आजकल नागार्जुन, त्रिलोचन और केदारनाथ अग्रवाल (नाथ और अग्रवाल इसलिए कि अब कुछ लोग केदार का तात्पर्य सिर्फ़ केदारनाथ सिंह लगाते हैं) की कोई परम्परा है और उसके अपने कवि हैं, यह मानने का प्रचलन आश्चर्यजनक ढंग से कम होता जा रहा है! इस परिदृश्य में केशव तिवारी जैसे कवि इस परम्परा का बोध कराते हैं। अनुनाद पर उनका स्वागत है।
कवि का वक्तव्य
मेरा यह मानना रहा है कि आज तक विश्व की कोई भी महान कविता अपनी परम्पराओं से जुडकर और उसकी जडता से मुक्त होकर ही महान रही है। लोक मेरे लिए जीवन और कविता में एक सबसे बडी प्रेरणा रहा है। जहॉ अभी श्रम के महत्व को वह स्थान नहीं मिला है, जिसका वह हकदार है। लोक मेरे लिए सर्वहारा का ही पर्याय है वे तमाम लोग जो शोषित और पीड़ित है। धरती के किसी भी हिस्से में रह रहे है, मेरे ही लोक का हिस्सा है। कविता लिखना मेरे लिए उनकी इसी लडाई में एक छोटी से हिस्सेदारी के सिवा और ज्यादा कुछ भी नहीं है।
तो काहे का मैं
किसी बेइमान की आँखों में
न खटकूं तो काहे का मैं
मित्रों की गाढे में याद न आंऊ
तो काहे का मैं
कोई मोहब्बत से देखे और मैं उसके
सीधे सीने में न उतर जाऊं
तो काहे का मैं
अगर ये सब कविता मैं तुम्हे
सिर्फ़ सुनाने के लिए सुनाऊं
तो फिर काहे का मैं
***
तो काहे का मैं
किसी बेइमान की आँखों में
न खटकूं तो काहे का मैं
मित्रों की गाढे में याद न आंऊ
तो काहे का मैं
कोई मोहब्बत से देखे और मैं उसके
सीधे सीने में न उतर जाऊं
तो काहे का मैं
अगर ये सब कविता मैं तुम्हे
सिर्फ़ सुनाने के लिए सुनाऊं
तो फिर काहे का मैं
***
मइकू का नाम
घड़े बिकने आये है बाजार
अक्षय तृतीया है आज
आज के ही दिन नेवासे पाते है
नये घड़े
हर ओर है अकाल का जोर
पानी के लिए हो रही है हत्यायें
आकाश की ओर मुख बाये
बैठे है घड़े, पानी और पानी
इस बार घड़ा बनाते जाने क्या क्या
सोचे होगें मइकू
इनके बिकने के बारे में या फिर
सूखे रह जाने के बारे में
वे लोग जिनके उतान होने के लिए
गगरी भर दाना काफी है
उनके घर खाली गगरी ढनगेंगी
यहाँ-वहाँ
मइकू ये सब जानते है फिर भी
गगरी गढते वक्त एक सूत
रेंच न रह जाये कि
नाम धरे लोग
नहीं है दाना पानी पर
मइकू का नाम तो है
मौजे भर में
***
घड़े बिकने आये है बाजार
अक्षय तृतीया है आज
आज के ही दिन नेवासे पाते है
नये घड़े
हर ओर है अकाल का जोर
पानी के लिए हो रही है हत्यायें
आकाश की ओर मुख बाये
बैठे है घड़े, पानी और पानी
इस बार घड़ा बनाते जाने क्या क्या
सोचे होगें मइकू
इनके बिकने के बारे में या फिर
सूखे रह जाने के बारे में
वे लोग जिनके उतान होने के लिए
गगरी भर दाना काफी है
उनके घर खाली गगरी ढनगेंगी
यहाँ-वहाँ
मइकू ये सब जानते है फिर भी
गगरी गढते वक्त एक सूत
रेंच न रह जाये कि
नाम धरे लोग
नहीं है दाना पानी पर
मइकू का नाम तो है
मौजे भर में
***
कुमाऊँ
मै बहुत दूर से थका हरा आया हूँ
मुझे प्रश्रय दो कुमाऊँ
ये तुम्हारे ऊंचे पर्वत जिन पर जमा ही रहता है।
बादलो का डेरा
कभी दिखते कभी विलुप्त होते
ये तिलिस्मी झरने तुम्हारे सप्तताल
तुम इनके साथ कितने भव्य लगते हो कुमाऊँ
शाम को घास का गट्ठर सर पर रखे
टेढे-मेढे रास्ते से घर लौटती
घसियारी गीत गाती औरतें
रजूला की प्रेम कहानियों में डूबा
हुडुक की धुन पर थिरकता
वह हुडकिया नौजवान
उस बच्चे की फटी झोली से उठती
हींग की तेज महक
तुम उसकी महक में बसे हो कुमाऊं
यह मौसम सेबों के सुर्ख होने का है।
आडुओं के मिठास उतरने का है
और तुम्हारी हवाओं में कपूर की
तरह घुल जाने का है
उनके भी घर लौटने का मौसम है।
जिन्हे घर लौटते देखकर मीलों दूर से
पहचान जाती है तुम्हारी चोटियाँ !
