थाने में मगन दीवान जी हैं
और ठीक सामने उकड़ूँ बैठाई गयी है वह औरत
कुछ इस तरह
जैसे बैठी हो शताब्दियों से
और बैठे रहना हो शताब्दियों तक
आख़िर किसलिए आई होगी यहाँ पर यह
भले घर की औरतें तो आतीं नहीं थाने
ज़रूर इसका मर्द या लड़का बन्द होगा भीतर
या फिर इसी का हुआ होगा चालान बदचलनी में
न हिलती है न डुलती है
न बोलती है कुछ
बस देखती है टुकुर-टुकुर सन्न सी
थाने के विरल आँगन को
जो स्वभावत: स्वस्थ और हरा-भरा है
आँगन में है आम का पेड़
जिस पर जैसे डर के मारे
निकल आये हैं नये नकोर बौर
इस अप्रैल में ही
औरत देखती है उनको
और थाने में मुसकाती है अचानक
यह जानते हुए भी कि थाने में मुसकाना
कितना भयानक हो सकता है
जैसे उसका बचपना जाग गया हो उसके भीतर
उकडू़ँ बैठे बैठे ही वह मार देती हैं छलाँग बचपन में
भूल जाती है कि
उसका मरद कि लड़का बन्द है भीतर
या उसी का हुआ है चालान
इस अप्रैल के जानलेवा घाम में
थाने के आँगन में उकड़ूँ बैठी औरत मुसकाती है
मैं प्रार्थना करता हूँ मन में
कि दीवान को शताब्दियों तक न मिले फुर्सत
उसकी ओर देखने की।
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चुप रहो
चुप रहो नहीं तो
किसी महान शास्त्रीय आलाप की रगड़
से रेत दिया जायेगा तुम्हारा गला
महान नहीं होने दी जायेगी तुम्हारी मृत्यु
गोली नहीं मारी जायेगी तुम्हारी आँखों के बीच
तुम्हारे ही शहर में
सड़क के पीछे की किसी सुनसान गली में
तुम्हारे सर पर झम्म से गिरेगा
किसी महान लेखक का आंतकित कर देने वाला शब्द
तो अगर नहीं देख सकते हो तुम दुनिया के तमाशे
चुप रहो और मुस्कुराओ
कि तुम अपने शहर में ज़िन्दा हो
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डॉल्टनगंज के मुसलमान
कोई बड़ा शहर नहीं है डाल्टनगंज
बिल्कुल आम क़स्बों जैसी जगह
जहाँ बूढ़े अलग-अलग किस्मों से खाँसकर
ज़िन्दगी का काफ़िया और तवाज़ुन सम्भालते हैं
और लड़के करते हैं ताज़ा भीगी मसों के जोश में
हर दुनियावी मसले को तोलने की कोशिश
छतों के बराबर सटे छज्जों में
यहाँ भी कच्चा और आदिम प्रेम पनपता है
यहाँ भी कबूतर हैं
सुस्ताये प्रेम को संवाद की ऊर्जा बख्शते
डॉल्टनगंज के जीवन में इस तरह कुछ भी नया नहीं है
यहाँ भी कभी – कभी
समय काटने के लिए लोग रस्मी तौर पर
अच्छे और पुराने इतिहास को याद कर लेते हैं।
इन सारी बासी और ठहरी चीज़ों के जमाव के बावजूद
डॉल्टनगंज के बारे में जानने लगे हैं लोग
अख़बार आने लगा है डॉल्टनगंज में
डॉल्टनगंज में आने लगी हैं ख़बरें
आखिरकार लोग जान गये हैं
पास के क़स्बों में मारे जा रहे हैं लोग
डॉल्टनगंज का मुसलमान
सहमकर उठता है अजान के लिए
अपनी घबराहट में
बन्दगी की तरतीब और अदायगी के सलीकों में
अकसर कर बैठता है ग़लतियाँ
डॉल्टनगंज के मुसलमान
सपने में देखते हैं कबीर
जो समय की खुरदरी स्लेट पर
कोई आसान शब्द लिखना चाहते हैं
तुम मदरसे क्यों नहीं गये कबीर
तुमने लिखना क्यों नहीं सीखा कबीर
हर कोई बुदबुदाता है अपने सपनों में बार-बार
कस्बे के सुनसान कोनों में
डॉल्टनगंज के मुसलमान
सहमी और काँपती हुई आवाज़ में
खुशहाली की कोई परम्परागत दुआ पढ़ते हैं
डॉल्टनगंज के आसमान से
अचानक और चुपचाप
अलिफ़ गिरता है।
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