूति में
तख्ती उठाकर जुलूस में शामिल होते हुए
मैं देखना चाहता हूं प्रेमिका का शारीरिक सौन्दर्य.
परिचित-अपरिचितों की शोकसभा में
सिर्फ दो मिनट का मौन मुझे अशान्त कर देता है
लाईब्रेरी में बैठते ही
किताबों के शब्द निरर्थक लगने लगते हैं
मैं भाग जाना चाहता हूं
एवरेस्ट या अंटार्कटिका की तरफ़
दिन भर खटने के बाद
लगता है कि आज कुछ भी नहीं किया
प्रभु!
मुझे जीने का बहाना दो
अब तक मैंने कुछ भी नहीं जिया.
***
अच्छी कविताएं हैं आपके जवाहिर चा की! चाचा-भतीजे की जोड़ी सलामत रहे।
अच्छी रचना,अच्छी अभिव्यक्ति !
बहुत ही उत्कृष्ट लगीं सारी कवितायें . मानस को को झिन्झोडती…सोचने को बाध्य करती.
dhanyavaad ..khaastaur per BALIKA VARSH ke liye
इन कविताओं को मेरा सलाम!
सिद्धेश्वर जी की कविताओं में बनावट नही है, यह दिलकश है. ‘हथिया नक्षत्र’ तो ग़ज़ब है!
ये अच्छी कविताएं हैं। विजयशंकरजी ने ठीक ही कहा है। ये सरल-सहज हैं। कारीगरी नहीं है।
भई चुन कर कवितायें लाए हो कारूं के खजाने से. सिद्धेश्वर भाई को सलाम.
सिद्धेश्वर जी के ब्लाग का मैं नियमित पाठक हूँ। एक बार पुनः जीवन और जमीन से गहरे गहरे जुड़ी उनकी ऐ कवितायें पढ़वाने के लिए बहुत शुक्रिया।
शुक्रिया शिरीष !
यह मोहब्बत और बड़प्पन है.माथे पर धारता हूँ. और क्या कहूँ!
शुक्रिया उन दोस्तों का भी जो मेरे ककहरे को कविता कह रहे हैं – शुक्रिया:दिल से!!
-जवाहिर चा
बहुत सार्थक कविताएं हैं। सहज और सरल भाषा में लिखी कविताएं पढ़ कर सोचने पर मजबूर करती