टूटना
(1)
एक और एक
दो नहीं होते
एक और एक ग्यारह
नहीं होते
क्योंकि एक नहीं है
एक के टुकड़े हैं
जिनसे एक भी नहीं
बनता
इसे टूटना कहते हैं
(2)
हवा आधी है
आग आधी है
पानी आधा है
दुनिया आधी है
आधा-आधा है
बीच से टूटा है
यह संसार बीच से
टूटा है
***
मुस्टंडा और बच्चा
भाषा के अन्दर बहुत
सी बातें
सबने मिलकर बनाई
होती हैं
इसलिए भाषा बहुत समय
एक विश्वास की तरह चलती है
जैसे हम अगर कहें
बच्चा
तो सभी समझते हैं, हाँ बच्चा
लेकिन बच्चे की जगह
बैठा होता है एक परजीवी
एक तानाशाह
फिर भी हम कहते रहते हैं बच्चा ओहो बच्चा
और पूरा देश
मुस्टंडों से भर जाता है
किसी उजड़े हुए बूढे
में
किसी ठगी गई औरत में
किसी गूंगे में जैसे
किसी स्मृति में
छिपकर जान बचाता है
बच्चा
अब मुस्टंडा भी है
और बच्चा भी है
इन्हें अलग-अलग
पहचानने वाला भी है
भाषा अब भी है
विश्वास की तरह अकारथ
***
स्पर्श
एक चीज़ होती थी
स्पर्श
लेकिन इसका अनुभव
भुला दिया गया
मतलब स्पर्श जो एक
चीज़ नहीं था
भुला दिया गया
अब यह बात कैसे बताई जाए
एक मेमना घास भूलकर
नदी पर आ गया
ज़रा सा आगे बढ़कर नदी ने उसे छुआ
और मेमने ने अपने कान हिलाए
***
फिर भी
एक लम्बी दूरी
एक आधा काम
एक भ्रूण
ये सभी जगाते हैं कल्पना
कल्पना से
दूरी कम नहीं होती
काम पूरा नहीं होता
फिर भी
दिखाई पड़ती है हंसती हुई
एक बच्ची रास्ते पर
***
स्पर्श -बहुत गहरी रचना.
यूँ सभी रचनाऐं पसंद आईं-खास तौर पर एक के टुकड़े.
वाह ! “स्पर्श” – अद्भुत ! सभी अच्छी हैं .. “फिर भी” – भी कमाल … लेकिन “स्पर्श” : याद रह गई ….
शुभा जी की “फिर भी” कविता अमर कविता है! स्त्री भ्रूण हत्या को क्या कभी किसी कविता ने इस तरह देखा है? और हत्या हो जाने के बाद “फिर भी” जो बच्ची दिखती है रास्ते पर हँसती हुई – उसने रुला दिया. अनुनाद ऐसी कविताओं का अभिलेखागार बन चला है. धीरेश जी की मैं शुक्रगुज़ार हूँ इस एक कविता के लिए ! मैं समझ नहीं पा रही हूँ ऐसी कविता पर टिप्पणी क्यों नहीं हैं? पुरुषों के अलावा अब तो महिला ब्लॉगर भी बहुत हैं, उन्हें तो सॅंजो लेना चाहिए इस कविता को ….
धीरेश भाई अच्छी और सच्ची कविताएं पढ़वाने के लिए शुक्रिया। शुभाजी को शुभकामनाएं।
अच्छी कविताएँ।
शुभाजी हमारे समय का बेहतरीन कवि हैं,मैं उन्हें कवयत्री कहकर उन्हें महिला कोटे में डालना नहीं चाहता और यह बात दूसरी कई महिला कवियों के बारे में भी सही है।वह हिंदी कविता का गौरव हैं मगर मनमोहन और शुभा दोनों हम लोगों के विपरीत बिल्कुल महत्वाकांक्षी नहीं हैं।यह वरदान भी है और समस्या भी।उनके पहले कविता संग्रह का इंतज़ार है और किसी की नजर उनके लेखों पर भी पड़ी हो तो वे भी सामने चाहिए किताब के रूप में मगर हमारे प्रकाशक इतने जागरूक और जिज्ञासु कहाँ हैं!