अनुनाद

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विजयशंकर चतुर्वेदी की कविता और लीलाधर जगूड़ी का वक्तव्य

विजयशंकर चतुर्वेदी की कविता पुस्तक पृथ्वी के लिए तो रुको के प्रकाशन की सूचना मैं पहले ही अनुनाद पर लगा चुका हूं। सूचना लगाते हुए मेरे पास उनकी दो नई कविताएं और पुस्तक का आवरण-चित्र था। आज मुझे यह संकलन मिला है और इसे पाने के सुख को इस पोस्ट के जरिए व्यक्त करने का प्रयास कर रहा हूं, जिसमें आज के सबसे बड़े सामाजिक-राजनीतिक संकट साम्प्रदायिकता पर लिखी उनकी अत्यंत महत्वपूर्ण कविता भी शामिल है।


लीलाधर जगूड़ी का वक्तव्य
विजयशंकर चतुर्वेदी एक ऐसे नवोदित कवि हैं जो अपने को आज के सूर्योदय के साथ साथ उस सुबह से भी जोड़कर देखते हैं जो निर्माणाधीन सृष्टि की पहली सुबह रही होगी। इतने विराट समय में अपनी निरंतरता को देखना कवि की अद्भुत विशेषता है, जो ध्यान खींचे बिना नहीं रहती। प्राकृतिक विपत्तियों से लड़ते, सीखते मनुष्य की कूव्वत कैसे-कैसे अपने को अभिव्यक्ति के लायक तराशती रही है और कैसे उन सारे द्वन्द्वों से मनुष्य ने एक निर्द्वन्द्व सभ्यता के लिए अपने को संघर्षरत रखा है। इस तरह आज के तमाम संधि-समयों से गुज़रते हुए कैसे वह मनुष्य आज तक के समय में पहुंचा है – कवि अपनी उस युद्धगाथा को एकबार फिर से कहने की बेचैनी से भरा हुआ दिखता है।

इस सांस्कृतिक यात्रा और यातना में मनुष्य ने कितने असुंदर के बदले कितना सुंदर गंवाया है – उस भूलचूक भरे अंधकार को कवि ने अपनी अभिव्यक्ति के विस्फोटक उजालों से भर दिया है। कवि सामाजिक दिक और काल के बीच इस ब्रह्मांड के शंख को सुनने की शक्ति हमें कवि की बिम्बपूर्ण भाषा से मिलती है। कुछ लोगों ने इस पृथ्वी को एक परिवार की जगह सिर्फ़ बाज़ार और कार्यालय की मेज़ बनाकर रख दिया है। कवि इस पृथ्वी पर एक मनुष्योचित सूर्योदय की प्रतीक्षा में है। अपनी सुंदर, प्यारी और वैचारिक पृथ्वी को कवि रसातल में जाने से रोकना चाहता है। यही चिंता और संघर्ष इन कविताओं के केंद्र में है।

विजयशंकर की कविता में माइथोलॉजी और टेक्नालॉजी, दोनों का अंगीकार दिखता है… विजयशंकर को मैं उनके पहले कविता संग्रह के प्रकाशन पर हार्दिक बधाई देता हूं, क्योंकि उनकी इन कविताओं को देखकर उनके विकास और बदलाव की प्रबल सम्भावनाएं अपनी ओर खींचती हैं। विजयशंकर अपने भीतर के संदेहशील कवि को निरंतर खोजते और तराशते जा रहे हैं, इसलिए उनकी यात्रा निश्चय ही अर्थपूर्ण और लम्बी होगी – 

लीलाधर जगूड़ी

अयोध्या नहीं, हम जा रहे थे दफ़्तर

हमने नहीं ढहायी कोई मस्जिद
मंदिर भी नहीं तोड़ा हमने
हम तो कर रहे थे तैयार
बच्चों को स्कूल के लिए
स्त्रियां फींच रही थीं कपड़े
धो रही थीं चावल
कुछ भर रही थीं स्टोव में हवा
चिड़ियां निकल पड़ी थीं दाने चुगने
खेतों की ओर जा रहे थे किसान

हमें नहीं चला पता
किधर से उठा शोर
किस दीवार से टकरायी गोली
कहां से आ गिरा कबूतर
हमारी चौखट पर

हम बांध रहे थे जूतों के फीते
सुन रहे थे भाजी भेचने वालों की चिल्लाहट
हमारे हाथों में फावड़े नहीं
थैले थे लाने को सब्जि़यां

अयोध्या नहीं
हम जा रहे थे दफ़्तर
हम नहीं जानते थे खोदना किसी का घर
हमने नहीं ढहायी मस्जिद
नहीं तोड़ा कोई मंदिर

जो टूटे
वे थे हमारे ही मकान
सड़क थे
सन्नाटा भी थे हम
गलियों में दुबके चेहरे हमारे थे
हम हिंदू थे
हमीं थे मुसलमान
दंगाई नहीं थे हम
न ही थे नेता
कि हों गिरफ़्तार
रहते सुरक्षित

हमारा धर्म नहीं था अमरबेल
जिस पर खेला जाए खूनी खेल
उसकी जड़ें थीं खूब गहरे धरती में
हम नहीं थे असुरक्षित खुले में
हमारे बच्चे निकल आते थे गलियों में खेलने

हममे से लौटेंगे नहीं अब कुछ लोग
उनकी परछाइयां भी नहीं बनेंगी
सूरज-चांद के सामने
उनने नहीं ढहायी थी कोइ मस्जिद
नहीं तोड़ा था कोई मंदिर

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पुनश्च: रागिनी जी ने प्रकाशन ब्योरे की माँग की तो ध्यान आया कि यह ज़रूरी पक्ष तो रह ही गया था. यह जानकारी निम्नवत है –
राधाकृष्ण प्रकाशन
7/31, अंसारी रोड, दरियागंज,
नई दिल्ली
मूल्य – 150=00

0 thoughts on “विजयशंकर चतुर्वेदी की कविता और लीलाधर जगूड़ी का वक्तव्य”

  1. वक़्त नहीं मिलता आजकल ब्लॉग पर नियमित आने का. कुछ रिश्तेदार दिल्ली में बच्चों के एडमिशन की खातिर डेरा डाले हुए हैं. फार्म भरवाने पड़ते हैं. जगह जगह घूमना होता है. विजयशंकर चतुर्वेदी जी कविता उम्दा लगी. उनकी किताब ख़रीदनी पड़ेगी – नाम पता कुछ दीजिए ! पिछ्ली पोस्ट भी बढ़िया है !

  2. अच्छी कविता है! अगर हम शुरुवात में अपने-अपने संप्रदाय की कमियों को दूर करने का प्रयास करें तो साम्प्रदायिकता को काफी हद तक समाप्त किया जा सकता है!

  3. संग्रह की बहुत बहुत शुभकामनाएं विजय जी को और कविता चयन एवं प्रस्तुति के लिए शिरीष का अभार।

  4. क्षमा चाहूंगा, इंटरनेट से दूर रहने के कारण यह पोस्ट देर से देख पाया. शिरीष भाई, आपको और टिप्पणीकारों को धन्यवाद देना औपचारिकता होगी; अस्तु…!

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