***
मै बहुत दूर से थका हरा आया हूँ
मुझे प्रश्रय दो कुमाऊँ
ये तुम्हारे ऊंचे पर्वत जिन पर जमा ही रहता है।
बादलो का डेरा
कभी दिखते कभी विलुप्त होते
ये तिलिस्मी झरने तुम्हारे सप्तताल
तुम इनके साथ कितने भव्य लगते हो कुमाऊँ
शाम को घास का गट्ठर सर पर रखे
टेढे-मेढे रास्ते से घर लौटती
घसियारी गीत गाती औरतें
रजूला की प्रेम कहानियों में डूबा
हुडुक की धुन पर थिरकता
वह हुडकिया नौजवान
उस बच्चे की फटी झोली से उठती
हींग की तेज महक
तुम उसकी महक में बसे हो कुमाऊं
यह मौसम सेबों के सुर्ख होने का है।
आडुओं के मिठास उतरने का है
और तुम्हारी हवाओं में कपूर की
तरह घुल जाने का है
उनके भी घर लौटने का मौसम है।
जिन्हे घर लौटते देखकर मीलों दूर से
पहचान जाती है तुम्हारी चोटियाँ !
***
बेतवा तट एक रात
ठंड से ठिठुरती चाँदनी रात
कभी बादलों की रजाई ओढता
कभी हटाता गहरी नींद में
कुनमुनाता चाँद
आसमान को बाँह में लेने को आतुर
पूरे विस्तार से बाहें उठाये पेड
कभी पहाडों से लिपटती
कभी धकियाती बेतवा
हवा के साथ-साथ बहता उन्माद
इस समय यहाँ पर तो
उन चित्रकारों को होना चाहिये
बासी पड रहे है जिनके रंग।
***
ठंड से ठिठुरती चाँदनी रात
कभी बादलों की रजाई ओढता
कभी हटाता गहरी नींद में
कुनमुनाता चाँद
आसमान को बाँह में लेने को आतुर
पूरे विस्तार से बाहें उठाये पेड
कभी पहाडों से लिपटती
कभी धकियाती बेतवा
हवा के साथ-साथ बहता उन्माद
इस समय यहाँ पर तो
उन चित्रकारों को होना चाहिये
बासी पड रहे है जिनके रंग।
***
अवधी
यह पहली बार मेरी ज़ुबान पर
आई थी माई के दूध की तरह
इसके ही इर्द-गिर्द मडराती है मेरी संवेदना
यह वह बोली है जिसमें
सबसे पहले मैने किसी से कहा
कि मै तुझे प्यार करता हूँ
इसके प्राण बसते है
बिरहा, कजरी और नकटा में
आल्हा और चैती मे तो
सुनते ही बनता है इसका
ओज और ठसक
जायसी, तुलसी, तिरलोचन की
बानी है यह
यह उनकी है जिनका
सुख-दु:ख सना है इसमें
धधक रही है जिनकी छाती
कुम्हार के आंवा की तरह
जिसमे पक रहे है
यहाँ की माटी के कच्चे बर्तन
कल के लिये।
***
यह पहली बार मेरी ज़ुबान पर
आई थी माई के दूध की तरह
इसके ही इर्द-गिर्द मडराती है मेरी संवेदना
यह वह बोली है जिसमें
सबसे पहले मैने किसी से कहा
कि मै तुझे प्यार करता हूँ
इसके प्राण बसते है
बिरहा, कजरी और नकटा में
आल्हा और चैती मे तो
सुनते ही बनता है इसका
ओज और ठसक
जायसी, तुलसी, तिरलोचन की
बानी है यह
यह उनकी है जिनका
सुख-दु:ख सना है इसमें
धधक रही है जिनकी छाती
कुम्हार के आंवा की तरह
