जो तुमने घोंपे थे पसलियों के बीच
हँसली के ऊपर
गुर्दों के आसपास
लौटाओ लोगों को मुर्दाघरों से
इमरजेंसी वार्ड में जहाँ नाइट ड्यूटी पर लगे
दो उनींदे डॉक्टर
तुम्हारे किसी शिकार को बचाने की कोशिश कर रहे हैं
वे ऐसे तो उसे बचा नहीं पाएंगे
खींचकर वापस लाओ वहाँ से भी उन सब मरते हुए लोगों को
बिठाओ उन्हें उनकी बैठकों और काम की जगहों में
सुनो उनसे उनके पसंदीदा मज़ाक़
जब उनमें से किसी की औरत चाय लेकर आए
तो हस्बे-मामूल बोलो नमस्ते भाभी !
और कोई बच्चा-बच्ची झाँकते दिखाई दें तो
बुलाओ और कहो देखो ये रहे तुम्हारे पापा
वापस लो अपनी चश्मदीद गवाहियाँ
जिनका तुमने रिहर्सल किया था
बताओ कि इबारत और दीद भयानक धोखा थीं
और याददाश्त एक घुलनशील ज़हर
फिर से लिखो अपना
सही-सही नाम और काम
उन समाचारों को फिर से लिखो
जो अफ़वाहों और भ्रामक बातों से भरे थे
कि कुछ भी अनायास और अचानक नहीं था
दुर्घटना दरअसल योजना थी
मत पोंछो हर जगह से अपनी उंगलियों के निशान
छुड़ाओ अपने बालों से वह बेहूदा खिजाब
फिर से बनाओ वही हथेलियाँ जो पसीजती थीं एक मासूम पशुता से
***
तमाम फि़क्रमंदी और मेहनतकशी के पर्दे में रखा रहता है
दुख का भोंपू ख़ुद से रह-रहकर बजता हुआ
आदमी एहतियात से उठता है
और बजाने लगता है रेडियो
जहाँ से दबंग आवाज़ में देवकीनंदन पांडे सुनाने लगते हैं
आज की ख़ास – ख़ास खबरेंये सब पीछे से उठती आवाज़ें हैं जिनका
कोई अब ज़िक्र नहीं है, लोग ऐसे हो गए हैं
कि अपने पिछले दुख भी गँवा बैठे
लोग संजय का ज़माना भूल गए, उन दुखों की पहचान भी भूल गए
पुराने अब झकझोरकर नयों से नहीं कहते
अरे नौजवानो, संजय….संजय !
जब कुछ वहशत होती है तो आप जा खड़े होते हैं
पिछवाड़े में खुलती खिड़कियों के पास और देखते हैं
काली, सफ़ेद और सलेटी दुनिया
उसके अँधेरे उसके उजाले और रहस्यमय परछाइयाँ – वहीं कुछ गोशों से
बनकर निकलता दिखाई देता है भविष्य
तैयार होकर फिंकता हुआ ताज़ा सामान
भावी दुनिया के लोथड़े जो सरकते हैं
एक अनिश्चयपूर्ण रंगीन भाप में
एक फ़ासिस्ट मोटरबाज़ की मूर्ति के पास
हर रोज़ रखी दिखती है एक ताज़ा माला।
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असद ज़ैदी साहब का पुराना मुरीद हूँ. सच्चे अर्थों में कविता उनके पास है. एक साफ़ राजनैतिक कविता… जो कहीं भी वक्तव्य में अपघटित नहीं होती. और क्या शानदार भाषा ! हिंदू उर्दू दोनों के बीच से बहकर निकलती नदी की तरह. उनकी कविता को सलाम.
ye kavi mar jayega, Sheerish bhai. Jab log pichhle dukh bhula baithe hain aur un dukhon kee pachchaan bhi, tab yah kavi akela itna ranj, itna gam, itna stress liye ghoomta hai apne dil-dimag par.
Kuchh nahi hoga…Hindi ka alochak kahega- ye nirasha failata hai
Krantikari sangtahan kahega- ummeed nahi dekh paata
SHIREESH BHAI, Asad Zaidi khase beemar bhi rahne lage hain. Unhen ab mast formule wali kavitayen likhni chahiyen?
करने वाले काम अद्भुत कविता है- दिल को झंझोड़ देने वाली! कोई कवि सांप्रदायिकता के ख़िलाफ एक उतना ही सशक्त प्रतिपक्षी संसार रच सकता है, यह देखना और पढ़ना एक अनुभव है. शुक्रिया शिरीष जी ऐसी कवितायें लाने के लिए. अब मैं समझ पाया हूँ कि पिछ्ले दिनों असद ज़ैदी का इतना विरोध क्यों था! हिन्दी की हैसियत के हिसाब से मैने ये सिद्धांत बनाया है कि जिस कवि के पीछे मठाधीश पड़ जायें, वो बड़ा कवि है !
karne wale aur jagna rona dono hi. Ye JAGNA RONA karne wala hi likh pata hai