मॅनहटन – 1
मेरे बेडरूम की खिड़की से मॅनहटन नज़र आता है
अपनी गरिमा से बहती हुई हड़सन
जिसके दूसरे छोर पर खडा मॅनहटन
अपनी आकाश से गाली-गलौज करती अट्टालिकाओं के साथ मुझे
मुँह में सिगार दबाए,रेशमी स्लीपिंग रोब पहने
फिल्मी नायिका के उस रौबदार बाप जैसा लगता है
जो कहना चाहता है,
‘मेरी बेटी का पीछा छोड़ने की तुम क्या कीमत लोगे?’
मैं अधिक समय तक उससे नजरें नहीं मिला सकता
घबराकर आँखें नीची कर लेता हूँ.
बेवकूफ़ होती हैँ खिड़कियाँ जो चाहती हैं दिखाना बाहर का दृश्य
जस का तस.
बचपन में मेरे घर की खिड़की से कारखाना दिखाई देता था
‘रामायण-महाभारत’ के राक्षसों-दानवों की तरह
डरावने स्टीम इंजन, काले धुँए के बादल छोड़ते हुए
चार-बारह,बारह-आठ का साइरन बजते ही
तेल-धूल-कोयले से सने कपड़ों में ड्यूटी पर जाते
या बाहर आते मज़दूर.
खिड़कियाँ क्यों होती हैं इतनी मुँहज़ोर
जो उस पार की चीजों को इस पार ले आना चाहती हैं?
हड़सन के पानी पर तैरता जहाज़ धुँआ बिल्कुल नहीं छोड़ता
बिल्कुल भी नहीं
मगर लगता है कई बार
जैसे जहाज़ कालिख उगलने वाले दैत्यरूपी इंजन में बदल जाएगा
और बेडरूम की खिड़की का काँच तोड़कर मेरे सिरहाने आ बैठेगा
और करेगा मुझसे वो सारे सवाल
जिनके जवाब ढूँढने के लिए
मुझे काले धुएँ से गुज़रकर मालगाड़ी के उस डिब्बे पर चढ़ना होगा
जिसमें भरा है टनों कोयला.
पता नहीं क्यों
मुझे कभी-कभी धोखेबाज़ लगती हैं खिड़कियाँ.
जब बादल छा जाते हैँ तो मॅनहटन उसमें ऐसे डूबता सा लगता है
जैसे किसी शरारती बच्चे ने तस्वीर की इमारतों की ऊपरी मंज़िलों पर
मटमैला रंग छलका दिया है
बादलों के धुंधलके में बड़ा कमज़ोर और बीमार सा लगता है मॅनहटन
मैं ज़रा नॉर्मल होने लगता हूँ
मगर जानता हूँ मैं
कि जब हवा राम-बुहारी बन बादलों को झाड़ देगी
और सूरज वैकेशन से लौट आएगा
तब मॅनहटन फ़िर ग़ुरूर से दमकने लगेगा मुझे नीचा दिखाने के लिए
एम्पायर-स्टेट की चोटी पर जलता बुझता बिजली का बल्ब
मुझे चिढ़ाने लगेगा
अपनी हज़ारों वाट रोशनी के साथ
मॅनहटन पूरी रफ़्तार से मेरी तरफ़ आता दिखाई देगा
और मैं घबराक्रर विन्डो-ब्लाइंड नीचे गिरा दूँगा.
सौंदर्य बोध निहायत ही घटिया होता है खिड़कियों का
और मेरे बेडरूम की खिड़की के पास तो सौंदर्य बोध है ही नहीं.
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मॅनहटन – 2
सितम्बर की उमस भरी रात में
मॅनहटन परेशान सा लग रहा है
मैं जब भी रात में अपने कमरे की खिड़की से बाहर देखता हूँ
तो मॅनहटन को जान-बूझकर नज़रअंदाज़ करता हूँ
हाँ, कभी-कभी कनखियों से निहार लिया करता हूँ
अगर हड़सन के साथ बातें करने में मग्न हुआ
तो वह भी मेरी तरफ़ ध्यान नहीं देता.
मगर आज दिन भर सूरज की किरणों का ताप झेलकर
थकी-हारी हड़सन
मॅनहटन की ओर पीठ करके लेटी हुई है
उस मज़दूर औरत की तरह
जो दिन भर कड़ी धूप में सिर पर ईंटें ढोने के बाद
कमर सीधी करते ही ऊँघने लगती है
शायद इसीलिए मॅनहटन बौखलाया सा लग रहा है.
मैं शायद बताना भूल गया
पिछले कुछ महीनों में इतनी जान-पहचान तो हो गई है कि
मॅनहटन अब मुझे इन्टीमिडेट नहीं करता
इसी वजह से अब ज़्यादातर खुली रहने लगी है मेरे बेडरूम की खिड़की
क्या पता आ ही बैठे वह कुहनी टेककर
मेरी खिड़की पर
बातें तो बहुत सारी करनी है मॅनहटन से
पूछने हैं कई सवाल, जानना है कईयों का हाल.
शायद बता ही दे उस बुढ़िया की कहानी
जिसका मेडन लेन की दुकानों की सीढ़ियों पर रैन-बसेरा है
शायद पता हो उसे
वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के सामने अखबार की प्रतियाँ बाँटने वाली
अश्वेत महिला की आँखों से टपकती लाचारी का कारण
क्या पता सुना ही दे
कॉफ़ी-बेगल का ठेला लगाने वाले मार्क के युवा बेटे के सपनों की दास्तान
सी-पोर्ट पर बैठने वाले बूढ़े भिखारी की मैली-कुचैली पोटली का राज़ ही खोल दे शायद
या कह उठे संघर्ष-गाथा
अपनी साइकिलों के कैरियर पर
पिज़ा-बर्गर और न जाने क्या-क्या डिलीवर करते हिस्पैनिक पुरुषों की.
नाइन इलेवन के हमलों में मारे गए लोगों की फ़ेहरिस्त
संयुक्त राष्ट्र महासभा की बहसें और प्रस्ताव
टाइम्स स्क्वेयर के चौंधिया देने वाले होर्डिंग
ब्रूकलिन-ब्रिज के सवा-सौ सालों के इतिहास
और सेंट्रल पार्क के क्षेत्रफल के अलावा
इन सारी बातों की जानकारी भी रखता तो होगा मॅनहटन।
भारतभूषण तिवारी जी को पहली बार पढा…कवितायें गहरे तक प्रभावित करती हैं।
उन खिड़कियों के उस पार देखना कवि के लिये अक्सर ज़रूरी हो जाता है जो उसके इर्द गिर्द जड दी गयी हों। भारत देख पाते हैं बहुत दूर तक और यह देखना शामिल होने जैसा है। उनकी भाषा इस संवेदना को विस्तार देती है।
आपकी पसंद मेरी पसद भी बन गयी।
शिषिर जी ,
आपके माध्यम से भारत भूषण जी कविताये पढने को मिलीं ….मैं तो हैरान हूँ कि इतनी बारीकी से जो उन्होंने भाव को उकेरा है कविता जैसे जीवित सी हो उठी है ….बहुत अच्छी लगीं उनकी कवितायेँ …..भूषण जी को बहुत-बहुत बधाई….!!