जिसमे पक रहे है
यहाँ की माटी के कच्चे बर्तन
कल के लिये।
***
खैराडा जंक्शन का गेटमैन
आस-पास फूले पलाश के बीच
ख़ाकी धूसर वर्दी पहने
सर पर लाल पगडी बाँधे
जैसे कोई पलाश का पेड़ ही
चलकर आ गया है
टेलीफ़ोन की घंटी पर दौड रहा है
लीवर गिरा रहा है
प्रतीक्षारत वाहन चालकों से उलझ रहा है
बायें, हाथ में लाल, हरी झंडी थामें
दाहिने हाथ को हिला-हिलाकर
गुजरती कानपुर पैसेन्जर से
बच्चो का अभिवादन स्वीकार कर रहा है
सब कुछ ठीक-ठाक गुजर जाने पर
पटरी पर बैठकर
सूंट रहा है बीड़ी यह
बूढा ठिगना
लाल पगडी वाला पलाश
***
आस-पास फूले पलाश के बीच
ख़ाकी धूसर वर्दी पहने
सर पर लाल पगडी बाँधे
जैसे कोई पलाश का पेड़ ही
चलकर आ गया है
टेलीफ़ोन की घंटी पर दौड रहा है
लीवर गिरा रहा है
प्रतीक्षारत वाहन चालकों से उलझ रहा है
बायें, हाथ में लाल, हरी झंडी थामें
दाहिने हाथ को हिला-हिलाकर
गुजरती कानपुर पैसेन्जर से
बच्चो का अभिवादन स्वीकार कर रहा है
सब कुछ ठीक-ठाक गुजर जाने पर
पटरी पर बैठकर
सूंट रहा है बीड़ी यह
बूढा ठिगना
लाल पगडी वाला पलाश
***
घड़ा
अभी कुछ देर पहले ही
वह कचरे और
कंकड से सना मिट्टी का लोंदा था
पहली बार मिला है इसे
गति और कौशल का संयोग
उखडती साँसों और
बीडी के कसैले धुंये के बीच
आकार पा रहा है ये
धरती के ही रंग का यह
जब आंवा से पक कर निकलेगा
तब भोर के सूरज से कहेगा
देखो मेरा रंग तुम्हारे रंग से
कम चटख नहीं है
मुझे बनाने वाला तुम्हे बनाने वाले से
ज्यादा हुनरमंद है
जब पहुँचेगा ये बाजार तो
टनक-टनक कर देगा
अपने खरे होने का सबूत
ये उनकी तरफ आँख भी नहीं करेगा
जिन्हे नहीं है इसकी जरूरत
और जिन्हे होगी इसकी जरूरत
उनके लिए गला डुबाकर भी
निकाल लायेगा पानी।
***
अभी कुछ देर पहले ही
वह कचरे और
कंकड से सना मिट्टी का लोंदा था
पहली बार मिला है इसे
गति और कौशल का संयोग
उखडती साँसों और
बीडी के कसैले धुंये के बीच
आकार पा रहा है ये
धरती के ही रंग का यह
जब आंवा से पक कर निकलेगा
तब भोर के सूरज से कहेगा
देखो मेरा रंग तुम्हारे रंग से
कम चटख नहीं है
मुझे बनाने वाला तुम्हे बनाने वाले से
ज्यादा हुनरमंद है
जब पहुँचेगा ये बाजार तो
टनक-टनक कर देगा
अपने खरे होने का सबूत
ये उनकी तरफ आँख भी नहीं करेगा
जिन्हे नहीं है इसकी जरूरत
और जिन्हे होगी इसकी जरूरत
उनके लिए गला डुबाकर भी
निकाल लायेगा पानी।
***
दीवट का दिया
मैं तुम्हारी कोठरी के दीवट पर रखा दिया हूँ
तुम मेरे पास आओ
लटियाये बालों को सुलझाओ
पाटी पारो
माथे पर लगाओ
लाल रंग वाली बडी टिकुली
