अपनी ही देह का कौतुक और भय
वह जो झरने बहे चले आ रहे हैं
हज़ारों-हज़ार
हर क़दम उलझते-पुलझते कूदते-फाँदते
लिए अपने साथ अपने-अपने इलाक़े की
वनस्पतियों का रस और खनिज तत्व
दरअसल उन्होंने ने ही बनाया है इसे
देवापगा गंग महरानी!
***
गंगा के जल में बनती है
हरसिल इलाक़े की कच्ची शराब
घुमन्तू भोटियों ने खोल लिए हैं क़स्बे में खोखे
जिनमें वे बेचते हैं
दालें-सुईधागा-प्याज-छतरियाँ-पौलीथीन
वग़ैरह
निर्विकार चालाकी के साथ ऊन कातते हुए
दिल्ली का तस्कर घूम रहा है
इलाक़े में अपनी लम्बी गाड़ी पर
साथ बैठाले एक ग्रामकन्या और उसके शराबी बाप को
इधर फोकट में मिल जाए अंगरेजी का अद्धा
तो उस अभागे पूर्व सैनिक को
और क्या चाहिए !
***
इस तरह चीखती हुई बहती है
हिमवान की गलती हुई देह
लापरवाही से चिप्स का फटा हुआ पैकेट फेंकता वह
आधुनिक यात्री
कहाँ पहचान पाएगा वह
ख़ुद को नेस्तनाबूद कर देने की उस महान यातना को
जो एक अभिलाषा भी है
कठोर शिशिर के लिए तैयार हो रहे हैं गाँव
विरल पत्र पेड़ों पर चारे के लिए बाँधे जा चुके
सूखी हुई घास और भूसे के
लूटे-परखुंडे
घरों में सहेजी जा चुकी
सुखाई गई मूलियाँ और उग्गल की पत्तियाँ
***
मुखबा में हिचकियाँ लेती-सी दिखती है
अतिशीतल हरे जल वाली गंगा
बादलों की ओट हो चला गोमुख का चितकबरा शिखर
जा बेटी, जा, वहीं अब तेरा घर होना है
मरने तक
चमड़े का रस मिले उसको भी पी लेना
गाद-कीच-तेल-तेज़ाबी रंग सभी पी लेना
ढो लेना जो लाशें मिलें सड़ती हुई
देखना वे ढोंग के महोत्सव
सरल मन जिन्हें आबाद करते हैं अपने प्यार से
बहती जाना शांत चित्त सहलाते-दुलराते
वक्ष पर आ बैठे जल पाँखियों की पाँत को।
जलंधरी गाड के किनारे का हर्षिल मुखबा मे हिचकियां लेती-सी दिखती हरे जल वाली गंगा में धुला धुला सा दिखता है। गाद_कीच-तेल-तेजाबी जो भी है, ढोंग के महोत्सवों के अपचयित हैं। सच है कि वनस्पतियों के रस और खनिज तत्वों से भरी पूरी गंगा में ढोंग के महोत्सवों के अपचयित को भी जीवन देने की शक्ति है, जिसे बचाया ही जाना चाहिए।
वीरेन डॅंगवाल जी की बहुत उम्दा कविता है ये ! आरंभ का उत्साह और बीच की निर्ममता और फिर अंत का दुख भरा ढाढ़स ! कमाल ! शुक्रिया इसे यहाँ लगाने का.
वीरेनियन अंदाज़….
अहा पहले स्टेन्ज़ा का उल्लास…
और फिर वही हम सबका दुःख.
…और ये पंक्ति `सरल मन जिन्हें आबाद करते हैं अपने प्यार से`
भावनाओं का गूंझर। मूर्त- अमूर्त पीड़ा को, मानव के अमानव होने की अमानवीय धारा को, स्वार्थी लिप्तता से निर्लिप्त होते सामाजिक प्रवृत्ति को अद्भूत आकार देती कविता। उल्लास-विषाद-अवसाद से भर गया। वीरेन जी की कविता पहली बार टीस देती है, दूसरी बार भरोसा दिलाती है और अंततः चिंतन के गहरे समुद्र में अकेला छोड़ देती है। हमारे समय के हमारे कवि- वीरेन डंगवाल।
पिछले कुछ दिनों से यह कविता मेरे भीतर कोलाहल मचाए हुए है.इसे पहली बार कवि के मुख से नवंबर २००८ में कौसानी में सुना था था , बाद में ‘अनुनाद’ पत्रिका में देखा और अब अनुनाद ब्लाग पर. ‘कबाड़खाना’ पर अनिल और पंकज की गंगा वाली पोस्ट्स देखकर यह मेरे भीतर बजने लगी थी(है).
हिमवान की गलती हुई देह की छाया में…
उत्तम
बहुत बढ़िया
वाह..अरे,
आह…आह…आह गुरुवर!
अति सुन्दर।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }