पेड़ों की उदासी
पेड़ों के पास ऐसी कोई भाषा नहीं थी
जिसके ज़रिये वे अपनी बात
इन्सानों तक पहुंचा सकें
शायद पेड़ बुरा मान गए किसी बात का
वे बीज कम उगाने लगे
और बीजों में उगने की इच्छा ख़त्म हो गई
बचे हुए पेड़ों की उदासी देखी जा सकती है
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हमारे समय में
हम महसूस करते रहते हैं
एक दूसरे की असहायता
जनतंत्र का स्वरूप
कई तरह की स्वाधीनता
है हमारे पास
एक सूनी जगह है
जहाँ हम अपनी असहमति
व्यक्त कर सकते हैं
या जंगल की ओर निकल सकते हैं
आत्महत्या करते हुए हम
एक नोट भी छोड़ सकते हैं
या एक नरबलि पर चलते
उत्सव में नाक तक डूब सकते हैं
हम उन शब्दों में
एक दूसरे को तसल्ली दे सकते हैं
जिन शब्दों को
हमारा यकीन छोड़ गया है
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आता-जाता आदमी
चिड़िया गाती है
हवा पानी में घुल जाती है
धुप रेत में घुस जाती है
पेड़ छाया बनकर दौड़-भाग करते हैं
पानी पर काई फैलती है बड़ी शान से
टिड्डे उड़ान रोककर घास पर कूदने लगते हैं
ओछे दिल का आदमी बड़ी-बड़ी आँखें
बड़े-बड़े कान लिए आता-जाता रहता है
बिना कुछ देखे-बिना कुछ सुने
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इच्छा
मैं चाहती हूँ कुछ अव्यवहारिक लोग
एक गोष्ठी करें
कि समस्याओं को कैसे बचाया जाए
उन्हें जन्म लेने दिया जाए
वे अपना पूरा कद पाएं
वे खड़ी हों
और दिखाई दें
उनकी एक भाषा हो
और कोई उन्हें सुने
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शुभा बेहद कम छपने वाली कवियत्री हैं. उनकी जो कविताएँ गाहे-बगाहे विभिन्न पत्रिकाओं में छपी हैं, उनमें स्त्री विमर्श बेहद ओथेन्टिक और मुखर रूप से सामने आया है. यहाँ दी जा रही कविताओं का स्वर थोड़ा भिन्न है. १९९२ और उसके बाद के हादसों से उपजी व्यथा की अनुगूंज भी इस स्वर में शामिल है.(कुछ और कविताएँ अगली पोस्ट में…)
धीरेश भाई बहुत अलग और अनोखी कवितायें लाए आप ! आपका अनुनाद में आना, समृद्धि का आना है.
शुभा महत्वपूर्ण कवि हैं, उनको मैने पहले भी कहीं पढ़ा है. मुझे इच्छा कविता सबसे अच्छी लगी. सचमुच कितनी निर्भ्रान्त इच्छा है यह कि समस्याओं का एक क़द हो, उनकी भाषा हो और वे सुनाई दें! इस स्वर में पहली बार कोई बोल रहा है.
इन कविताओं के लिए शुक्रिया और आने वाली कविताओं की उत्सुकता है अब …..
संवेदना से परिपूर्ण रचनाएं
मतगणना की पूर्वसंध्या पर ( इस संध्या को मैं क़त्ल की रात भी कहना चाहता हूँ ) ‘जनतंत्र के स्वरूप’ की चिंता ‘हमारे समय में’ ज़्यादा अर्जेंट होकर, अनिवार्यतर होकर व्यक्त होनी चाहिए, जैसे वह शुभा की कविता में हो रही है. लोकतंत्र भी, अन्य अनेक वस्तुओं की तरह, भारतीय यथार्थ का एक ज़रूरी लक्षण है. आज किसी भी कवि (और कविता) के लिए इस धारणा को एक पैमाना बनाया जाना चाहिए कि वह लोकतान्त्रिक यथास्थिति के खिलाफ़ कैसे औज़ारों के साथ, किस तरह की लड़ाई में शामिल है. जो लोकतंत्र के ज़रिये उपलब्ध सामग्रियों का भोग-भर करते हैं और करना चाहते हैं उनसे लोकतंत्र को सुधारने, उससे उलझने, उसे फ़िलहाल ज़रूरी मानने और अंततः उसका विध्वंस करने की परियोजनाओं में शामिल होने की उम्मीद करना बेमानी है. यह कविता और ऐसी कविताएँ उन लोगों के लिए लिखी भी नहीं जातीं. इसलिए भी ऐसी कविता बार-बार लिखी जानी चाहिए.
बहुत बढ़िया कवितायें शोभना जी की. आपके ब्लॉग पर पहली बार किसी कवियात्री को पढ़ा! एक ज़िद्दी धुन को शुक्रिया. शिरीष जी और व्योमेश जी ने अलग अलग कविताओं पर प्रतिक्रिया दी. मुझे तो चारों अच्छी लगीं.