माँग भर सेन्दुर,
एडी भर महावर रचाओ
और मै तुम्हारी मद्धिम रोशनी में झिलमिलाऊं
जैसे छरहर नीम की छॉह में
झिलमिलाता है चाँद।
***
मैं तुम्हारी कोठरी के दीवट पर रखा दिया हूँ
तुम मेरे पास आओ
लटियाये बालों को सुलझाओ
पाटी पारो
माथे पर लगाओ
लाल रंग वाली बडी टिकुली
माँग भर सेन्दुर,
एडी भर महावर रचाओ
और मै तुम्हारी मद्धिम रोशनी में झिलमिलाऊं
जैसे छरहर नीम की छॉह में
झिलमिलाता है चाँद।
***
भरथरी गायक
जाने कहाँ- कहाँ से भटकते-भटकते
आ जाते हैं ये भरथरी गायक
काँधे पर अघारी
हाथ में चिकारा थामें
हमारे अच्छे दिनों की तरह ही ये
देर तक टिकते नहीं
पर जितनी देर भी रूकते हैं
झाँक जाते हैं
आत्मा की गहराइयों तक
घुमन्तू-फिरन्तू ये
जब टेरते है चिकारे पर
रानी पिंगला का दुख
सब काम छोड
दीवारों की ओट से
चिपक जाती हैं स्त्रियाँ
यही वही समय होता है
जब आप सुन सकते है
समूची सृष्टि का विलाप
***
जाने कहाँ- कहाँ से भटकते-भटकते
आ जाते हैं ये भरथरी गायक
काँधे पर अघारी
हाथ में चिकारा थामें
हमारे अच्छे दिनों की तरह ही ये
देर तक टिकते नहीं
पर जितनी देर भी रूकते हैं
झाँक जाते हैं
आत्मा की गहराइयों तक
घुमन्तू-फिरन्तू ये
जब टेरते है चिकारे पर
रानी पिंगला का दुख
सब काम छोड
दीवारों की ओट से
चिपक जाती हैं स्त्रियाँ
यही वही समय होता है
जब आप सुन सकते है
समूची सृष्टि का विलाप
***
गवनहार आजी
पूरे बारह गाँव में
आजी जैसे गवनहार नहीं थी
माँ का भी नाम एक दो गाँव तक था
बड़ी बूढ़ी औरतें कहती थीं कि
मेंझली को ही अपना गला
सौंपकर गई थी आजी
पर एक फर्क था
माँ और आजी के बीच
आजी के जो गीतों में था
माँ के जो गीतों में था
वह उनके जीवन से धीरे-धीरे
छिटक रहा था
उस सबके लिये जीवन भर
मोह बना रहा उनमें
जांत नहीं रह गये थे पर
जतसर में तुंरत पिसे
गेहूं की महक बनी रही
एक भी रंगरेज नहीं बचे थे
पर “ केसर रंग धोती रंगाव मोरे राजा“
का आग्रह बना रहा
कुएं कूडे-दानों में तब्दील हो गये थे
पर सोने की गगरी और रेशम की डोरी
के बिना एक भी सोहर पूरा नहीं हुआ
बीता-बीता जमीन बंट चुकी थी
भाइयों-भाइयों के रिश्तों में खटास आ गई थी
फिर भी जेठ से अपनी झुलनी के लिए
जमीन बेच देने की टेक नहीं गई
माँ के गीतो को सुनकर लगता था
जैसे कोई तेजी से सरकती गीली रस्सी को
भीगे हाथों से पकडने की कोशिश कर रहा है।
***
पूरे बारह गाँव में
आजी जैसे गवनहार नहीं थी
माँ का भी नाम एक दो गाँव तक था
बड़ी बूढ़ी औरतें कहती थीं कि
मेंझली को ही अपना गला
सौंपकर गई थी आजी
पर एक फर्क था
माँ और आजी के बीच
आजी के जो गीतों में था
माँ के जो गीतों में था
वह उनके जीवन से धीरे-धीरे
छिटक रहा था
उस सबके लिये जीवन भर
मोह बना रहा उनमें
जांत नहीं रह गये थे पर
जतसर में तुंरत पिसे
गेहूं की महक बनी रही
एक भी रंगरेज नहीं बचे थे
पर “ केसर रंग धोती रंगाव मोरे राजा“
का आग्रह बना रहा
कुएं कूडे-दानों में तब्दील हो गये थे
पर सोने की गगरी और रेशम की डोरी
के बिना एक भी सोहर पूरा नहीं हुआ
बीता-बीता जमीन बंट चुकी थी
भाइयों-भाइयों के रिश्तों में खटास आ गई थी
फिर भी जेठ से अपनी झुलनी के लिए
जमीन बेच देने की टेक नहीं गई
माँ के गीतो को सुनकर लगता था
जैसे कोई तेजी से सरकती गीली रस्सी को
भीगे हाथों से पकडने की कोशिश कर रहा है।
***
वे
वे जो लम्बी यात्राओं से
थककर चूर है उनसे कहो
कि सो जायें और सपने देखें
वे जो अभी-अभी
निकलने का मंसूबा ही
बाँध रहे है
उनसे कहो कि तुरंत निकल पडे
वे जो बंजर भूमि को
उपजाऊ बना रहे है
उनसे कहो कि
अपनी खुरदरी हथेलियॉ
छिपाये नहीं
इनसे ख़ूबसूरत इस दुनिया में
कुछ नहीं है
वे जो कारख़ानों में
जुटे है
उनसे कहो कि
निराश न हों
इस दुनिया मे जो भी
अच्छा बचा है
सब उनकी बदौलत है
वे जो दुनिया में कहीं भी
आन्दोलनरत है
और अपने हक़ की लडाई
लड रहे है
उनसे कहो कि
फंदे सिर्फ उनका ही गला नहीं पहचानते
और वे जो कवि है
और कविता लिख रहे है
उनसे इसी दम कहो कि
कविता में ताप बनाये रखें
बरसों की जमी बर्फ़
इसी से पिघलेगी।
***
वे जो लम्बी यात्राओं से
थककर चूर है उनसे कहो
कि सो जायें और सपने देखें
वे जो अभी-अभी
निकलने का मंसूबा ही
बाँध रहे है
उनसे कहो कि तुरंत निकल पडे
वे जो बंजर भूमि को
उपजाऊ बना रहे है
उनसे कहो कि
अपनी खुरदरी हथेलियॉ
छिपाये नहीं
इनसे ख़ूबसूरत इस दुनिया में
कुछ नहीं है
वे जो कारख़ानों में
जुटे है
उनसे कहो कि
निराश न हों
इस दुनिया मे जो भी
अच्छा बचा है
सब उनकी बदौलत है
वे जो दुनिया में कहीं भी
आन्दोलनरत है
और अपने हक़ की लडाई
लड रहे है
उनसे कहो कि
फंदे सिर्फ उनका ही गला नहीं पहचानते
और वे जो कवि है
और कविता लिख रहे है
उनसे इसी दम कहो कि
कविता में ताप बनाये रखें
बरसों की जमी बर्फ़
इसी से पिघलेगी।
***
Achhi kavitaye lagayi hai apne…
par pahli kavita “To Kahe Ka Mai” sabse achhi lagi…
केशव भाई को अनुनाद पर पाकर आनन्द आया…
zyadatar padhi hui kavitaayen hain…phir bhi blog par fresh lag rahi hain… har maadhym me kavita naya swaad deti hai….
bahut khoob keshav bhhai
and thanks shireesh